WEBVTT
00:01:04.400 --> 00:01:15.296
यह समयसार जी परमागम शास्त्र है, उसका
अंतिम परिशिष्ठ नाम का अधिकार है।
00:01:15.320 --> 00:01:27.416
उसमें २७१ नंबर का कलश, उसके ऊपर
गुरुदेव ने व्याख्यान दिया है,
उसके ऊपर स्पष्टीकरण चलता है।
00:01:27.440 --> 00:01:36.016
शास्त्र में दो बात आती हैं,
निश्चय और व्यवहार।
00:01:36.040 --> 00:01:44.056
तो व्यवहार की बात अनंतकाल से
जीव को सत्य लगती है।
00:01:44.080 --> 00:01:53.016
व्यवहार की बात सत्य लगने से
निश्चय की बात झूठी लगती है
00:01:53.040 --> 00:02:07.216
और जिसको भेदज्ञान करके निश्चय की बात
सच्ची लगे, उसको व्यवहार की बात
झूठी लगती है।
00:02:07.240 --> 00:02:13.616
निश्चय सच्चा लगे तो
व्यवहार झूठा लगता है।
00:02:13.640 --> 00:02:22.496
मगर जिसको व्यवहार सच्चा है, सत्यार्थ है,
उसको निश्चय सत्यार्थ नहीं लगता है।
00:02:22.520 --> 00:02:31.216
जैसे देह और आत्मा व्यवहारनय से
कहा जाए तो, एक पदार्थ है।
00:02:31.240 --> 00:02:42.216
मगर निश्चयनय से देखा जाए तो,
देह और आत्मा कदापि एक होता नहीं है।
00:02:42.240 --> 00:03:00.696
ऐसे व्यवहारनय से देखा जाए तो
चौदह गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास,
राग-द्वेष-मोह, वो सब जीव का भाव है।
00:03:00.720 --> 00:03:04.776
व्यवहारनय से कहा भी जाता है।
00:03:04.800 --> 00:03:21.136
कथन भी ऐसा आता है कि वो सब भाव जीव के हैं,
मगर स्वभाव के सन्मुख जाकर देखें तो,
00:03:21.160 --> 00:03:36.576
यानि निश्चयनय से देखें तो,
स्वाश्रित निश्चयनय से देखें तो,
वो कोई भी भाव जीव के नहीं हैं।
00:03:36.600 --> 00:03:51.296
वो सब भाव व्यवहारनय से जीव के हैं,
ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है।
तो भी, क्या कहा?
00:03:51.320 --> 00:04:00.536
ये सब भाव व्यवहारनय से जीव के हैं,
ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है।
00:04:00.560 --> 00:04:11.336
तो भी, सर्वज्ञ भगवान ने एक दूसरी बात भी
कही है कि निश्चयनय से देखो तो,
कोई भी भाव जीव के नहीं हैं,
00:04:11.360 --> 00:04:22.536
क्योंकि जीव का लक्षण जो परमपारिणामिकभाव,
नित्य-ध्रुव, वो उसमें दिखाई देता नहीं है।
00:04:22.560 --> 00:04:29.776
तो निश्चयनय और व्यवहारनय का ये कथन चलता
है, ये सारा समयसार (उससे) भरा (हुआ) है।
00:04:29.800 --> 00:04:39.496
उसमें से जो जीव को
स्वाश्रित निश्चयनय का कथन सत्य लगता है,
00:04:39.520 --> 00:04:45.496
तो व्यवहारनय के विषय में अंदर
आत्मबुद्धि छूट जाती है।
00:04:45.520 --> 00:04:50.896
व्यवहार रह जाता है।
व्यवहार का पक्ष छूट जाता है।
00:04:50.920 --> 00:05:09.256
ऐसे, जैसे कुम्हार के सद्भाव में,
कुंभकार, घड़ा बनानेवाला है,
ऐसा लोग कहते हैं।
00:05:09.280 --> 00:05:22.896
घड़ा को बनानेवाला हो, तो उसको
लोक-व्यवहार (में) कहते हैं कि
कुम्हार घड़ा बनाता है।
00:05:22.920 --> 00:05:34.136
तो कुम्हार की हाज़री में,
निमित्त की हाज़री में
उपादान अपना काम करता है।
00:05:34.160 --> 00:05:45.056
मिट्टी से घट होता है।
मिट्टी अंतरनिमग्न व्यापक होकर,
वो उसका कार्य करती है।
00:05:45.080 --> 00:05:50.576
उपादान अपना कार्य करता है।
मगर निमित्त की हाज़री है।
00:05:50.600 --> 00:05:55.656
निमित्त की हाज़री में
कार्य तो उपादान से होता है।
00:05:55.680 --> 00:06:07.736
उपादान ही अपना कार्य कर रहा है,
मगर निमित्त की हाज़री देखकर,
ऐसा कहा जाता है कि कुम्हार ने घड़ा बनाया।
00:06:07.760 --> 00:06:17.096
वो निश्चयनय का कथन है कि
व्यवहारनय का कथन है,
इतना विचार करने की बात है।
00:06:17.120 --> 00:06:26.176
विचार करके जो सत्य बैठे, वो बैठाओ।
कथन तो ऐसा आता है।
00:06:26.200 --> 00:06:30.896
कार्य करता है उपादान,
अपनी स्वशक्ति से।
00:06:30.920 --> 00:06:38.176
उसके साथ परसंयोग का योग भी है,
कुम्हार आदि।
00:06:38.200 --> 00:06:43.616
कुम्हार आदि बहुत चीज़ें है।
मिट्टी में से जब घट पर्याय बनती है,
00:06:43.640 --> 00:06:50.216
तो उसका व्याप्य-व्यापक संबंध,
कर्ता-कर्म संबंध घट के साथ होने पर भी,
00:06:50.240 --> 00:06:59.656
उसने मिट्टी ने किसकी हाज़री में घट बनाया?
