WEBVTT
00:01:19.360 --> 00:01:32.360
यह श्री समयसार जी परमागम शास्त्र है।
उसका मोक्ष नाम का अधिकार है।
गाथा २९७ चलती है।
00:01:32.384 --> 00:01:44.480
उसमें मोक्ष का मार्ग मोक्ष का कारण है।
और मोक्ष के मार्ग का कारण भेदविज्ञान है।
00:01:44.504 --> 00:01:54.000
भेदविज्ञान क्या? मोक्ष का मार्ग क्या?
और मोक्ष क्या?
मोक्ष अर्थात् पूर्ण आनंद की दशा।
00:01:54.024 --> 00:02:00.200
अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय आनंद
ऐसी पूर्ण दशा प्रगट होती है
00:02:00.224 --> 00:02:09.640
- अनंतज्ञान, अनंतदर्शन,
अनंतसुख और अनंतवीर्य,
ऐसी परिपूर्ण अवस्था का नाम मोक्ष दशा है।
00:02:09.664 --> 00:02:22.600
और उस मोक्ष का कारण मोक्षमार्ग है।
मोक्ष है, परिपूर्ण दशा है आनंद की
और उसका कारण मोक्ष का मार्ग है।
00:02:22.624 --> 00:02:32.680
मोक्ष का मार्ग यानि कि वीतरागमार्ग।
और ये वीतराग भाव प्रगट होने का
कारण भेदविज्ञान है।
00:02:32.704 --> 00:02:40.920
भेदविज्ञान अर्थात् जो वर्तमान पुण्य
और पाप की लगन का उत्थान होता है,
00:02:40.944 --> 00:02:50.640
ऐसी बहिर्मुख वृत्ति में क्षण में
शुभ और क्षण में अशुभ, ऐसे
जो विकृत भाव उत्पन्न होते हैं,
00:02:50.664 --> 00:02:59.320
उससे भिन्न चिदानंद आत्मा
वह चेतनेवाला है लेकिन
पुण्य-पाप को करनेवाला नहीं।
00:02:59.344 --> 00:03:07.400
अनादि-अनंत आत्मा का स्वरूप ही ऐसा है।
एक समय मात्र भी आत्मा...
00:03:07.424 --> 00:03:19.560
जिसको आत्मा कहने में आता है
ऐसा जो शुद्धात्मा, वो पुण्य और
पाप के परिणाम को करनेवाला नहीं है।
00:03:19.584 --> 00:03:30.320
आज तक जिस आत्मा ने
पुण्य और पाप के परिणाम को किया नहीं,
00:03:30.344 --> 00:03:36.940
ऐसा जो शुद्धात्मा, उसका अवलंबन
लेने पर मोक्ष का मार्ग प्रगट होता है।
00:03:36.964 --> 00:03:52.600
पुण्य और पाप के परिणाम पर्याय में,
अवस्था में मलिन भाव भले अनादि से हों,
लेकिन उनका उत्पादक, उनका कर्ता आत्मा नहीं है।
00:03:52.624 --> 00:04:05.600
क्योंकि आत्मा में पुण्य और पाप के परिणाम को
करने की आत्मा में कोई शक्ति नहीं है,
कि जो उसकी रचना करे।
00:04:05.624 --> 00:04:22.200
ऐसा जो शुद्धात्मा- अकारक और अवेदक,
अकर्ता और अभोक्ता, वो मात्र चेतनेवाला है।
चेतनेवाला है लेकिन करनेवाला नहीं है।
00:04:22.224 --> 00:04:35.840
ये पुण्य और पाप के परिणाम भले संयोग में
हों लेकिन भगवान आत्मा उनका करनेवाला नहीं है।
उनसे भिन्न आत्मा है।
00:04:35.864 --> 00:04:52.040
रागादि परिणाम से आत्मा, शुद्धात्मा,
चेतनेवाला, देखनेवाला, जाननेवाला, ज्ञानमय
आत्मा, रागमय ऐसे जड़भाव से भिन्न है।
00:04:52.064 --> 00:04:59.280
इसलिए जड़भाव को करनेवाला नहीं है।
वह तो चेतनेवाला, जाननेवाला, देखनेवाला है।
00:04:59.304 --> 00:05:10.320
लेकिन अनादिकाल से भेदज्ञान का अभाव
होने के कारण मानो ये रागादिभाव
मेरे हैं और मैं उनका हूँ,
00:05:10.344 --> 00:05:15.680
ऐसे अनादिकाल से
पुण्य और पाप का स्वामी बना बैठा है।
00:05:15.704 --> 00:05:19.680
परिणाम दूसरे के हैं,
परिणाम जीव के नहीं हैं।
00:05:19.704 --> 00:05:25.240
जीव में ज्ञान होता है और
उस ज्ञान से पुण्य और पाप भिन्न हैं।
00:05:25.264 --> 00:05:29.920
ये पुण्य-पाप ज्ञान में जानने में तो आते हैं
मगर ज्ञान में आते नहीं।
00:05:29.944 --> 00:05:41.480
ये पुण्य-पाप से भिन्न आत्मा,
आचार्य भगवान कहते हैं कि इस राग से
भिन्न करने का साधन प्रज्ञाछैनी है।
00:05:41.504 --> 00:05:49.880
प्रज्ञा अर्थात् अंतर्मुख ज्ञान कि
जिस ज्ञान में ज्ञायक जानने में आये,
अनुभव में आये,
00:05:49.904 --> 00:05:56.920
तब उस राग की एकताबुद्धि तोड़कर
अनुभव होता है, उसको
प्रज्ञा कहने में आता है।
00:05:56.944 --> 00:06:05.200
तो ये प्रज्ञा अर्थात् अंतर्मुख ज्ञान द्वारा,
भेदज्ञान द्वारा, भेदज्ञान द्वारा अर्थात्
अभेद के अनुभव द्वारा,
00:06:05.224 --> 00:06:12.200
भेदज्ञान अर्थात् अभेद का अनुभव।
भेद का अनुभव नहीं।
00:06:12.224 --> 00:06:23.520
भेद का लक्ष्य छोड़कर अभेद सामान्य
टंकोत्कीर्ण आत्मा है उसको अंतर में लेकर
जाने, अनुभव करे, उसका नाम प्रज्ञाछैनी है।
00:06:23.544 --> 00:06:29.520
और उसके द्वारा मेरा आत्मा
पुण्य-पाप से भिन्न है-
ऐसा भान होता है
00:06:29.544 --> 00:06:35.160
गृहस्थ अवस्था में। तब उसको
अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव आता है।
00:06:35.184 --> 00:06:42.480
अब उस प्रज्ञा द्वारा आत्मा और
आस्रव को जुदा किया।
00:06:42.504 --> 00:06:52.800
बंध का लक्षण राग, राग अर्थात् आस्रव।
आस्रव के दो भेद। पुण्यास्रव
और पापास्रव, दो प्रकार होते हैं।
00:06:52.824 --> 00:07:02.740
उनसे भिन्न आत्मा को जुदा किया
और जाना। श्रद्धा-ज्ञान में लिया
कि मेरा आत्मा तो चेतनेवाला है।
00:07:02.764 --> 00:07:10.280
ये पुण्य-पाप का करनेवाला नहीं है।
इसप्रकार प्रज्ञा द्वारा, ज्ञान द्वारा भेदज्ञान
करके अभेद का अनुभव किया।
00:07:10.304 --> 00:07:21.320
उसके बाद शिष्य प्रश्न करता है कि
ऐसे भेदज्ञान द्वारा राग से भिन्न
करके चिदानंद आत्मा का अनुभव किया।
00:07:21.344 --> 00:07:29.600
अब उस प्रज्ञा द्वारा आत्मा को
ग्रहण किस तरह करना?
प्रज्ञा से तो राग से भिन्न कर दिया।
00:07:29.624 --> 00:07:45.360
अब वह आत्मा जो लक्ष्य में आया, उसको प्रज्ञा
द्वारा अर्थात् ज्ञान द्वारा अर्थात् उपयोग द्वारा किस
तरह से ग्रहण करना अर्थात् किस तरह से जानना?
00:07:45.384 --> 00:07:51.240
श्रद्धा में लिया हुआ आत्मा, उसको
अब किस तरह से मुझे जानना?
00:07:51.264 --> 00:07:57.720
श्रद्धा में आ गया है। लेकिन कृपा
करके मुझे जानने की विधि बताओ।
00:07:57.744 --> 00:08:04.120
श्रद्धा तो प्रगट हो गई लेकिन
अब उसको जानें किस तरह से?
00:08:04.144 --> 00:08:10.360
फिर-फिर अनुभवना किस तरह?