कि कुम्हार की हाज़री में बनाया।
00:06:59.680 --> 00:07:02.136
कुम्हार ने बनाया, ऐसा नहीं है।
00:07:02.160 --> 00:07:14.256
तो निमित्त की हाज़री से देखते हैं,
निमित्त ऊपर दृष्टि जिसकी है,
मिट्टी के स्वभाव ऊपर जो नहीं देखते हैं,
00:07:14.280 --> 00:07:29.896
मात्र संयोग को देखते हैं, उसको ऐसा भ्रम
हो जाता है कि कुम्हार ने घड़ा बनाया।
वो बात १००% झूठी है।
00:07:29.920 --> 00:07:38.896
क्योंकि कुम्हार का हाथ,
कुम्हार की इच्छा, उसका उपयोग,
कोई मिट्टी में प्रविष्ट नहीं हुआ है।
00:07:38.920 --> 00:07:44.856
इसलिए दो द्रव्यों के बीच में
कर्ता-कर्म संबंध का अभाव है।
00:07:44.880 --> 00:07:52.736
हाँ! इतनी सही बात है कि
उपादान ने निमित्त के
संयोग में अपना कार्य किया।
00:07:52.760 --> 00:08:00.656
इतनी बात सही है।
तो ऐसा देखकर कुम्हार ने घड़ा किया
(अर्थात् बनाया), ऐसा भ्रम हो जाता है।
00:08:00.680 --> 00:08:06.696
ऐसे दो-तीन दृष्टांत,
बहुत दृष्टांत हैं, इसके बारे में।
00:08:06.720 --> 00:08:17.456
अपने को तो अभी एक सूक्ष्म विषय
लेना है कि यह भगवान आत्मा है,
00:08:17.480 --> 00:08:27.216
वह अपने उपादान से
अपने आत्मा को जानने का कार्य करता है।
00:08:27.240 --> 00:08:37.616
जैसे मिट्टी घट को करती है,
ऐसे अपना जो आत्मा भगवान है,
उसमें ज्ञान प्रगट होता है,
00:08:37.640 --> 00:08:47.376
वो ज्ञान अपने आत्मा को जानने का कार्य
करता है, वह उपादान की स्वशक्ति है।
00:08:47.400 --> 00:09:03.456
मगर उस समय शास्त्र निमित्त है, तो
शास्त्र से ज्ञान हुआ ऐसा कहने में आता है,
मगर ऐसा है (नहीं)।
00:09:03.480 --> 00:09:13.416
जो कुम्हार घट को करे,
तो द्रव्यश्रुत, भावश्रुत को करे।
द्रव्यश्रुत यानि जिनेंद्र भगवान की वाणी।
00:09:13.440 --> 00:09:18.496
उत्कृष्ट दृष्टांत देता हूँ मैं। आहाहा!
00:09:18.520 --> 00:09:26.496
तो ऐसे कार्य तो होता है उपादान से
तीनोंकाल, मगर जो उपादान कार्य करता है,
00:09:26.520 --> 00:09:36.016
तो परसंयोग जो निमित्त भी होता है,
तो कहा जाता है कि
उससे ज्ञान हुआ, आत्मा का ज्ञान।
00:09:36.040 --> 00:09:41.136
जैसे जब दिव्यध्वनि सुनता है जीव,
सभा में बैठा है।
00:09:41.160 --> 00:09:46.896
अपना उपयोग वहाँ से हटाकर अंदर में लाया,
00:09:46.920 --> 00:09:53.256
तो जो इंद्रियज्ञान का उपयोग उसको
(दिव्यध्वनिको) जानता था,
वो उपयोग अंदर में नहीं आता है।
00:09:53.280 --> 00:10:01.656
वो उपयोग तो वहाँ रह जाता है और
दूसरा अभिमुख उपयोग, अतींद्रिय ज्ञान
प्रगट होकर, आत्मा का दर्शन कर लेता है।
00:10:01.680 --> 00:10:13.096
तो उपादान ने अपना कार्य अपने से किया,
तो दिव्यध्वनि की हाज़री है वहाँ,
00:10:13.120 --> 00:10:18.176
तो ऐसा कहा जाता है कि
सुनने से मेरे को आत्मज्ञान (हुआ)।
00:10:18.200 --> 00:10:23.176
भगवान की वाणी सुनी
तो मेरे को आत्मज्ञान हो गया।
00:10:23.200 --> 00:10:30.776
ऐसा जो मानता है, वो निमित्त, उपादान को
अलग-अलग नहीं मानता है, एक मानता है।
00:10:30.800 --> 00:10:34.736
निमित्त और उपादान,
निश्चय-व्यवहार एक मानता है।
00:10:34.760 --> 00:10:43.376
ऐसा ज़रा सूक्ष्म विषय अभी आता है,
इसलिए थोड़ी भूमिका मैंने रखी।
00:10:43.400 --> 00:10:52.376
सर्वज्ञ परमेश्वर कहते हैं-
अभी अपना विषय चलता है,
इसमें से देख लेना।
00:10:52.400 --> 00:11:01.336
सर्वज्ञ परमेश्वर फ़रमाते हैं,
फ़रमान है, सर्वज्ञ भगवान का। आहाहा!
00:11:01.360 --> 00:11:09.136
कथन तो दो प्रकार का आएगा ही आएगा
- निश्चय, व्यवहार।
00:11:09.160 --> 00:11:17.016
मगर उसमें से सत्यार्थ क्या है,
वो निकालना, वो अपना काम है।
00:11:17.040 --> 00:11:28.296
सर्वज्ञ परमेश्वर परमात्मा फ़रमाते हैं
लोकलोक जाननेमें आवे,
00:11:28.320 --> 00:11:34.376
लोकालोक अपनी ज्ञान की पर्याय में
आ जावे, जानने में आ जावे।
00:11:34.400 --> 00:11:36.136
वो (लोकालोक) तो नहीं आता है,
00:11:36.160 --> 00:11:44.096
मगर जानने में आवे,
अपनी ज्ञान की पर्याय में,
वो जानने में आवे...समझे कुछ?
00:11:44.120 --> 00:11:53.656
वो जानने में (लोकालोक) आवे,
ऐसी तेरी पर्याय नहीं है! आहाहा!
00:11:53.680 --> 00:12:03.376
तो ऐसा तर्क होता है, कुतर्क,
कि तो-तो सर्वज्ञ भगवान को आप उड़ाते हैं।
00:12:03.400 --> 00:12:12.056
लोकालोक अपनी ज्ञान की पर्याय में
जानने में न आवे,
तो-तो आप सर्वज्ञ को उड़ाते हैं।
00:12:12.080 --> 00:12:16.936
नहीं!
सर्वज्ञ की सिद्धि इसमें होती है।
उड़ाते नहीं है कोई।
00:12:16.960 --> 00:12:25.496
लोकालोक ज्ञात हो,
ऐसी तेरी पर्याय नहीं है, तो कैसी है?
00:12:25.520 --> 00:12:30.016
व्यवहार और निश्चय,
दो के बीच में भेदज्ञान है।
00:12:30.040 --> 00:12:35.096
व्यवहार (नय) सत्यार्थ लगता है,
उसको निश्चयनय झूठा लगता है
00:12:35.120 --> 00:12:40.776
और निश्चयनय सत्यार्थ लगता है,
उसको व्यवहारनय झूठा लगता है।
00:12:40.800 --> 00:12:44.456
कुम्हार से घड़ा तीनकाल में होता नहीं है।
मिट्टी से घड़ा होता है।
00:12:44.480 --> 00:12:51.676
तो क्या है?