ऐसा एक चारित्र का प्रश्न
शिष्य को उत्पन्न हुआ है।
00:08:10.384 --> 00:08:19.440
यह चारित्र दशा कैसे हो - उसकी बात
चलती है। तब आचार्य भगवान ने
शोर्ट में, संक्षिप्त में उत्तर दिया।
00:08:19.464 --> 00:08:28.760
कि जिस साधन के द्वारा तूने राग से आत्मा को जुदा
किया उस ही साधन (द्वारा)- प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को ग्रहण करना।
00:08:28.784 --> 00:08:41.920
अब प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को ग्रहण करना,इसप्रकार
ग्रहण करना चाहिए कि, ऐसा जानना, ज्ञान द्वारा
ऐसा जानना, अनुभवना कि
00:08:41.944 --> 00:08:49.060
जो चेतनेवाला है वह निश्चय से मैं हूँ,
जो जाननेवाला है वह मैं हूँ।
00:08:49.084 --> 00:09:01.840
अनादि-अनंत आत्मा जाननेवाला जाननेवाला
देखनेवाला देखनेवाला ऐसा त्रैकालिक स्वभाव,
जो चेतनेवाला आत्मा, जिसमें चैतन्य रहता है,
00:09:01.864 --> 00:09:11.200
उसमें राग नहीं, द्वेष नहीं, (काल्पनिक) सुख
नहीं, दुःख नहीं, आठ कर्म नहीं, शरीर नहीं।
जगत के कोई पदार्थ उसकी अस्ति में नहीं।
00:09:11.224 --> 00:09:25.760
वह तो ज्ञान और आनंद से भरा हुआ आत्मा
चेतनेवाला है। इसको ऐसे ग्रहण करना,
ऐसे जानना कि मैं चेतनेवाला हूँ।
00:09:25.784 --> 00:09:41.840
जो चेतक है वो यह मैं हूँ। और शेष जो
भाव, जो रागादि हैं, पाँच महाव्रत आदि के
भाव, वें सब मेरे से भिन्न हैं।
00:09:41.864 --> 00:09:49.680
मेरा लक्षण और राग का लक्षण मिलता हुआ
आता नहीं। वे अनमेल भाव हैं।
00:09:49.704 --> 00:10:01.960
मेरे द्रव्य, गुण, पर्याय में चेतना है और
पाँच महाव्रत के जो परिणाम प्रगट होते हैं
उनमें चेतना लक्षण का अभाव है।
00:10:01.984 --> 00:10:08.400
जिसमें चेतना लक्षण नहीं वो मेरे भाव नहीं।
मेरे से बाह्य हैं।
00:10:08.424 --> 00:10:14.480
ऐसा भेदज्ञान करके अनुभव किया,
आत्मा को दृष्टि में लिया।
00:10:14.504 --> 00:10:22.560
अब फिर से उस शुद्धोपयोग द्वारा
आत्मा को... प्रतीति में आया।
00:10:22.584 --> 00:10:31.600
अब शुद्धोपयोग द्वारा आत्मा को किस तरह से
अनुभवना? किस तरह से ध्येय का ध्यान करना?
00:10:31.624 --> 00:10:37.400
તેનું ઘ્યાન કેવી રીતે કરવું?
उसका ध्यान किस तरह से करना?
00:10:37.424 --> 00:10:49.360
उसका आचार्य भगवान उत्तर देते हुए कहते हैं कि
ज्ञान की पर्याय द्वारा आत्मा जाना जा सकता नहीं।
00:10:49.384 --> 00:10:56.920
ज्ञान की पर्याय का जो भेद है कि
श्रुतज्ञान द्वारा मैं आत्मा को जानता हूँ।
00:10:56.944 --> 00:11:06.160
तो कहते हैं कि श्रुतज्ञान का एक समय का भेद-
पर्याय है। उसके द्वारा आत्मा को जानने पर,
इतना भेद पड़ा।
00:11:06.184 --> 00:11:18.760
इसके द्वारा इसको जानना।
ज्ञान की अवस्था द्वारा ज्ञायक को जानना।
समझाने के लिए यह बात सच्ची है।
00:11:18.784 --> 00:11:28.120
कहने के लिए यह बात सच्ची है। कि राग द्वारा
तो जाना जा सकता नहीं पर ज्ञान द्वारा
आत्मा जाना जा सकता है।
00:11:28.144 --> 00:11:36.080
कहने के लिए तो यह बात सही है।
पर इतना कथन आया उसमें
भेद उत्पन्न हो गया। आहाहा!
00:11:36.104 --> 00:11:44.840
ज्ञान द्वारा, उपयोग द्वारा
आत्मा को जानना- इतना उसमें भेद पड़ने पर,
00:11:44.864 --> 00:11:53.960
भेद के लक्ष्य से जो विकल्प उत्पन्न होता है,
उसमें आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता नहीं।
00:11:53.984 --> 00:12:00.880
इसलिए ज्ञान द्वारा यह समझाने के लिए
कहा था। अब तू उसको गौण कर डाल।
00:12:00.904 --> 00:12:06.600
यह गौण करके आत्मा द्वारा आत्मा जानने में आता है।
00:12:06.624 --> 00:12:15.840
आत्मा द्वारा, आत्मा से, आत्मा के लिए,
आत्मा में, आत्मा के आधार से आत्मा जानने में आता है।
00:12:15.864 --> 00:12:24.240
इतना समझाया, इतना समझाया
उसमें भी कारक का भेद पड़ता है।
00:12:24.264 --> 00:12:31.620
कर्ता भी आत्मा, करण आत्मा, कर्म आत्मा,
सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण आत्मा।
00:12:31.644 --> 00:12:38.560
पर्याय के षट्कारक से तो आत्मा
अनुभव में आता नहीं।
00:12:38.584 --> 00:12:44.960
पर पर्याय परिणत जो आत्मा उसमें भी
भेद पड़ता है कि आत्मा आत्मा को जानता है।
00:12:44.984 --> 00:12:49.760
आत्मा आत्मा को जानता है- उसमें
भी आत्मा जानने में नहीं आता।
00:12:49.784 --> 00:12:54.520
एकदम ऊँचे प्रकार की बात है। आहाहा!
00:12:54.544 --> 00:13:03.520
ये तो महाविदेह क्षेत्र में से आई हुई बात,
कुन्दकुन्द भगवान ने झेली और हमारे
लिए ये माल लाये। आहाहा!
00:13:03.544 --> 00:13:07.960
और हमारे लिए ये शास्त्र लिखे हैं।
प्रभु! सुन!
00:13:07.984 --> 00:13:17.040
तू बाहर की क्रिया, पुण्य की क्रिया से
धर्म मान रहा है कि पुण्य से धर्म
होता है। ये तो बड़ा पाप है।
00:13:17.064 --> 00:13:23.180
पुण्य स्वयं पाप नहीं है। लेकिन
पुण्य से धर्म मानना उसका नाम पाप है।
00:13:23.204 --> 00:13:30.260
पुण्य के परिणाम तो साधक को भी होते हैं,
आते हैं। लेकिन पुण्य से धर्म (होता है ऐसा) साधक मानता नहीं।
00:13:30.284 --> 00:13:35.760
अज्ञानी जीव पुण्य के परिणाम से
धर्म मानता है, यह तो बड़ा अज्ञान है।
00:13:35.784 --> 00:13:45.160
पुण्य के परिणाम, राग के परिणाम से तो
आत्मा अनुमान में भी आता नहीं तो
अनुभव की बात तो (कहीं दूर रही।) आहाहा!
00:13:45.184 --> 00:13:52.640
वह तो जड़भाव अचेतन है।
वह तो स्वभाव का अंश भी नहीं है।
00:13:52.664 --> 00:14:01.720
वह तो पुद्गल का ही अंश है। कर्मकृत
भाव है, भाई! जीवकृत (भाव नहीं है)।
इसलिए उसकी बात तो दूर रहो।
00:14:01.744 --> 00:14:06.840
पर जो उपयोग आत्मा का लक्षण है
और आत्मा लक्ष्य है।
00:14:06.864 --> 00:14:14.080
शक्कर की मिठास है वो लक्षण कहलाता है
और शक्कर को लक्ष्य कहा जाता है।
00:14:14.104 --> 00:14:21.600
लक्षण लक्ष्य को प्रसिद्ध करता है।
लक्षण लक्ष्य को प्रसिद्ध करता है,
00:14:21.624 --> 00:14:28.520
कि मिठास वो शक्कर,
कड़वा वो अफीम,
खट्टा वो नींबू इत्यादि।
00:14:28.544 --> 00:14:39.200
ऐसा कहते हैं कि उपयोग लक्षण द्वारा
आत्मा अनुमान में आता है,
लेकिन अनुभव में आता नहीं।
00:14:39.224 --> 00:14:51.840
राग द्वारा तो अनुमान में भी आता नहीं लेकिन
उपयोग लक्षण द्वारा यह आत्मा चेतनेवाला है, जाननेवाला
है, देखनेवाला है ऐसा ख्याल में आ सकता है।
00:14:51.864 --> 00:15:00.200
ख्याल में ले सकते हैं।
लेकिन वो अनुमान में आ सकता है।
भेद द्वारा अभेद अनुमान में आता है।
00:15:00.224 --> 00:15:08.880
भेद द्वारा अभेद वस्तु, अभेद का भेद,
अभेद का भेद होने से,
भेद द्वारा अभेद अनुमान में आता है
00:15:08.904 --> 00:15:10.904
लेकिन जो अभेद का भेद नहीं, उसके द्वारा तो
आत्मा अनुमान में भी आ सकता नहीं।
00:15:10.928 --> 00:15:24.360
वह तो सम्यक के सन्मुख भी नहीं है।
किन्तु ज्ञान द्वारा, पर्याय द्वारा
मैं द्रव्य को जानता हूँ, आहाहा!
00:15:24.384 --> 00:15:35.160
ज्ञान की पर्याय वह आत्मा का परिणाम है।
आत्मा के परिणाम द्वारा आत्मा को जानता हूँ।
कहते हैं बापू! भेद पड़ा। आहाहा!
00:15:35.184 --> 00:15:40.480
आत्मा और आत्मा के परिणाम-
एक में दो प्रकार तूने किये।
00:15:40.504 --> 00:15:47.200
इस भेद से भी विकल्प की उत्पत्ति होती है
लेकिन शुद्धात्मा की प्राप्ति होती नहीं।
00:15:47.224 --> 00:15:55.720
बाद में आगे चलकर आचार्य भगवान ऐसा कहते हैं
कि आत्मा द्वारा आत्मा जानने में आता है।
स्वयं स्वयं को जानता है।
00:15:55.744 --> 00:16:03.160
सेटिका की गाथा में आया है कि
स्वयं स्वयं को जानता है, वह भी
स्व-स्वामी संबंध का अंश है।
00:16:03.184 --> 00:16:09.760
उस व्यवहार से साध्य की सिद्धी होती नहीं।
आत्मा आत्मा को जानता है।
स्वयं स्वयं को जानता है।
00:16:09.784 --> 00:16:18.760
स्वयं पर को जानता है यह मान्यता तो अज्ञान में
जाती है। वह तो ज्ञान में आता नहीं।
00:16:18.784 --> 00:16:33.320
लेकिन आत्मा आत्मा को जानता है, आत्मा द्वारा मैं
आत्मा को जानता हूँ, आत्मा से आत्मा को
जानता हूँ, आत्मा के लिए आत्मा को जानता हूँ,
00:16:33.344 --> 00:16:42.360
आत्मा में से आत्मा को जानता हूँ- ऐसे आत्मा
एक होने पर भी उसके दो भाग किये,
00:16:42.384 --> 00:16:47.880
इसलिए उसे विकल्प का जाल खड़ा
होता है, लेकिन अनुभव होता नहीं।
00:16:47.904 --> 00:16:56.400
इसलिए अब, वहाँ तक कल अपन आये
थे। अब उससे आगे एक आखरी बात है।
00:16:56.424 --> 00:17:06.120
किसी को ऐसा लगे कि शीघ्रता से जल्दी
कह दो, तो अब कुछ बाकी नहीं है।
ये एक बाकी है। थोड़ा-सा एक बाकी है।
00:17:06.144 --> 00:17:11.560
ये जो नज़र में आ जाये तो
यहीं बैठे-बैठे अनुभव हो।
00:17:11.584 --> 00:17:20.240
बाहर निकलने की जरूरत नहीं है।
यह क्या है मर्म?
यह अब आचार्य भगवान फरमाते हैं।
00:17:20.264 --> 00:17:37.040
न चेतता हुआ चेतता हूँ,
न चेतता हुआ चेतता हूँ।
00:17:37.064 --> 00:17:48.640
अर्थात् न जानता हुआ जानता हूँ।
न देखता हुआ देखता हूँ।
है तो सब देखने का और जानने का अंदर।
00:17:48.664 --> 00:17:57.120
बाहर की बात यहाँ कुछ है नहीं,
यहाँ कर्म, राग को जानने की,
देखने की बात तो है ही नहीं।
00:17:57.144 --> 00:18:06.600
लेकिन आत्मा को देखने के लिए भेद जितना पड़ता है,
उसमें भी आत्मा का अनुभव होता नहीं,
मोक्षमार्ग प्रगट होता नहीं।
00:18:06.624 --> 00:18:13.960
मोक्षमार्ग प्रगट हो तो मोक्ष हो।
विकल्प की जाल वह तो बंधमार्ग है।
00:18:13.984 --> 00:18:18.880
दो प्रकार के, छह प्रकार के कारक के
भेद पड़ते हैं उसमें अनुभव होता नहीं।
00:18:18.904 --> 00:18:25.720
इस समयसार में कर्ता-कर्म अधिकार की ७३ नंबर की गाथा है।
00:18:25.744 --> 00:18:41.560
उसमें 'शुद्ध' के बोल में ऐसा लिया कि
यह आत्मा एक है, शुद्ध है,
ममत्वहीन और ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण (है)।
00:18:41.584 --> 00:18:57.760
कहते हैं कि यह आत्मा शुद्ध है इसलिए कि सर्व
प्रकार के कारकों की प्रक्रिया से पार उतरी हुई निर्मल
अनुभूतिमात्र स्वभाव होने से आत्मा शुद्ध है।
00:18:57.784 --> 00:19:03.360
आत्मा परपदार्थ को तो करता, भोगता नहीं।
00:19:03.384 --> 00:19:12.480
ऐसी तो प्रक्रिया आत्मा में है ही नहीं।
फिर भी ऐसा माने कि मैं पर को करूँ,
पर को सुखी-दुःखी करूँ, आहाहा!
00:19:12.504 --> 00:19:21.120
वह तो एकदम स्थूल अज्ञान है।
ऐसा कर्तापना आत्मा में नहीं है।
00:19:21.144 --> 00:19:29.260
आत्मा में ऐसा कर्तापना नहीं है कि
कर्म को बांधे और कर्म को भोगे,
ऐसा कर्तापना नहीं है।
00:19:29.284 --> 00:19:37.320
आत्मा में ऐसा कर्तापना नहीं है कि
पुण्य-पाप को करे।
ऐसा कर्तापना आत्मा में नहीं है।
00:19:37.344 --> 00:19:47.840
आत्मा में ऐसा कर्तापना नहीं कि
वीतरागभाव को करे। आहाहा!
सूक्ष्म बात है। आहाहा!
00:19:47.864 --> 00:19:57.160
जबलपुरवाले आये थे ना? जबलपुरवाले
नहीं भुसावलवाले। उन्होंने नहीं कहा था कि बहुत ही
सूक्ष्म बात है यहाँ समझने जैसी।
00:19:57.184 --> 00:20:05.000
यह भगवान आत्मा है, यह शुद्ध इसलिए
है कि अकर्ता है, इसलिए शुद्ध है।
00:20:05.024 --> 00:20:16.720
अब, अकर्ता है इसलिए शुद्ध है- ये बताने
के लिए ऐसा कहा कि सर्व प्रकार के कारकों..,
निकालो ७३ नम्बर की गाथा। हमारे सामने साक्षी है।
00:20:17.000 --> 00:20:26.480
शास्त्र का आधार। कर्ताबुद्धि छूटे बिना
कहीं भव का अंत आये ऐसा नहीं है।
00:20:26.504 --> 00:20:36.120
ज्ञाता है, कर्ता नहीं है भाई!
आत्मा को कर्ता मानना यह तो बड़ी भूल है।
00:20:36.144 --> 00:20:58.800
देखो! शुद्ध का बोल है। मैं शुद्ध हूँ।
आत्मा शुद्ध होता नहीं। शुद्ध है।
00:20:58.824 --> 00:21:06.040
शुद्ध होता है वह परिणाम होता है।
शुद्ध होता है वह परिणाम होता है।
00:21:06.064 --> 00:21:15.000
वो शुद्ध होता है वो
परिणाम में शुद्धता होती है।
00:21:15.024 --> 00:21:27.800
मोक्ष है वो परिणाम है। उस परिणाम में बंध था
पूर्व काल में, उस बंध का
अभाव होकर जीव का मोक्ष होता है।
00:21:27.824 --> 00:21:33.760
जीव का मोक्ष होता है अर्थात्
जीव के परिणाम का मोक्ष होता है।
00:21:33.784 --> 00:21:40.000
जीव का मोक्ष होता है- वो शोर्ट वाक्य है,
संक्षिप्त। समझे?
00:21:40.024 --> 00:21:48.480
जीव बंधा था, अब जीव का मोक्ष
हो गया। ऐसे कथन में तो ऐसा आता है।
00:21:48.504 --> 00:21:55.600
मगर सचमुच तो जीव बंधा नहीं था।
वो परिणाम में बंध था।
00:21:55.624 --> 00:22:04.480
वो परिणाम में मोक्ष हो गया तो
कहा जाता है कि जीव का मोक्ष हो गया।
सचमुच तो मोक्ष होता है परिणाम का।
00:22:04.504 --> 00:22:11.840
भगवान आत्मा को बंध भी नहीं है
और मोक्ष भी नहीं है।
वह तो त्रिकाल मुक्त है। आहाहा!
00:22:11.864 --> 00:22:20.200
परमात्मा विराजमान अभी मुक्त है।
मुक्त दशा नहीं है।
बंध दशा में भी मुक्त रहता है।
00:22:20.224 --> 00:22:26.040
बंध दशा होने पर भी वह
भगवान आत्मा मुक्त ही है।
00:22:26.064 --> 00:22:36.800
मिथ्यात्व की तीव्र अवस्था हो, गृहीत और
अगृहीत दोनों भले, ऐसी अवस्था के
काल में भी भगवान आत्मा तो शुद्ध है।
00:22:36.824 --> 00:22:46.840
वो देख ले तू। दिखाई देता है। ये परिणाम के
मध्य में रहने पर भी वो
आत्मा स्फटिकमणि जैसा शुद्ध है। आहाहा!