क्या जानने में आता है?
00:12:51.700 --> 00:12:55.456
लोकालोक मेरी ज्ञान की पर्याय में
नहीं जानने में आता है, तो क्या है?
00:12:55.480 --> 00:13:07.896
सर्वज्ञ भगवान की वाणी में आया कि
तेरी ज्ञान की पर्याय को तू जाने-देखे -
ऐसा तेरा स्वरूप है। आहाहा!
00:13:07.920 --> 00:13:11.856
निश्चय-व्यवहार का झगड़ा है।
समझे तो झगड़ा मिट जाए।
00:13:11.880 --> 00:13:15.816
व्यवहार को व्यवहार के स्थान में जान लेवे,
निश्चय को (निश्चय में)।
00:13:15.840 --> 00:13:20.216
दो नय का ज्ञाता हो जाता है वो।
झगड़ा मिट जाता है।
00:13:20.240 --> 00:13:31.176
लोकालोक को जानते हैं आत्मा,
अथवा आत्मा का ज्ञान, लोकालोक को जानता है,
पर को जानता है।
00:13:31.200 --> 00:13:34.736
लोकालोक की जगह पर, पर लगाना।
देहादि जानने में आता है।
00:13:34.760 --> 00:13:44.936
ऐसा कहना, यह असद्भूत व्यवहार है,
प्रमाण से बाहर की बात लेना
00:13:44.960 --> 00:13:53.576
और परपदार्थ मेरे को जानने में आते हैं,
वो असद्भूत व्यवहार है,
शास्त्र का शब्द है वो।
00:13:53.600 --> 00:13:59.456
सर्वज्ञ भगवान की वाणी में आया कि
वो असद्भूत व्यवहार (का) कथन है।
00:13:59.480 --> 00:14:06.496
असद्भूत व्यवहार कहाँ से आया?
सर्वज्ञ भगवान की वाणी में आया।
00:14:06.520 --> 00:14:13.416
नय का स्वरूप तो सर्वज्ञ भगवान की
वाणी में आया ना?
00:14:13.440 --> 00:14:19.856
नयचक्र में आया ना सब?
तो इसमें एक असद्भूत व्यवहारनय है,
एक सद्भूत व्यवहार है।
00:14:19.880 --> 00:14:27.696
तो ज्ञान पर को जानता है,
वो असद्भूत व्यवहार है।
00:14:27.720 --> 00:14:39.456
बाद में, उसका भावार्थ देखते हैं
कि झूठा व्यवहार है।
असद्भूत, असत्य ऐसा है नहीं।
00:14:39.480 --> 00:14:47.336
लोकालोक की हाज़री में
ज्ञान अपने को जानता है। सुनना ज़रा!
00:14:47.360 --> 00:14:54.056
लोकालोक की हाज़री के सद्भाव में भी
ज्ञान अपने आत्मा को जानता है,
00:14:54.080 --> 00:15:00.976
तो लोकालोक की हाज़री में,
ज्ञान ने अपने को जानने का कार्य कर लिया।
00:15:01.000 --> 00:15:06.016
उपादान ने अपना कार्य कर लिया,
मगर लोकालोक की हाज़री में किया,
00:15:06.040 --> 00:15:14.856
तो लोकालोक (का) ज्ञान हो गया,
ऐसा व्यवहार से कहा जाता है।
जैसे कुम्हार घड़े को करता है, ऐसा। आहाहा!
00:15:14.880 --> 00:15:26.936
झूठा व्यवहार है। आहाहा!
अभी तो झूठे व्यवहार का पक्ष छूटे नहीं,
तो सच्चा व्यवहार में कहाँ से आवे?
00:15:26.960 --> 00:15:32.656
उस व्यवहार से भी साध्य की सिद्धि नहीं
होती है, सच्चे व्यवहार में
(साध्य की सिद्धि नहीं होती है)। आहाहा!
00:15:32.680 --> 00:15:38.896
उसके ऊपर, उल्लंघन करके आगे बढ़कर
अंदर में चले जाना, तो अनुभूति होती है।
00:15:38.920 --> 00:15:44.216
यह ज्ञान की पर्याय का निश्चय का
प्रकरण चलता है।
00:15:44.240 --> 00:15:48.776
ज्ञान की पर्याय का व्यवहार और
ज्ञान की पर्याय का निश्चय,
ऐसा आगम में पाठ है।
00:15:48.800 --> 00:15:57.336
ज्ञान की पर्याय का निश्चय,
इसका नाम है कि जो ज्ञान अभिमुख होकर
ज्ञायक को तन्मय होकर जान लेवे,
00:15:57.360 --> 00:16:01.176
उसका नाम,
ज्ञान की पर्याय का निश्चय है।
00:16:01.200 --> 00:16:08.696
वो जो अपने स्वभाव को छोड़कर
परपदार्थ को जाने, वो असद्भूत व्यवहार है
00:16:08.720 --> 00:16:14.896
और अपने को जानने के बाद
भेद को जाने ज्ञान,
उसका नाम सद्भूत व्यवहार है।
00:16:14.920 --> 00:16:24.496
तो आचार्य भगवान, सर्वज्ञ भगवान
फ़रमाते हैं कि पर को जानना तो
असद्भूत, झूठा व्यवहार है।
00:16:24.520 --> 00:16:32.696
हाँ! इतना सही है कि
परपदार्थ की हाज़री में
ज्ञान अपने को जानता है।
00:16:32.720 --> 00:16:39.616
ऐसा नहीं है कि निर्विकल्पध्यान में जावे,
तभी ज्ञान आत्मा को जाने, ऐसा नहीं है।
00:16:39.640 --> 00:16:47.216
हर समय अच्छिन्नधारा से
सम्यग्ज्ञानी का ज्ञान, अपनी आत्मा को
जानते हुए ही प्रगट होता है।
00:16:47.240 --> 00:16:52.816
नहीं जानते हुए प्रगट होता है,
अज्ञानी के माफिक, ऐसा नहीं है।
तो ज्ञान ही नहीं है।
00:16:52.840 --> 00:17:03.056
तब सच्चा व्यवहार क्या है?
वो झूठा जो व्यवहार है,
तो सच्चा व्यवहार क्या है?
00:17:03.080 --> 00:17:12.376
कि अपनी ज्ञान की पर्याय को जानना,
वो सच्चा व्यवहार है और
अपनी शुद्धात्मा को जानना, वो निश्चय है।
00:17:12.400 --> 00:17:16.576
इतनी बात है।
अभेद को जानना, सो निश्चय।
00:17:16.600 --> 00:17:25.496
अभेद का भेद,
राग तो अभेद का भेद ही नहीं है।
जाति ही जुदी है। कजात है।
00:17:25.520 --> 00:17:29.776
अणमणता (नहीं मिलनेवाला) भाव,
ऐसा लिखा है।
00:17:29.800 --> 00:17:36.336
कलश-टीका में लिखा है, अणमणता।
उसमें चेतना का अभाव है, भैया!