00:22:46.864 --> 00:22:54.600
उसको देख ले। परिणाम को मत देख।
परिणाम को देखना बंद कर दे एक क्षणभर।
00:22:54.624 --> 00:23:01.560
परिणाम का जो भेद है न,
ओहोहो! बंद कर दे उसकी दृष्टि।
दृष्टि हटा दे वहाँ से।
00:23:01.584 --> 00:23:09.320
लक्ष हटा दे। और परिणाम के बीच में वो
भगवान आत्मा विराजमान है,
उसको लक्ष्य में ले ले। आहाहा!
00:23:09.340 --> 00:23:17.160
एक समय के लिए तो लक्ष्य में ले कि
जाननेवाला जानने में आता है,
और कुछ जानने में आता नहीं। आहाहा!
00:23:17.184 --> 00:23:26.920
ऐसे आचार्यमहाराज फरमाते हैं
कि मैं शुद्ध हूँ। उसका कारण देते हैं।
शुद्ध का कारण क्या?
00:23:26.944 --> 00:23:34.360
कि आत्मा पर का कर्ता नहीं है इसलिए शुद्ध है।
आत्मा शरीर का कर्ता नहीं है इसलिए शुद्ध है।
00:23:34.384 --> 00:23:42.640
आत्मा वाणी का कर्ता नहीं है इसलिए शुद्ध है।
आत्मा आठ कर्म का कर्ता नहीं है इसलिए शुद्ध है।
00:23:42.664 --> 00:23:52.760
आत्मा पुण्य-पाप का कर्ता नहीं है इसलिए शुद्ध है।
आत्मा संवर, निर्जरा, मोक्ष का कर्ता नहीं है
इसलिए आत्मा शुद्ध रह गया।
00:23:52.784 --> 00:23:59.400
शुद्ध पर्याय का कर्ता नहीं है
इसलिए आत्मा शुद्ध है।
00:23:59.424 --> 00:24:06.880
(कोई कहे) कि शुद्ध पर्याय तो करना चाहिए न
भैया! करना चाहिए कि होता है उसको जानना चाहिए?
00:24:06.904 --> 00:24:17.600
होने योग्य होता है उसका जाननहार है
कि नहीं होता है उसको करना है?
और होता है उसको करना है?
00:24:17.624 --> 00:24:30.340
नहीं होता है उसको कर सकते नहीं हैं। और स्वयं
होता है, वो कर्तापने की अपेक्षा रखता नहीं।
वो परिणाम तो हो गया। आहाहा!
00:24:30.380 --> 00:24:45.920
बहुत ऊँची गाथा है। आहाहा!
आखरी दिन है। आहाहा! ये हरख जमण (प्रीतिभोज) है।
ऊँची बात है। गुरुदेव कहते हैं कि हरखजमण (है)।
00:24:45.944 --> 00:24:58.200
भगवान एक बार तेरी बात तो सुन!
तेरी कथा भगवान कहते हैं।
भगवान भगवान की कथा कहते हैं।
00:24:58.224 --> 00:25:07.820
भगवान होकर भगवान को बताते हैं।
ऐसे (मात्र) शास्त्र पढ़कर ये आत्मा की बात नहीं करते।
00:25:07.844 --> 00:25:18.760
प्रत्यक्ष अनुभव करके (आत्मा की बात करते हैं।)
मुनिराज आहाहा! निरंतर आनंद का भोजन
करनेवाले, प्रचुर आनंद का भोजन करने वाले।
00:25:18.784 --> 00:25:28.080
जंगल में रहनेवाले। ये धर्मात्मा कहते हैं
प्रभु! आत्मा तो ज्ञाता है न! कर्ता है नहीं।
00:25:28.104 --> 00:25:34.160
कर्ता नहीं है इसलिए शुद्ध रह गया।
यानि अकर्ता है इसलिए शुद्ध रह गया।
00:25:34.184 --> 00:25:43.160
तो किसका कर्ता नहीं है? कि पर का कर्ता नहीं,
कर्म का कर्ता नहीं, राग का कर्ता नहीं।
यहाँ तक तो ठीक है। यहाँ तक तो...
00:25:43.184 --> 00:25:48.800
ऐसा ऐसा (हाँ) होता है। यहाँ तक तो ठीक है।
00:25:48.824 --> 00:25:54.680
मगर वीतराग भाव का कर्ता नहीं है,
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के परिणाम का,
निश्चय मोक्षमार्ग का कर्ता नहीं है,
00:25:54.704 --> 00:26:02.400
ऐसा (हाँ करने की हिम्मत) नहीं आता।
भले ऐसा (हाँ) न आये, लेकिन
ऐसा तो (मना) नहीं करना। क्या कहा?
00:26:02.424 --> 00:26:08.960
समझ न आये तहाँ
तक ऐसा (हाँ) नहीं करना।
00:26:08.984 --> 00:26:17.200
मगर परिणाम का, शुद्ध परिणाम का आत्मा
कर्ता नहीं है, ऐसी बात जब कोई बताए
तब ऐसा (ना) नहीं करना।
00:26:17.224 --> 00:26:21.400
और समझे बिना (हाँ) भी नहीं करना।
थोड़ी देर ऐसा (स्थिर) रखना। ये क्या बात है?
00:26:21.424 --> 00:26:29.880
शुद्ध पर्याय! वो तो करने जैसी चीज है।
करने जैसी है कि होती है
उसको जाननहार है आत्मा?
00:26:29.904 --> 00:26:39.120
करनार है कि आत्मा जाननहार है?
जाननहार है इसलिए आत्मा
बंध-मोक्ष का कर्ता नहीं है।
00:26:39.144 --> 00:26:44.800
तो कौन करता है? वो बात ज़रा सूक्ष्म है।
मगर इतनी बात तो सुनो!
00:26:44.824 --> 00:26:51.840
मुमुक्षु:- वो भी बताइए आप।
उत्तर:- अच्छा! बंध-मोक्ष का कर्ता क्यों नहीं है?
00:26:51.860 --> 00:26:58.680
कि आत्मा है, वो बंध-मोक्ष से भिन्न है।
इसलिए आत्मा बंध-मोक्ष का कर्ता नहीं है।
00:26:58.704 --> 00:27:07.200
उसमें शिष्य का प्रश्न उठा कि बंध-मोक्ष का
कर्ता भले आत्मा ना हो मगर
बंध-मोक्ष कार्य तो है कि नहीं?
00:27:07.224 --> 00:27:11.080
परिणाम तो होता है कि नहीं?
हाँ, परिणाम तो होता है।
00:27:11.104 --> 00:27:18.120
तो शिष्य पूछता है प्रभु! उस परिणाम का
कर्ता (कौन है) बताओ हमको। तो हम अकर्ता मान लेंगे।
00:27:18.144 --> 00:27:20.144
तो आचार्य भगवान ने करुणा करके कह दिया।
खुल्लम खुल्ला कर दिया कि पुद्गल कर्म
उसका कर्ता है। आत्मा कर्ता नहीं है।
00:27:20.168 --> 00:27:35.000
बंध में सद्भाव वर्तता है और मोक्ष पर्याय
होती है, उसमें अभाव कारण है।
अभाव कर्ता है। अभाव से होता है।
00:27:35.024 --> 00:27:41.200
आत्मा के सद्भाव से मोक्ष नहीं होता।
आत्मा तो प्रथम से ही था। आहाहा!
00:27:41.224 --> 00:27:47.680
जब ज्ञानावर्णादि आठ प्रकार का
कर्म का क्षय होता है तो मोक्ष होता है।
00:27:47.704 --> 00:27:51.960
आत्मा से होता हो मोक्ष तो
सीमंधर भगवान कर देवें।
00:27:51.984 --> 00:27:59.600
अभी इधर से विनंती करें देवलाली से सब साथ में मिलकर,
साथ मिलकर विनंती करें कि हे प्रभु!
00:27:59.624 --> 00:28:04.800
आपको तो अनंतज्ञान प्रगट हो गया!
अनंतवीर्य भी प्रगट हो गया।
00:28:04.824 --> 00:28:13.200
और तेरहवाँ गुणस्थान आपका है अभी।
और आपकी वाणी में ऐसा भी आया,
कि तेरहवाँ गुणस्थान वो भी संसार है!
00:28:13.224 --> 00:28:21.560
तो प्रभु! हमारा अरिहंत भगवान, उनको
संसारी भले उपचार से कहा, पर
हमको सहन होता नहीं है।
00:28:21.584 --> 00:28:27.160
हमारी ऐसी एक विनंती है कि
आप मोक्ष कर दो। आहाहा!
00:28:27.184 --> 00:28:40.960
अच्छा काम। क्या? तेरहवें गुणस्थान में अरिहंत
हैं ना? और मोक्ष तो गुणस्थानातीत (है)।
तो ऐसी अपूर्व दशा आप कर दो।
00:28:40.984 --> 00:28:46.840
तो वहाँ से उत्तर आता है कि तेरा
प्रश्न अविवेक और मूर्खता भरा है।
00:28:46.864 --> 00:28:54.280
आत्मा को तू कर्ता मानता है तो तेरा अभिप्राय
मेरे तक स्थाप दिया? आहाहा!
00:28:54.304 --> 00:28:59.280
तू कर्ता तेरे आत्मा को मानता है,
तो मुझे क्यों कर्ता स्थाप दिया?
00:28:59.304 --> 00:29:03.160
अरे! तू भी अकर्ता है और मैं भी अकर्ता हूँ।
00:29:03.184 --> 00:29:11.480
इसलिए मैं मोक्ष की पर्याय को करनेवाला नहीं हूँ।
मैं जाननेवाला हूँ। आहाहा!
00:29:11.504 --> 00:29:18.080
करनेवाला नहीं। करना मेरे स्वभाव में नहीं है,
जानना मेरे स्वभाव में है।
00:29:18.104 --> 00:29:29.480
तो जब मोक्ष होगा न.. मोक्ष कब होगा
वो भी ज्ञान में आ गया। इसलिए आत्मा
कर्ता नहीं है। ख्याल करो। क्या कहा?
00:29:29.504 --> 00:29:38.320
इधर तेरहवें तीर्थंकर परमात्मा होंगे,
आने वाली चौबीसी में। नरेन्द्रभाई!
आने वाली चौबीसी में तीर्थंकर भगवान होने वाले..।
00:29:38.344 --> 00:29:42.560
उसमें पहले तीर्थंकर श्रेणिक महाराज
होने वाले हैं, पहले तीर्थंकर।
00:29:42.584 --> 00:29:51.920
तो जब तेरहवें तीर्थंकर का यहाँ
प्रादुर्भाव होगा तब उनका मोक्ष होगा।
उनके ज्ञान में आ गया।
00:29:51.944 --> 00:29:59.360
पहले से ही ज्ञान में आ गया। और पहले से ही
ज्ञान में आ गया और आज
मोक्ष को करे तो केवलज्ञान खोटा (झूठा) ठहरेगा।
00:29:59.384 --> 00:30:09.160
और पर्याय का सत् भी खोटा ठहरे।
और आत्मा कर्ता बने तो.. आहाहा!
जीभ नहीं उठती है। आहाहा!
00:30:09.184 --> 00:30:18.000
ऐसा वस्तु का स्वरूप है। कोई तत्व का
अभ्यास गहराई से करे नहीं... आहाहा!
00:30:18.024 --> 00:30:26.160
और निश्चयनय की बात बाहर आये कि
ये बंध-मोक्ष का कर्ता कौन है?
कि पुद्गल कर्ता है।
00:30:26.184 --> 00:30:30.020
राग का कर्ता कौन है?
कि पुद्गल कर्म उसका कर्ता है।
00:30:30.044 --> 00:30:37.440
ऐसी निश्चय की बात सुनकर कोई अपने
दोष से स्वच्छंदी हो जाओ तो हो जाओ।
00:30:37.464 --> 00:30:44.840
आहा! मगर तत्व तो ऐसा है।
उल्टा गिरे तो उसकी प्रज्ञा से उल्टा गिरता है।
00:30:44.864 --> 00:30:55.760
आहा! निश्चय की बात सुनकर कोई-कोई
निश्चयाभासी भी हो जाता है।
नहीं होता ऐसा नहीं है। आहा!
00:30:55.784 --> 00:31:07.680
प्रभु! ये शिकार, मांसाहार, दारू,
परस्त्रीगमन, व्यभिचार
ये सब नरक के भाव हैं। आहा!
00:31:07.704 --> 00:31:14.680
उसमें मोक्षमार्ग है नहीं। पुण्य भी
नहीं है। अकेला पाप है और
मनुष्यभव भी मिलनेवाला नहीं है।
00:31:14.704 --> 00:31:24.080
नरक में सीधा जाएगा। हिंसा, झूठ, चोरी,
शिकार, परस्त्रीगमन ऐसे सब सात
व्यसन में आता है। आहा!
00:31:24.104 --> 00:31:31.400
प्रभु! सुन! ये निश्चय की बात सुनकर आत्मा को
जान ले। इसलिए आत्मा की बात जानने के लिए है।
00:31:31.424 --> 00:31:39.800
पाप को करने के लिए (कहता है) कि कर्म करता है,
ठीक है। ये सब हिंसा-
अहिंसा के भाव कर्म करता है।
00:31:39.824 --> 00:31:46.360
अच्छा! हमें छूट मिल गई।
करो लहर (मौज)! मर जाएगा जल्दी।
भाईसाहब का प्रश्न आया था दोपहर में।
00:31:46.384 --> 00:31:56.000
भाईसाहब! तुम कहते हो कि जो ये सब
परिणाम हैं वो पुद्गल करता है, कर्म करता है।
00:31:56.024 --> 00:32:06.200
तो छूट मिल गई पाप करने के लिए। नहीं मिली।
मर जाएगा। वो ऊपर-ऊपर चढ़ाने के लिए बात है।
नीचे-नीचे उतरने की बात नहीं है।
00:32:06.224 --> 00:32:18.360
जो सर्वज्ञ भगवान पुण्य का निषेध करें और
पाप करने को कहें, (ऐसा) कभी उनकी
वाणी में आता नहीं है। आहाहा!
00:32:18.384 --> 00:32:25.240
ये कच्चा पारा है। लायक जीव को
पचेगा। उसका काम हो जाएगा।
00:32:25.264 --> 00:32:30.440
और (ऐसा कहे) ये तो चारित्र का दोष है।
ये तो चारित्र का दोष है।
सम्यग्दर्शन का ठिकाना नहीं!
00:32:30.464 --> 00:32:38.440
सम्यक् सन्मुख का ठिकाना नहीं,
तत्व के निर्णय का ठिकाना नहीं,
व्यवहार बुद्धि का भी ठिकाना नहीं।
00:32:38.464 --> 00:32:47.440
आहाहा! और माने कि ये तो चारित्र का दोष है।
भले दोष आये। मर जाएगा।
कोई बचानेवाला नहीं है। आहाहा!
00:32:47.464 --> 00:32:55.600
सँभालकर इस तत्व का अभ्यास करना चाहिए।
अध्यात्म-विद्या गंभीर है।
00:32:55.624 --> 00:33:07.520
ये सिंहनी का दूध है। सिंहनी का दूध
समझे ना? मिट्टी में डालो न तो मिट्टी
फट जाती है। घड़ा फट जाता है।
00:33:07.544 --> 00:33:17.280
सिंहनी का दूध तो सोने के पात्र में,
यानि कि आत्मार्थी जीव सोने का
पात्र है, उसमें भेदज्ञान जमता है।
00:33:17.304 --> 00:33:31.080
भाईसाहब का प्रश्न था ना, उसका थोड़ा
खुलासा किया। आहाहा!
स्वच्छंद होने की बात नहीं है।
00:33:31.104 --> 00:33:40.800
पहले स्वच्छंदता छोड़ दे। आहाहा!
स्वच्छंदी का काम इधर नहीं है। आहाहा!
00:33:40.824 --> 00:33:52.440
आचार्य भगवान करुणा करके फरमाते हैं,
ये भगवान आत्मा शुद्ध है।
शुद्ध क्यों है? कि अकर्ता है।
00:33:52.464 --> 00:33:58.480
सर्व कारकों के समूह की प्रक्रिया से पार को प्राप्त
00:33:58.504 --> 00:34:02.240
कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान,
अपादान और अधिकरण
00:34:02.264 --> 00:34:06.280
ऐसी प्रक्रिया से
पार को प्राप्त जो निर्मल अनुभूति,
00:34:06.304 --> 00:34:16.040
अनुभूति मतलब ज्ञानमय भगवान आत्मा
उस अनुभूतिमात्रपने के कारण
मैं तो शुद्ध हूँ; किसी का कर्ता नहीं हूँ।
00:34:16.064 --> 00:34:22.360
अरे! भेद को जाननेवाला भी मैं नहीं हूँ।
मैं तो अभेद को जाननेवाला हूँ।
00:34:22.384 --> 00:34:27.840
मगर अभेद होकर अभेद को जाननेवाला हूँ।
अभेद को जाननेवाला वो भी हूँ नहीं हूँ।
00:34:27.864 --> 00:34:34.400
अभेद को जाननेवाला वो भी मैं नहीं हूँ।
अभेद होकर अभेद को जाननेवाला, वो आत्मा है।
00:34:34.424 --> 00:34:44.320
मुमुक्षु: अभेद को जाननेवाला कहा, तो भेद पड़ता है।
उत्तर: भेद पड़ता है। अभेद होकर अभेद जानने में आता है।
00:34:44.344 --> 00:34:55.760
अभेद होकर अभेद जानने में आता है। उसमें अभेद
हो गया, ऐसा भेद भी ख्याल में आता नहीं।
वो तो अंदर में गरकाव (मग्न) हो जाता है। डूब जाता है।
00:34:55.784 --> 00:35:02.900
आहाहा! एयरकंडीशन में बैठ जाता है।
अंदर एयरकंडीशन है। गर्मी लगती नहीं है।
00:35:02.924 --> 00:35:12.720
गर्मी यानि कषाय का, विकल्प का दुःख होता नहीं है।
अंदर एयरकंडीशन है।
वो एयरकंडीशन बाहर की चीज़ नहीं है।
00:35:12.744 --> 00:35:25.320
सर्व कारकों के समूह की प्रक्रिया से पार
को प्राप्त जो निर्मल अनुभूति, उस अनुभूतिमात्रपने
के कारण (मैं तो) शुद्ध हूँ;
00:35:25.340 --> 00:35:46.720
ऐसा यहाँ कहते हैं कि आत्मा आत्मा को
जानता है, ऐसा भेद होन से
आत्मा का अनुभव होता नहीं है।
00:35:46.900 --> 00:36:01.900
अब क्या कहते हैं? आत्मा को आत्मा द्वारा जानना,
आत्मा के लिए जानना, इसमें भेद की उत्पत्ति होती है।
00:36:02.264 --> 00:36:09.040
अब भेद छुड़ाने के लिए, भेद छुड़ाने के लिए
(कहा कि) आत्मा आत्मा को जानता है।
00:36:09.064 --> 00:36:11.920
तो दो आत्मा तो नहीं हैं। आत्मा तो (एक है)।
00:36:11.944 --> 00:36:18.120
हिम्मतभाई! आत्मा तो एक है।
दो आत्मा तो है नहीं। आत्मा तो एक ही है ना!