00:17:36.360 --> 00:17:44.176
चेतन, अचेतन को करे?
राग, अचेतन, जड़ है। आहाहा!
00:17:44.200 --> 00:17:53.616
तू समयसार को मानता है कि नहीं?
हाँ साहब! जिनवाणी को रोज़
नमस्कार करता हूँ। स्तुति भी बोलता हूँ।
00:17:53.640 --> 00:18:03.096
तो उसमें लिखा है कि राग जड़, अचेतन है।
आहाहा! इसलिए आत्मा उसको करता नहीं है।
00:18:03.120 --> 00:18:10.296
कर्ता मानता है, अज्ञानी बनता है और
मैं राग का अकर्ता हूँ, ज्ञान का कर्ता हूँ,
तो ज्ञानी बन जाता है
00:18:10.320 --> 00:18:18.616
और बाद में राग थोड़ा आवे अस्थिरता का,
परिपूर्ण यथाख्यात-चारित्र न हो,
तहाँ तक तो उसको (राग) आता है,
00:18:18.640 --> 00:18:26.976
उसको जानता है और आगे जाकर ऐसा भी कह
सकते हैं कि कर्तानय से (राग का) कर्ता है।
00:18:27.000 --> 00:18:34.416
मगर कर्तानय से कर्ता है,
उस टाइम अकर्तानय से साक्षी भी है।
00:18:34.440 --> 00:18:47.456
दो नय का जोड़ा एक समय में है, इसलिए
कर्ताबुद्धि नहीं होती है और थोड़ा राग,
पर्याय राग को करती है, ऐसा भी है।
00:18:47.480 --> 00:18:52.896
मगर अकर्तानय साथ में होने से
वो साक्षी है, राग का।
00:18:52.920 --> 00:18:57.736
ऐसे भोक्तानय और अभोक्तानय,
दो प्रगट होते (हैं), साधक को।
00:18:57.760 --> 00:19:07.256
थोड़ा दुःख होता है, उसको भोगता है,
मगर भोक्ताबुद्धि नहीं होती है क्योंकि
अभोक्तानय साथ में साक्षी है।
00:19:07.280 --> 00:19:13.576
आहाहा! सब बात प्रवचनसार में है,
४७ नय में।
00:19:13.600 --> 00:19:27.496
तब सच्चा व्यवहार क्या है? वह यह है;
स्वयं जानन-जानने के भाववाला तत्व होने से
00:19:27.520 --> 00:19:34.136
स्वयं आत्मा जानन-जानन जाननेवाला है,
करनेवाला नहीं है।
00:19:34.160 --> 00:19:43.656
आत्मा जाननेवाला है, जैसे चक्षु है ना,
वो केवल दृश्यपदार्थ को दूर से देखती है।
00:19:43.680 --> 00:19:50.816
वैसे ही भगवान आत्मा और आत्मा का ज्ञान,
उसमें जानना, जानना, जानना है,
करना नहीं है।
00:19:50.840 --> 00:20:00.336
स्वयं जानन-जाननहार, जानने के भाववाला
तत्व होने से लोकालोक के जितने ज्ञेय हैं,
00:20:00.360 --> 00:20:04.676
अभी सच्चे व्यवहार की बात थोड़ी बताते हैं,
झूठा व्यवहार बताया।
00:20:04.700 --> 00:20:07.416
(सच्चा क्या?) कि सच्चा व्यवहार
अपनी ज्ञान की पर्याय को जानता है।
00:20:07.440 --> 00:20:22.936
लोकालोक के जितने ज्ञेय हैं, उन्हें और
अपने को जानने की क्रियारूप अपने में (अपने
अस्तित्व में) अपने कारण से परिणमता है।
00:20:22.960 --> 00:20:28.096
परपदार्थ के कारण से नहीं,
अपने कारण से परिणमता है,
जाननक्रिया रूप।
00:20:28.120 --> 00:20:37.016
वास्तव में तो यह जो ज्ञान की पर्याय
है, वह ज्ञेय है। लोकालोक ज्ञेय नहीं है।
00:20:37.040 --> 00:20:47.936
तेरे ज्ञान की पर्याय ज्ञेय है कि जिस
ज्ञान की पर्याय में आत्मा भी जानने में
आता है, वो ज्ञान की पर्याय ज्ञेय है।
00:20:47.960 --> 00:20:59.616
आहाहा! ज्ञान की पर्याय का पर (पदार्थ)
ज्ञेय है - ऐसा कहना, वह व्यवहार है।
ऐसी बात है।
00:20:59.640 --> 00:21:07.976
एक अपने भाईसाहब!
ये प्रेमचंद जी दिल्लीवाले,
उनका एक पोता है, छोटा।
00:21:08.000 --> 00:21:13.136
इधर बैठा है ना? खड़ा हो जा।
क्या आया है शास्त्र में? बोल!
00:21:13.160 --> 00:21:23.496
मुमुक्षु बालक:- निश्चयनय से जो निरुपण
किया हो, उसको तो सत्यार्थ मानकर उसका
श्रद्धान अंगीकार करना और (माइक दे दो)
00:21:23.520 --> 00:21:34.016
उत्तर:- इधर आजा। वहाँ जा। बुलाओ इसको।
लड़का क्या बोलता है? आहाहा! पी. सी. सेठ!
00:21:34.040 --> 00:21:41.736
छोटा लड़का बोलता है, हो।
सेठी, सेठ नहीं। ठीक! मैं भूल जाता हूँ।
00:21:41.760 --> 00:21:49.856
मुमुक्षु बालक:- निश्चयनय से जो निरुपण
किया हो, उसको तो सत्यार्थ मानकर उसका
श्रद्धान अंगीकार करना
00:21:49.880 --> 00:21:56.616
और व्यवहारनय से जो निरुपण किया हो उसको
असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना।
00:21:56.640 --> 00:22:06.496
उत्तर:- श्रद्धान छोड़ देना। बैठ जा!
यह सुनहरी वाक्य है, सुनहरी।
टोडरमल साहब का (वाक्य)।
00:22:06.520 --> 00:22:13.376
ज्ञानी, निकट भव्य, धर्मात्मा थे। आहाहा!
अल्पकाल में मुक्ति होनेवाली है,
उसमें शंका नहीं।
00:22:13.400 --> 00:22:23.656
उन्होंने इस समयसार में से ये निकाला है।
वो सब सारे समयसार के अंदर बीज हैं, सभी
शस्त्रों के। हें? मूल तो वो ही है। ऐसा!
00:22:23.680 --> 00:22:40.736
व्यवहारनय से जितना निरुपण है शास्त्र में,
आगम में हो, वो सब असत्यार्थ जानकर,
मानकर, उसका श्रद्धान छोड़ना।
00:22:40.760 --> 00:22:49.496
श्रद्धान छोड़ना, पर्याय को छोड़ना और
शरीर को छोड़ना और कपड़ा निकाल देना,
यह बात नहीं है।
00:22:49.520 --> 00:22:57.256
परद्रव्य की क्रिया करनेवाला आत्मा नहीं है।
आहाहा! उसका श्रद्धान छोड़ दे,
00:22:57.280 --> 00:23:07.056
इतना कथन व्यवहार का है और निश्चयनय से
जो निरुपण किया है, वो सत्यार्थ मानकर
उसका श्रद्धान अंगीकार करना।
00:23:07.080 --> 00:23:18.416
आहाहा! सुनहरी वाक्य है। सुनहरे अक्षर से
लिखने लायक़ है। रोज़ाना पढ़ने लायक़ है,
पढ़ने लायक।
00:23:18.440 --> 00:23:27.216
आहाहा! एक दफ़े तो ज़रूर पढ़ना, फज़ल (सुबह)
में उठकर जैसे णमोकारमंत्र बोलते हैं ना,
तो सामने वो रखना।
00:23:27.240 --> 00:23:31.976
(बोर्ड बनाकर) पाँच दस रुपये में वो आता है,
पेंटिंग कर देता है।
00:23:32.000 --> 00:23:37.336
ज़्यादा खर्च तो इसमें (नहीं है), पूनमभाई!
ज़्यादा खर्च नहीं है।
00:23:37.360 --> 00:23:45.056
वो पूनमभाई, (दीवाल) में लगा देना। आहाहा!
ज्ञानी की वाणी, वचन है। आहाहा!
00:23:45.080 --> 00:23:54.296
मगर व्यवहार का वचन सत्य लगा और
निश्चय का वचन, वो तो झूठा है,
एकांत है (ऐसा कहता है)।
00:23:54.320 --> 00:23:57.496
निश्चयाभास हो जाएगा,
ऐसा है, ऐसा। आहाहा!
00:23:57.520 --> 00:24:03.016
देखो! बड़ी मुश्किल से
ज्ञानी की वाणी बाहर आयी। आहाहा!
00:24:03.040 --> 00:24:14.296
हमारे देश में एक कहावत है कि जब वो पिलूडी
पके, कोई दाना, तब उसका मुँह आ जाए,
खानेवाला का। ऐसा कुछ कहते हैं।
00:24:14.320 --> 00:24:18.296
मुमुक्षु:- पाक पके जब .... रोग हो जाए
उत्तर:- हाँ! रोग आ जावे।
00:24:18.320 --> 00:24:22.476
जब वहाँ पाक हुआ बराबर,
खाने का टाइम, तब यहाँ रोग आ गया।
00:24:22.600 --> 00:24:30.296
ऐसे जब बराबर टाइम पका भेदज्ञान का,
अनुभव का, तब, अरे! यह तो निश्चय का कथन है,
वो तो एकांत है।
00:24:30.320 --> 00:24:37.296
वो तो निश्चयभासी सब बन गए हैं।
अरे! सब बन गए हैं तो बनने दो,
तेरा काम क्या है?
00:24:37.320 --> 00:24:45.496
दूसरे आगम का मर्म न समझें और निश्चयभासी
हो जायें, तो जवाबदारी गुरुदेव की नहीं है।
00:24:45.520 --> 00:24:55.736
अपनी प्रज्ञा के दोष से वो विपरीत मानता है।
शास्त्र का दोष बिल्कुल नहीं है,
आगम का दोष नहीं है, तेरा दोष है। आहाहा!
00:24:55.760 --> 00:25:01.176
तुझे पढ़ते नहीं आया, उसका
अर्थ निकालते नहीं आया, उसका
भावार्थ तुझे समझ में नहीं आया,
00:25:01.200 --> 00:25:13.456
तो श्रीगुरु क्या करें उसमें? आहाहा!
श्रीगुरु का दोष नहीं है।
तेरी प्रज्ञा का दोष है। आहाहा!
00:25:13.480 --> 00:25:24.256
देखो! पर (पदार्थ) ज्ञेय है -
ऐसा कहना, वह व्यवहार है।
ऐसी बात है। ज्ञेयों के आकार,
00:25:24.280 --> 00:25:34.176
आगे। ज्ञेयों का आकार अर्थात् ज्ञेयों
का विशेष - यानि उसका जैसा-जैसा
पुदग़ल का भाव है, विशेष, पर्याय।
00:25:34.200 --> 00:25:45.296
उनकी ज्ञान में झलक आती है,
उनके यानि ज्ञान की पर्याय में झलक आती है,
प्रतिभास होता है, प्रतिबिम्ब होता है।
00:25:45.320 --> 00:25:49.296
प्रतिबिम्ब का निषेध नहीं है,
प्रतिभास का निषेध नहीं है।
00:25:49.320 --> 00:25:55.296
क्योंकि इधर स्वच्छता है,
उधर ज्ञेयत्व है,
तो जानने में आ जावे। आहाहा!