00:36:18.144 --> 00:36:24.200
तो आत्मा के द्वारा आत्मा को जानना, आत्मा के द्वारा
आत्मा को जानना, तो दो आत्मा हो गए।
00:36:24.224 --> 00:36:30.280
एक तो रहा नहीं। तो दो आत्मा ख्याल में
आने से अनुभूति होती नहीं है।
00:36:30.304 --> 00:36:32.800
तो अब क्या करना?
00:36:32.824 --> 00:36:41.160
आपने बताया कि आत्मा द्वारा आत्मा को जानो।
और आप अब कहते हो कि आत्मा को नहीं जानता।
तो ये क्या है?
00:36:41.184 --> 00:36:49.680
नहीं जानता? देखो! नहीं चेतता, न
चेतता हुआ चेतता हूँ । आहाहा!
00:36:49.704 --> 00:36:56.760
यह अंतिम कोटि की ऊँची में ऊँची बात है। आहाहा!
और शुरूआत की बात है, धर्म की शुरूआत।
00:36:56.784 --> 00:37:04.200
सम्यग्दर्शन के समय ये विधि होती है और
चारित्र में भी वो ही विधि है।
00:37:04.224 --> 00:37:10.760
न चेतता हुआ चेतता हूँ ।
न जानता हुआ जानता हूँ।
00:37:10.784 --> 00:37:16.880
जानता हुआ जानता हूँ कि नहीं जानता हुआ जानता हूँ?
कि नहीं जानता हुआ जानता हूँ।
00:37:16.904 --> 00:37:23.960
तो क्या जानन क्रिया का अभाव हो जाएगा?
कि नहीं, जाननक्रिया प्रगट होगी।
00:37:23.984 --> 00:37:30.600
जानता हुआ जानता हूँ, उसमें तो
विकल्प की उत्पत्ति होती थी।
00:37:30.624 --> 00:37:34.520
ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती थी,
अज्ञान की उत्पत्ति होती थी।
00:37:34.544 --> 00:37:47.680
अब जब 'नहीं' कहा, तो विकल्प टूट गया।
दो आत्मा नहीं रहा। एक आत्मा रह गया। आहा!
00:37:47.840 --> 00:37:52.120
अभेद को अभेद होकर जानता है आत्मा।
00:37:52.144 --> 00:37:57.920
अभेद को अभेद से नहीं जानता है,
अभेद होकर जानता है।
00:37:57.944 --> 00:38:00.400
परिणति अंदर में लीन हो जाती है।
00:38:00.424 --> 00:38:08.920
तो न चेतता हुआ चेतता हूँ ,
ये ऐसा है कि भाषा में तो लिमिट हो जाती है।
00:38:08.944 --> 00:38:14.800
भाषा में ज़्यादा आ सकता नहीं। जितना आ
सके उतने शब्दों से आचार्य महाराज समझाते हैं।
00:38:14.824 --> 00:38:20.960
उसका जो वाचक है, उसके वाच्य को
ख्याल में ले लेवे, उसका काम बन जाए।
00:38:20.984 --> 00:38:24.720
ये कहने का आशय क्या है कि
'नहीं' शब्द आपने लगाया।
00:38:24.744 --> 00:38:33.680
उसमें भेद का विकल्प उत्पन्न होता था, वो
विकल्प का नाश करने के लिए 'नहीं' शब्द जोड़ दिया।
00:38:33.704 --> 00:38:41.840
न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुए के
द्वारा चेतता हूँ, न चेतते हुए के लिए चेतता हूँ,आहाहा!
00:38:41.864 --> 00:38:50.680
न चेतते हुए से चेतता हूँ, न चेतते हुए में
चेतता हूँ, न चेतते हुए को चेतता हूँ; आहाहा!
00:38:50.704 --> 00:38:59.840
आत्मा आत्मा को नहीं जानता। आत्मा आत्मा को
जानता नहीं है, उसमें आत्मा जानने में आ जाता है।
00:38:59.864 --> 00:39:03.600
आत्मा आत्मा को जानता है, उसमें विकल्प (होता है)।
00:39:03.624 --> 00:39:10.240
'नहीं' शब्द लगाया तो भेद का विकल्प छूट
गया, अनुभूति हो गई। आहाहा!
00:39:10.264 --> 00:39:16.480
किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र
(-चैतन्यमात्र) भाव हूँ। आहाहा!
00:39:16.504 --> 00:39:21.280
मैं कौन हूँ?
सर्वविशुद्ध चिन्मात्र आत्मा मैं हूँ।
00:39:21.304 --> 00:39:26.120
ऐसा विकल्प नहीं,
ऐसा अंदर में अनुभव आ जाता है।
00:39:26.144 --> 00:39:33.440
परिणाम हो जाता है अंदर का।
ये टीका पूरी हो गई। अब भावार्थ।
00:39:33.640 --> 00:39:39.400
भावार्थ में पंडितजी बहुत खुलासा करते हैं।
अच्छा भावार्थ है।
00:39:39.424 --> 00:39:45.120
भावार्थ में थोड़ा सरल होता है।
टीका में ज़रा हार्ड (कठिन) होता है।
00:39:45.144 --> 00:39:50.080
उसका डायल्युशन (मृदु बनाकर) करके ज़रा
सरल भाषा में समझाते हैं।
00:39:50.104 --> 00:39:57.320
भावार्थ:- प्रज्ञा के द्वारा , यानि ज्ञान द्वारा,
अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा, अंतर्मुख ज्ञान द्वारा,
00:39:57.344 --> 00:40:07.720
भिन्न किया गया जो, राग से भिन्न हूँ,
ऐसा भिन्न अनुभव करने में,
जो चेतक वह मैं हूँ ।
00:40:07.744 --> 00:40:17.160
जो चेतक है सो यह मैं हूँ। जो चार शब्द थे ना?
सो यह मैं हूँ। वो ही अक्षर रखा।
00:40:17.184 --> 00:40:27.720
शब्द नहीं, अक्षर। एक अक्षर क्यों रखा?
कि आत्मा एक है। एकोअहम्। आत्मा एक है।
00:40:27.744 --> 00:40:35.200
इसलिए एक अक्षर से ख्याल में आता है।
शब्द से ख्याल में आता नहीं।
00:40:35.224 --> 00:40:43.840
एक, एक को प्रसिद्ध करता है।
एक, एक को प्रसिद्ध करता है।
00:40:43.864 --> 00:40:53.240
सो यह, प्रत्यक्ष मैं हूँ।
सो यह मैं हूँ । चार अक्षर हुए।
00:40:53.264 --> 00:41:03.080
चतुर्थ गुणस्थान आ जाता है। चतुर्थ गुणस्थान
आ जाता है। सो यह मैं हूँ। आहाहा!
00:41:03.104 --> 00:41:11.240
और शेष भाव , जो रागादि भाव हैं
सब संकल्प-विकल्प के जाल हैं,
00:41:11.264 --> 00:41:17.200
और शेष भाव मुझसे पर हैं;
मेरे से भिन्न हैं। आहाहा!
00:41:17.224 --> 00:41:26.280
एक चेतनेवाला वह मैं। और बाकी के रागादि भाव हैं,
व्यवहारनय के विषय, वो मेरे से पर हैं, भिन्न हैं।
00:41:26.304 --> 00:41:33.320
इसलिए (अभिन्न छह कारकों से) भिन्न कारक से नहीं।
00:41:33.344 --> 00:41:46.120
अभिन्न षट्कारक से मैं ही 'मैं ही', ये कर्ता।
मैं ही अर्थात् कर्ता। मेरे द्वारा ही ये करण द्वारा करण।
00:41:46.144 --> 00:42:00.720
मेरे लिए ही, संप्रदान। मैं आत्मा को जानता हूँ।
किसके लिए जानता हूँ? मेरे लिए जानता हूँ।
00:42:00.744 --> 00:42:07.080
कि समाज के लिए जानता हूँ आत्मा को?
धर्म समाज के लिए करना है या अपने लिए?
00:42:07.104 --> 00:42:10.760
दिखाने के लिए करना है या अनुभव करने के लिए?
00:42:10.784 --> 00:42:19.400
कोई देखता नहीं है, इसलिए मुझे
धर्मी नहीं कहेंगे। आहाहा!
00:42:19.424 --> 00:42:21.600
तुझे धर्म होने वाला ही नहीं है।
00:42:21.624 --> 00:42:27.840
क्योंकि दिखाने के लिए तुम धर्म कर रहे हो
तो जो दिखता है, वो तो राग दिखता है।
00:42:27.864 --> 00:42:30.720
और राग तो बंध का कारण है, धर्म कहाँ है उसमें?