00:25:55.320 --> 00:25:58.456
जानता नहीं है,
जणित (जानने में आ) जाता है।
00:25:58.480 --> 00:26:05.576
उनकी ज्ञान में झलक आती है,
अर्थात् उन संबंधी अपना ज्ञान,
उस संबंधी अपना ज्ञान,
00:26:05.600 --> 00:26:14.976
जो ज्ञेय प्रतिभासित होता है,
ऐसा अपना ज्ञान कि
जिस ज्ञान में आत्मा जानने में आता है।
00:26:15.000 --> 00:26:23.176
अपने ज्ञान अपने में, अपने से
परिणमित होता है।
वह ज्ञान, ज्ञेयाकार दिखता है।
00:26:23.200 --> 00:26:28.336
देखो! ये ज्ञेयाकार ज्ञान का आविर्भाव
होता है, तब सामान्यज्ञान का तिरोभाव,
00:26:28.360 --> 00:26:35.136
(यानि) जब मुझे ज्ञेय जानने में आते हैं,
मुझे मेरा ज्ञान आत्मा जानने में आता नहीं,
उसका नाम अज्ञान है।
00:26:35.160 --> 00:26:42.656
मेरे को पर जानने में आता है,
स्व जानने में आता नहीं है,
तो उसका नाम अज्ञान है।
00:26:42.680 --> 00:26:47.776
इसकी शास्त्रीय भाषा ऐसी है कि
ज्ञेयाकार ज्ञान का आविर्भाव,
00:26:47.800 --> 00:26:56.336
ज्ञेय के संबंधवाली जो ज्ञान की पर्याय
अर्थात् इंद्रियज्ञान, उसका
आविर्भाव होता है, प्रगट होता है।
00:26:56.360 --> 00:27:02.456
तो सामान्यज्ञान आत्मा को
प्रसिद्ध करनेवाला अतींद्रियज्ञान,
तिरोभूत हो जाता है,
00:27:02.480 --> 00:27:05.096
उत्पन्न होता नहीं है,
उसका नाम अज्ञान है।
00:27:05.120 --> 00:27:09.136
उनकी ज्ञान में झलक आती है।
00:27:09.160 --> 00:27:13.636
कितने तो ऐसा मानते हैं कि
ज्ञान एक ही प्रकार का होता है।
ज्ञान दो प्रकार का नहीं होता है।
00:27:13.660 --> 00:27:18.296
ज्ञान दो प्रकार का ही होता है।
एक अतींद्रियज्ञान और एक (इंद्रियज्ञान)।
00:27:18.320 --> 00:27:24.256
अज्ञानी के पास एक प्रकार का ज्ञान है,
साधक के पास दो प्रकार का ज्ञान है
00:27:24.280 --> 00:27:30.136
और परमात्मा के पास
एक प्रकार का ज्ञान है,
अतींद्रिय है वहाँ। आहाहा!
00:27:30.160 --> 00:27:39.896
तो इंद्रियज्ञान जो स्वभाव हो
तो निकले ही नहीं।
सिद्ध में इन्द्रियज्ञान होना चाहिए। आहाहा!
00:27:39.920 --> 00:27:48.536
उनकी ज्ञान में झलक आती है, अर्थात्
उन संबंधी अपना ज्ञान अपने में,
अपने से परिणमित होता है।
00:27:48.560 --> 00:27:54.216
आहाहा! पर से नहीं। पर है तो परिणमता है,
शास्त्र है तो आत्मज्ञान होता है,
ऐसा नहीं है।
00:27:54.240 --> 00:27:58.256
हाँ! शास्त्र की हाज़री में
आत्मा का ज्ञान होता है,
00:27:58.280 --> 00:28:07.216
तो कहा जाता है कि
शास्त्र से ज्ञान होता है, हुआ है,
ऐसा कहा जाता है। आहाहा!
00:28:07.240 --> 00:28:16.616
वह ज्ञान, ज्ञेयाकार दिखता है।
वह ज्ञान, है तो ज्ञानाकार,
ज्ञेय के संबंधवाला...
00:28:16.640 --> 00:28:22.496
ज्ञेयलुब्ध उसको कहा जाता है,
ज्ञेयलुब्ध, ज्ञेयों में आसक्त हो गया।
00:28:22.520 --> 00:28:31.536
मेरे को ज्ञेय जानने में आता है,
वो ज्ञेयलुब्ध, ज्ञेयों में आसक्त,
अज्ञानी हो गया। आहाहा!
00:28:31.560 --> 00:28:46.576
वह ज्ञान, ज्ञेयाकार दिखता है -
ऐसा कहा, तो भी, कहने में आवे तो भी,
(परंतु) वह ज्ञेयाकार हुआ नहीं, आहाहा!
00:28:46.600 --> 00:28:51.136
ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुए,
तो ज्ञान का ज्ञेयरूप होता है?
00:28:51.160 --> 00:28:56.476
और ज्ञेय का आकार उस रूप परिणमता है
कि आत्मारूप परिणमता है वो ज्ञान?
00:28:56.500 --> 00:29:08.296
ज्ञानाकार ही है। ज्ञेयाकार हुआ नहीं,
वह तो ज्ञानाकार-ज्ञान की ही तरंगे हैं।
ज्ञानाकार है, वो तो।
00:29:08.320 --> 00:29:11.536
ज्ञान में ज्ञायक आत्मा जानने में आता है,
तो ज्ञानाकार है।
00:29:11.560 --> 00:29:16.576
भले! ज्ञेय का प्रतिभास हुआ,
मगर लक्ष्य ज्ञेय पर है कि आत्मा पर?
00:29:16.600 --> 00:29:29.776
दो का प्रतिभास होता है, स्वपरप्रकाशक,
तब लक्ष्य कहाँ है?
ज्ञान का लक्ष्य तो आत्मा पर ही रहता है।
00:29:29.800 --> 00:29:33.816
स्वपरप्रकाशक कहने पर भी,
पर का लक्ष्य आ जाता नहीं (है)।
00:29:33.840 --> 00:29:37.496
दो का लक्ष्य तो होता नहीं है और
पर का लक्ष्य हो तो अज्ञानी,
00:29:37.520 --> 00:29:44.176
स्व का लक्ष्य रहवे, होवे, रहवे, बने,
तो ज्ञानी। आहाहा!
00:29:44.200 --> 00:29:54.536
स्वपरप्रकाशक में तकलीफ़ हो गयी।
स्व और पर दो जानने में आता है,
इसलिए क्या हुआ?
00:29:54.560 --> 00:29:59.936
कि मेरा लक्ष्य दो पर गया।
दो पर लक्ष्य जानेवाला है ही नहीं।
00:29:59.960 --> 00:30:04.576
या तो पर का लक्ष्य होता है,
या तो स्व का लक्ष्य होता है।
00:30:04.600 --> 00:30:08.296
आश्रय एक का है,
दो का आश्रय कभी होता नहीं है।
00:30:08.320 --> 00:30:14.216
इंद्रियज्ञान, पर का आश्रय ले,
तो वो तो इंद्रियज्ञान हो गया और
अतींद्रियज्ञान आत्मा का आश्रय लेता है।
00:30:14.240 --> 00:30:24.456
ज्ञानी तो जुदा है।
साधक होने से ज्ञान का दो भाग हो जाता है।
एक अतींद्रियज्ञान और एक इंद्रियज्ञान।
00:30:24.480 --> 00:30:26.416
कोई तकलीफ़ नहीं।
00:30:26.440 --> 00:30:34.136
एक ज्ञान की पर्याय में, जैसे चारित्र की
पर्याय में दो भाग हैं, ऐसे ज्ञान की
पर्याय में भी दो भाग हो जाते हैं।
00:30:34.160 --> 00:30:40.656
वह तो ज्ञानाकार-ज्ञान की ही तरंगे हैं।
वो तो ज्ञान की ही कल्लोलें हैं,
ज्ञान की ही पर्याय है।
00:30:40.680 --> 00:30:51.936
आहाहा! जानन...जानन...जानन
तीन दफ़े जानन, जानन और जानन
कर्ता, कर्ता और कर्ता, ऐसा लिखा नहीं।
00:30:51.960 --> 00:30:56.256
है ही नहीं, कहाँ से लिखें? आहाहा!