00:42:30.744 --> 00:42:35.960
देह, मन, वाणी की क्रिया वह तो जड़ की है।
00:42:35.984 --> 00:42:39.880
और तेरी शुभभाव की क्रिया, वह तो
आस्रव की क्रिया है।
00:42:39.904 --> 00:42:47.160
तुझे वह दिखाना है? वह तो धर्म है ही नहीं।
जो परिणाम दूसरों को नहीं दिखता, वह धर्म है।
00:42:47.184 --> 00:42:59.040
(जो) परिणाम दूसरों को दिखता है, वो अधर्म है।
विमलाबेन! ख्याल में आया?
00:42:59.064 --> 00:43:06.720
जो देखने में आता है, वो धर्म नहीं है।
00:43:06.744 --> 00:43:15.520
धर्म तो आत्माश्रित सम्यग्दर्शन, ज्ञान,
चारित्र का परिणाम, वीतरागी परिणाम,
अमूर्तिक परिणाम, अरूपी परिणाम है।
00:43:15.544 --> 00:43:25.120
वो किसी को देखने में आता नहीं है।
ये धर्मी, ये धर्मी, ये धर्मी, ये सब गप्पा मारता है।
00:43:25.144 --> 00:43:30.320
धर्मी है- ऐसी तुझे भ्रांति हो जाती है।
क्योंकि बाह्य का त्याग है ना? आहा!
00:43:30.344 --> 00:43:38.880
भले कठिन पड़े तो पड़े। लेकिन देवलाली में तो
खुल्ला सत्य का ढिंढोरा पीट देना चाहिए।
00:43:38.904 --> 00:43:46.880
देखने में आता है दूसरों को, वो धर्म नहीं है।
वो तो मूर्तिक पर्याय दिखने में आती है।
00:43:46.904 --> 00:43:52.480
सामने वाले के पास इन्द्रियज्ञान है।
और इन्द्रियज्ञान का विषय मूर्तिक है।
00:43:52.504 --> 00:43:56.360
तो मूर्तिक परिणाम को जानने से
(कहता है कि) धर्मी है, धर्मी है।
00:43:56.384 --> 00:44:07.000
अरे! कर्मी को धर्मी जानना, वो पाप है!
आहाहा! तो वो तो अरूपी पर्याय है।
00:44:07.024 --> 00:44:14.240
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का वीतरागी परिणाम,
आनंद का परिणाम, वो तो अतीन्द्रियज्ञान से ग्राह्य है।
00:44:14.264 --> 00:44:23.440
इन्द्रियज्ञान से मालूम होता नहीं है। भाईसाहब!
क्या नाम है? भूल गया। गुणवंत! गुणवंतभाई! आहाहा!
00:44:23.464 --> 00:44:28.640
अरे! कोई अलौकिक बात बाहर आ गई है। ओहोहो!
00:44:28.664 --> 00:44:36.720
जो श्रीमद् राजचंद्रजी को समयसार सम्यग्दर्शन में
निमित्त हुआ, वो सम्यग्दर्शन का कारण है,
00:44:36.744 --> 00:44:39.120
उसका स्वाध्याय चलता है।
00:44:39.144 --> 00:44:51.360
जिस शास्त्र से श्रीमद्जी को सम्यग्दर्शन हुआ,
उसी शास्त्र से श्रीमद्जी के बाद कईं
जीवों को सम्यग्दर्शन हो गया।
00:44:51.384 --> 00:44:59.160
एक से ज्यादा को। ऐसा अपूर्व शास्त्र है!
00:44:59.184 --> 00:45:04.000
तो कहते हैं कि मेरे लिए ही,
धर्म करना किसके लिए?
00:45:04.024 --> 00:45:12.000
दिखावा करने के लिए? मान-पत्र कोई देवे
कि ये धर्मी है, ढिंढोरा पीटे? आहाहा!
00:45:12.024 --> 00:45:18.360
धर्मी तो गुपचुप काम करते हैं कि हमें कोई
देखे नहीं, जाने नहीं तो बहुत अच्छा। बोलो!
00:45:18.384 --> 00:45:27.080
मेरे लिए ही। ये धर्म करना है
वो अपने लिए है। किसी के लिए नहीं है।
00:45:27.104 --> 00:45:33.920
मेरे लिए ही, मुझसे ही ,
वो धर्म का परिणाम किसमें से आता है?
00:45:33.944 --> 00:45:38.120
मेरे में से ही आता है।
शास्त्र में से नहीं आता।
00:45:38.144 --> 00:45:45.400
अपादान कारण अपना आत्मा है। निमित्त में से
अपादान आता नहीं है। अलौकिक बात है।
00:45:45.424 --> 00:45:51.840
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का जो परिणाम प्रगट
होता है, वो अपादान नाम की ध्रुव शक्ति आत्मा में है।
00:45:51.864 --> 00:45:54.240
तो शक्ति की व्यक्ति का नाम अपादान है।
00:45:54.264 --> 00:46:01.160
आत्मा में से वो प्रगट होता है। आनंद
आत्मा में से आता है। आनंद बाहर से नहीं आता।
00:46:01.184 --> 00:46:08.640
मुझसे ही, मुझमें ही, मुझे ही आधार है।
आत्मा के आधार से आत्मा का परिणाम होता है।
00:46:08.664 --> 00:46:14.720
पांच महाव्रत के परिणाम के आधार से
आत्मा के परिणाम होते नहीं हैं।
00:46:14.744 --> 00:46:23.120
नग्नदशा से मुनिदशा नहीं है। नग्नदशा वो
मुनिदशा नहीं है। शद्धोपयोग मुनिदशा है।
00:46:23.144 --> 00:46:31.080
नग्न तो बाहर का लक्षण, अनात्मभूत लक्षण है।
आत्मभूत लक्षण नही है ।
00:46:31.104 --> 00:46:36.080
आत्मभूत लक्षण- शुद्धोपयोग, आनंद का भोजन
वो मुनि का लक्षण है।
00:46:36.104 --> 00:46:53.280
मुझमें ही, मुझे ही ग्रहण करता हूँ। आहाहा!
मुझे ही मैं तो जानता हूँ। मैं दूसरे को जानता नहीं हूँ।
00:46:53.304 --> 00:47:01.680
देव, गुरु, शास्त्र को जानता नहीं हूँ। मैं मुझे,
मेरे द्वारा, मुझे ही जानता हूँ। जाननहार जानने में आता है।
00:47:01.704 --> 00:47:07.120
'ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'चेतता हूँ' ।
चेतता हूँ अर्थात् जानता हूँ, देखता हूँ।
00:47:07.144 --> 00:47:15.520
कारण कि चेतना, जानना, देखना,
वो ही आत्मा की एक क्रिया है।
00:47:15.544 --> 00:47:22.840
एक जानने की क्रिया और एक शुभभाव की क्रिया,
ये दो क्रिया आत्मा की नहीं हैं।
00:47:22.864 --> 00:47:28.400
जानने की क्रिया आत्मा की है और
शुभराग की क्रिया कर्म की है।
00:47:28.424 --> 00:47:37.960
जीव जाननेवाला है, पुद्गल करनेवाला है।
आत्मा करनेवाला नहीं है। भाईसाहब! ये बात ऐसी है।
00:47:37.984 --> 00:47:47.680
क्योंकि चेतना ही आत्मा की एक क्रिया है।
00:47:47.704 --> 00:47:55.440
जानना-देखना आत्मा को, आत्मा को
जानना-देखना, वो ही आत्मा की एक क्रिया है।
00:47:55.464 --> 00:48:00.480
आत्मा को जानने से वीतरागभाव
सहज प्रगट हो जाता है।
00:48:00.504 --> 00:48:12.280
इसलिए मैं चेतता ही हूँ; चेतनेवाला ही, चेतनेवाले
के द्वारा ही, चेतनेवाले के लिए ही, चेतनेवाले से ही,
चेतनेवाले में ही, चेतनेवाले को ही चेतता हूँ।
00:48:12.304 --> 00:48:17.120
जाननेवाले को जानता हूँ, देखनेवाले को देखता हूँ।
चेतनेवाले को चेतता हूँ।
00:48:17.144 --> 00:48:28.280
अथवा ...देखो! अथवा द्रव्यदृष्टि से
तो- मुझमें छह कारकों के भेद भी नहीं हैं।
00:48:28.304 --> 00:48:31.760
कर्ता, कर्म आदि क्रिया के भेद मेरे में नहीं हैं।
00:48:31.784 --> 00:48:36.560
क्योंकि मैं निष्क्रिय परमात्मा हूँ, इसलिए
मेरे में क्रिया के भेद नहीं हैं।
00:48:36.584 --> 00:48:50.000
मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्रभाव हूँ। - इसप्रकार
प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को ग्रहण करना चाहिए
अर्थात् अपने को चेतयिता के रूप में अनुभव करना चाहिए।
00:48:50.024 --> 00:48:55.520
अब ये भावार्थ पूरा हो गया।
वजन की एक बात अच्छी निकली थी।
00:48:55.544 --> 00:49:02.160
मीठाभाई चले गए थे। बाद में निकली ना?
मीठाभाई चले गए बाद में निकली।
00:49:02.184 --> 00:49:14.400
तो एक बात अचानक ऐसी निकली कि मिट्टी करनेवाली है।
वो तो बराबर ना? गुज़राती में समझ में आ गया?
00:49:14.424 --> 00:49:27.720
मिट्टी करनेवाली है। अज्ञानी माननेवाला है और
ज्ञानी जाननेवाला है। क्या कहा?
00:49:27.744 --> 00:49:37.600
मिट्टी करनेवाली है। अज्ञानी कहता है कि मैं करनेवाला हूँ,
ऐसा मानता है। माननेवाला है।
00:49:37.624 --> 00:49:47.840
मिट्टी घड़े को करती है। कुंभार की हाज़री है,
तो कुंभार की दृष्टि मिट्टी पर है।
तो वो कहता है कि मैंने घड़ा बनाया।
00:49:47.864 --> 00:49:54.120
अज्ञानी माननेवाला है। करनेवाला नहीं है। करनेवाली तो मिट्टी है।
00:49:54.144 --> 00:50:01.760
घट को करनेवाली तो मिट्टी है। लेकिन अज्ञानी
माननेवाला है। माननेवाला यानि करनेवाला नहीं।
00:50:01.784 --> 00:50:13.120
घड़े को करनेवाला अज्ञानी नहीं है। एक-एक बात
रहस्यवाली है। मिट्टी करनेवाली है।
00:50:13.144 --> 00:50:24.160
अज्ञानी माननेवाला है कि मैंने घड़ा किया,
ऐसा मानता है। घड़े को करनेवाला अज्ञानी नहीं है।
00:50:24.184 --> 00:50:31.960
क्योंकि जो मिट्टी करनेवाली है, उसको
आत्मा भी करे और मिट्टी भी करे,
00:50:31.984 --> 00:50:37.920
तो एक घट की पर्याय के दो कर्ता होते नहीं हैं।
वो अज्ञानी है।
00:50:37.944 --> 00:50:45.960
सर्वज्ञ भगवान के मत से बाहर है।
मानता है कि मैं घड़े की पर्याय को करनेवाला हूँ।
00:50:45.984 --> 00:50:51.040
ऐसी मान्यता है। वो मान्यता
तो उसके स्वचतुष्टय में रह गई।
00:50:51.064 --> 00:50:56.760
उसकी मान्यता उसकी (घड़े की) क्रिया में जाती नहीं है।
करनेवाली तो मिट्टी है।
00:50:56.784 --> 00:51:08.200
मिट्टी करनेवाली है, अज्ञानी माननेवाला है। पटेलभाई!
अज्ञानी ऐसा माननेवाला है कि मैं करता हूँ।
00:51:08.224 --> 00:51:16.000
धीरूभाई! ये मकान का काम,
बिल्डिंग का काम मैंने किया!
00:51:16.024 --> 00:51:23.080
हराम आपने किया हो तो! हराम है हों! करना हराम है!
00:51:23.104 --> 00:51:31.480
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर सकता नहीं है।
00:51:31.504 --> 00:51:40.000
मिट्टी करनेवाली है, अज्ञानी माननेवाला है कि
मैं घड़ा बनाता हूँ। और ज्ञानी जाननेवाला है।
00:51:40.024 --> 00:51:47.280
अथवा जो जाननेवाला है, वो ज्ञानी होता है
और मानता है, वो अज्ञानी रह जाता है।
00:51:47.304 --> 00:51:49.880
संसार चार गति में भटकता है।
00:51:49.904 --> 00:51:55.360
ये तो द्रष्टांत नोकर्म का दिया।
मिट्टी नोकर्म है बाहर का पदार्थ..
00:51:55.384 --> 00:51:58.600
अब अपने को सिद्धांत में उतारनी है वो बात।
00:51:58.624 --> 00:52:04.800
हिंदी में चलता है, ठीक है?
अब सिद्धांत में उतारना है।
00:52:04.824 --> 00:52:12.680
कि कर्म करनेवाला है, अज्ञानी माननेवाला है,
ज्ञानी जाननेवाला है।
00:52:12.704 --> 00:52:17.120
मिट्टी की जगह पर कर्म रखा।
कर्म यानि द्रव्यकर्म।
00:52:17.144 --> 00:52:21.280
दर्शनमोह, चारित्रमोह दो प्रकार के कर्म हैं।
00:52:21.304 --> 00:52:30.560
'कर्म अनन्त प्रकार के, उसमें मुख्य आठ।
उसमें मुख्य मोहनीय, नशाय कहूँ वो पाठ।।'
श्रीमद्जी का ये वाक्य है।
00:52:30.584 --> 00:52:45.720
आठ प्रकार के कर्म हैं। ऐसा कर्म करनेवाला है। कर्म
यानि द्रव्यकर्म। रागादि को करनेवाला जड़कर्म है।
00:52:45.744 --> 00:52:54.160
जैसे मिट्टी से घड़े की उत्पत्ति होती है,
ऐसे जड़कर्म से राग की उत्पत्ति होती है।
00:52:54.184 --> 00:53:05.920
ये पूजा का भाव होता है ना? वो भक्ति का राग
होता है ना? उसको करनेवाला कर्म है।
00:53:05.944 --> 00:53:14.640
जीव करनेवाला नहीं है। हाय! हाय! हमारी पूजा चली
जाएगी, भक्ति चली जाएगी, सब चला जाएगा।
00:53:14.664 --> 00:53:16.240
व्यवहार का लोप हो जाएगा।
00:53:16.264 --> 00:53:26.560
अरे! व्यवहार का लोप होने से निश्चय की प्राप्ति
हो जाएगी। परमात्मा हो जाएगा। सुन तो सही तू! आहा!
00:53:26.584 --> 00:53:32.880
कर्म करनेवाला है, अज्ञानी माननेवाला है
और ज्ञानी जाननेवाला है।
00:53:32.904 --> 00:53:38.600
कर्म यानि द्रव्यकर्म। वो राग की रचना करता है।
00:53:38.624 --> 00:53:43.600
व्याप्य-व्यापक संबंध तत्स्वरूप में है,
कर्ता-कर्म संबंध तत्स्वरूप में है।
00:53:43.624 --> 00:53:49.920
अनंतकाल से मान रखा है कि राग को
करनेवाला मैं हूँ। राग को करनेवाला आत्मा नहीं।
00:53:49.944 --> 00:53:57.160
राग को करनेवाला कर्म है और
माननेवाला अज्ञानी है। करनेवाला नहीं है।
00:53:57.184 --> 00:54:01.400
राग को करनेवाला हो, तो तो सम्यग्दृष्टि हो जाए।
00:54:01.424 --> 00:54:08.560
राग का करनेवाला दूसरा है, मानता है कि
मैं करनेवाला हूँ, इसलिए मिथ्यादृष्टि है।
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तो अब कर्ताबुद्धि छोड़ दे।
मैं तो जाननेवाला हूँ।
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राग को करनेवाला कर्म है।
रागी तो पुद्गल है।
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जवाहरभाई! रागी तो पुद्गल है।
रागी पुद्गल है तो राग को कौन करे?
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रागी जो पुद्गल हो तो राग को कौन करे?
जीव करे कि पुद्गल?
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मुमुक्षु:- पुद्गल करता है।
भाई:- अच्छा! जीव करता नहीं। कब?
मुमुक्षु:- कभी नहीं।
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भाई:- सम्यग्ज्ञान होने के बाद?
मुमुक्षु:- कभी नहीं।
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भाई:- अज्ञानी है वहाँ तक तो राग को करता है कि नहीं?
मुमुक्षु:- राग को करता ही नहीं।
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भाई:- करता नहीं है, (किन्तु) कर्ता मानता है।
कर्ता तो हो सकता नहीं है।
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जो कर्ता हो तो जड़ हो जाये। तो पांच द्रव्य
हो जाएँ। छह द्रव्य रहते नहीं हैं। आहाहा!
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मानता है अज्ञानी।
मानता है कि मैं राग को करनेवाला हूँ।
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करनेवाला दूसरा होने पर भी
दृष्टि द्रव्य पर नहीं है,
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संयोग पर दृष्टि है।
स्वभाव पर दृष्टि नहीं है,
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पर्याय पर दृष्टि है, ज्ञायक पर दृष्टि नहीं है,
तहाँ तक वो मानता है कि राग को करनेवाला मैं हूँ।
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वो तो अज्ञान है। उसमें कुछ है नहीं।
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और ज्ञानी का योग मिले कि
कर्म करनेवाला है, ज्ञानी जाननेवाला है।
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अरे! मैं तो जाननहार हूँ। मैं करनेवाला नहीं हूँ।
तो दृष्टि पर के ऊपर से हटकर अंदर में आ जाती है।
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मैं तो चेतनेवाला हूँ,
मैं तो देखनेवाला, जाननेवाला हूँ।
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जाननेवाले को जानता हूँ।
जो जानने में आता है उसको नहीं जानता हूँ।
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राग जानने में आ जाता है, राग को जानता नहीं हूँ।
मैं तो जाननेवाले को जानता हूँ,
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तो राग ऊपर से दृष्टि हटकर आत्मा में आ जाती है
और साक्षात् आत्मा का दर्शन होता है, अनुभव हो जाता है।
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उसका नाम सम्यग्दर्शन।
वो धर्म की पहली सीढ़ी है। समय हो गया।
बोलो परम उपकारी श्री सद्गुरु देव की जय हो!!!