00:30:56.280 --> 00:31:02.296
अज्ञानी को ऐसा (लगे कि)
थोड़ा कर्ता की बात करो,
अकेला जानना, जानना मत रखो।
00:31:02.320 --> 00:31:07.016
थोड़ी करने की बात (रखो)। आहाहा!
दृढ़ हो गयी है अंदर में कर्ताबुद्धि।
00:31:07.040 --> 00:31:11.656
आत्मा केवल अकर्ता-ज्ञाता है,
उसकी दृष्टि में आता नहीं है।
00:31:11.680 --> 00:31:16.216
जानन...जानन...जानन अपना स्वभाव है, आहाहा!
00:31:16.240 --> 00:31:24.856
ये सबका स्वभाव ऐसा है जानना,
जानना, जानना, जानना, अपने को हों!
आहाहा! पर को नहीं।
00:31:24.880 --> 00:31:28.096
पर (का) भले प्रतिभास हो,
मगर पर का लक्ष्य होता है?
00:31:28.120 --> 00:31:34.216
"केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं",
क्या लोकालोक को ऐसे-ऐसे
(उसके सामने देखकर) जानते हैं?
00:31:34.240 --> 00:31:41.816
अपने को जानते-जानते
लोकालोक उसमें जणित (जानने में आ) जाता है।
00:31:41.840 --> 00:31:48.256
जानता है अपने को,
कहा जाता है कि पर को जानता हूँ,
उसका नाम व्यवहार है।
00:31:48.280 --> 00:32:03.496
उसमें परवस्तु का जानना... हें?
नहीं होता है। देखो! इसमें लिखा है।
00:32:03.520 --> 00:32:12.376
तथापि उसका जानना यहाँ (अपने में) होता है,
वह वास्तव में उसका
(परज्ञेय का) जानना नहीं है;
00:32:12.400 --> 00:32:25.336
परज्ञेय भले ही निमित्त हों,
तो भी परज्ञेय का जानना नहीं होता है।
स्व का जानना होता है। कोहिनूर का हीरा है।
00:32:25.360 --> 00:32:33.216
एक हीरा मिल जावे ना,
तो इंसान धनवान हो जावे।
एक रतन मिल जावे, पाँच करोड़ रुपये का। हें?
00:32:33.240 --> 00:32:37.976
ऐसा लिखा है।
कोहिनूर का हीरा इसमें है। आहाहा!
00:32:38.000 --> 00:32:45.436
लोगों को महिमा आती है उस हीरे की,
माणिक की, लक्ष्मी की, पैसे की,
यह बहुत पैसेवाला है,
00:32:45.460 --> 00:32:52.616
बहुत पैसेवाला है, बहुत पैसेवाला है।
आहाहा! और जिसको पैसे की चाह होवे ना?
00:32:52.640 --> 00:33:00.136
जैसे वो कुत्ता है ना, उसको खाना देवें ना?
तो पूँछ हिलाता है। पूँछ हिलाता है।
समझे ना?
00:33:00.160 --> 00:33:11.456
पूँछ हिलाता है। ऐसे ही, पुण्य और
पुण्य की रुचिवाला जीव,
श्रीमंत के पीछे-पीछे घूमता है। आहाहा!
00:33:11.480 --> 00:33:20.456
क्या है उनके पास? धनवान के पास क्या है?
मुनिराज के पास लक्ष्मी है, ज्ञान की।
आहाहा!
00:33:20.480 --> 00:33:27.056
जो अपने पूजनीक हैं, मुनिराज।
तीन कषाय के अभाव (रूप) शुद्धोपयोग में,
आनंद में झूलते हैं।
00:33:27.080 --> 00:33:34.216
वो उनके पीछे जा ना। वहाँ मिलेगा।
उसके (श्रीमंत के) पास कहाँ है? आहाहा!
00:33:34.240 --> 00:33:46.536
वास्तव में पचास साल पहले का काल (और)
आज का काल बदल गया है।
00:33:46.560 --> 00:34:03.336
धनवान, श्रेष्ठी जो वर्ग है, उसने,
उनको, विद्वानों को दबाने की चेष्टा
नहीं करनी चाहिए।
00:34:03.360 --> 00:34:09.336
पहले के काल में था,
अब काल फिर गया। आहाहा!
00:34:09.360 --> 00:34:18.656
ऐसा हमको दिखाई दिया, इसलिए मैं बोलता हूँ।
दुःख की मैं बात करता हूँ। आहाहा!
00:34:18.680 --> 00:34:24.896
जानना नहीं है; जानने की दशा है,
जो अपनी है, उसका जानना है।
00:34:24.920 --> 00:34:29.296
जानने की दशा जो अपनी है,
उसको जानता है।
00:34:29.320 --> 00:34:33.816
ज्ञान तो अपनी आत्मा को जानता है।
पर को नहीं जानता (है)। आहाहा!
00:34:33.840 --> 00:34:38.776
मगर श्रीमंत के पीछे
पूँछ हिला-हिलाकर जाता है।
क्या जाता है?
00:34:38.800 --> 00:34:44.656
इधर आ जा ना आत्मा में, इधर माल है।
वहाँ कहाँ माल है? आहाहा!
00:34:44.680 --> 00:34:54.536
क्योंकि पुण्य की रुचि है ना,
पुण्य के फल की। उसको आदर देता है।
00:34:54.560 --> 00:34:59.176
निर्धन को आदर नहीं देता है।
पानी भी नहीं पिलाता है,
आओ भी नहीं कहता है
00:34:59.200 --> 00:35:07.056
और वो आवे, आओ पधारो-पधारो
सेठजी पधारो-पधारो। क्या पधारो-पधारो?
क्या हो गया तेरे को? आहाहा!
00:35:07.080 --> 00:35:12.776
तो विवेक नहीं करना (चाहिए क्या)?
जो (तेरे को) विवेक हो,
तो भगवान आत्मा को आमंत्रण दे दे।
00:35:12.800 --> 00:35:18.376
हाँ! पधारो! पधारो! आहाहा!
फटे हुए कपड़े हों, मुमुक्षु हो।
आओ! आओ! आहाहा!
00:35:18.400 --> 00:35:28.056
यह तो न्याय से बात है,
इसे समझना तो पड़ेगा न!
कोई समझा थोड़े ही देगा?
00:35:28.080 --> 00:35:32.436
क्या कहते हैं कि अपनी ज्ञान की पर्याय,
ज्ञान की पर्याय में जानने में आती है।
00:35:32.460 --> 00:35:39.376
पर भले जानने में आवे,
मगर उसको जानने जाता नहीं।
जानने में आने पर वहाँ लक्ष्य नहीं है।
00:35:39.400 --> 00:35:51.416
क्या कहा? ये पदार्थ जानने में तो आया,
मगर ज्ञान किसको जानता है? कारण क्या है?
00:35:51.440 --> 00:35:58.936
जानने में आया, तो भी उसको नहीं जानता है,
इसका कारण क्या (है)? सोचो कुछ?
कि वहाँ लक्ष्य है नहीं।
00:35:58.960 --> 00:36:04.096
लक्ष्य इधर से छूटता नहीं।
जिसका लक्ष्य है, वो ही जानने में आता है।
00:36:04.120 --> 00:36:12.936
जिसका लक्ष्य नहीं है,
वो जानने में आता नहीं है। आहाहा!
जानने में आने पर भी जानता नहीं है।
00:36:12.960 --> 00:36:24.416
देखे छतां नहीं देखतो, बोले छतां अबोल ।
चाले छतां नहीं चालतों, तत्वस्थित अडोल।।
00:36:24.440 --> 00:36:27.256
अपने मुनिराज! आहाहा, पंचपरमेष्ठी।
00:36:27.280 --> 00:36:34.096
णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती साहूणम्।
आहाहा! त्रिकालवर्ती हो!
00:36:34.120 --> 00:36:40.776
आहाहा! जो तीन कषाय के अभाव,
आनंद में झूलते हों।
00:36:40.800 --> 00:36:43.896
आनंद का भोजन नित्य करते हों,
वो हमारे मुनिराज हैं।
00:36:43.920 --> 00:36:49.176
उनको हम कोटि-कोटि वंदन करते हैं। आहाहा!
00:36:49.200 --> 00:36:55.616
इसे समझना तो पड़ेगा न!
कोई समझा थोड़े ही देगा?
00:36:55.640 --> 00:36:59.416
देखो! अभी दर्पण का दृष्टांत देते हैं।
00:36:59.440 --> 00:37:10.120
देखो! दर्पण के दृष्टांत से
इस बात को समझते हैं- मथाला (शीर्षक है)।
00:37:10.144 --> 00:37:20.136
हेडलाईन उसका। अभी नीचे।
जैसे दर्पण के सामने कोयला,
कौलसा हाँ! काला।
00:37:20.160 --> 00:37:32.176
अग्नि इत्यादि रखे हों वे दर्पण में
दिखाई देते हैं परंतु वे दर्पण से
भिन्न चीज़ है न?
00:37:32.200 --> 00:37:36.136
ये तो भिन्न चीज़ है, दर्पण भिन्न है,
कोयला भी भिन्न है, अग्नि भिन्न है।
00:37:36.160 --> 00:37:44.696
दर्पण में तो उन पदार्थों की झलक दिखाई
देती है, वो पदार्थ तो आता नहीं है,
झलक दिखती है।
00:37:44.720 --> 00:37:54.696
परंतु क्या कोयला और अग्नि इत्यादि
दर्पण में हैं? दर्पण में तो दर्पण की
स्वच्छता का अस्तित्व है।
00:37:54.720 --> 00:37:59.216
उसमें तो कोयला या अग्नि आयी नहीं।
वह तो भिन्न पदार्थ है।
00:37:59.240 --> 00:38:12.736
दर्पण में तो दर्पण की स्वच्छता का
अस्तित्व है। दर्पण में दर्पण की
स्वच्छता का अस्तित्व है।
00:38:12.760 --> 00:38:19.016
कालापना इधर आया नहीं है।
उष्णपना इधर आया नहीं है।
00:38:19.040 --> 00:38:31.616
यदि अग्नि इत्यादि उसमें प्रविष्ट हों
तो दर्पण अग्निमय हो जाये,
उसे हाथ लगाने से हाथ जल जाये,
00:38:31.640 --> 00:38:38.896
मगर ऐसा होता नहीं है।
परंतु ऐसा है नहीं।
00:38:38.920 --> 00:38:46.096
दर्पण, दर्पण की स्वच्छता के परिणाम से
स्वयं ही स्वयं से ही परिणमित हुआ है।
00:38:46.120 --> 00:38:52.056
कोलसा है तो स्वच्छता है?
अग्नि है तो इधर स्वच्छता है?
नहीं है।
00:38:52.080 --> 00:38:58.176
स्वच्छता निरपेक्ष होती है।
स्वभाव निरपेक्ष होता है।
00:38:58.200 --> 00:39:04.816
विभाव कथंचित् निरपेक्ष कि
कथंचित् सापेक्ष होता है।
00:39:04.840 --> 00:39:10.456
मगर त्रिकालस्वभाव तो त्रिकाल निरपेक्ष
होता है, उसमें कोई पर की
अपेक्षा होती नहीं है।
00:39:10.480 --> 00:39:12.496
इसका नाम पारिणामिकभाव है।
00:39:12.520 --> 00:39:24.496
स्वच्छता के परिणाम...
स्वयं ही स्वयं से परिणमित हुआ है;
कोयला या अग्नि उसमें कुछ है ही नहीं।
00:39:24.520 --> 00:39:31.296
समझ में आया कुछ? समझ में कुछ आया?
सारा (समझ में) आ जाये तो-तो निहाल हो जावे।
00:39:31.320 --> 00:39:39.656
समझाणु कांई? गुजराती में। समझाणु कांई?
थोड़ा समझ में आया? ज़रा समझ में आया?
00:39:39.680 --> 00:39:43.256
ये सत् का एक पैसा समझ में आ जावे ना....
00:39:43.280 --> 00:39:51.736
पच्चीस साल पहले वो, उसको भाईसाहब को
कहा था, सोनगढ़ में, प्रेमचंद जी।
बार-बार आते थे, मेरे पास।
00:39:51.760 --> 00:39:56.216
मैंने प्रेमचंद जी को कहा,
सत् का एक पैसा बस है। क्या कहा?
00:39:56.240 --> 00:40:03.136
मैंने कहा, सत् का एक पैसा बस है।
निन्यानवे पैसे इधर आ जाएँगे। आहाहा!
00:40:03.160 --> 00:40:10.656
बाक़ी व्यवहार के १०० पैसे हों तेरे पास,
कौंड़ी की क़ीमत नहीं है। आहाहा!
00:40:10.680 --> 00:40:14.456
अरे! सत् के पक्ष (में) तो आ जाओ,
स्वभाव के पक्ष में तो आ जाओ,
00:40:14.480 --> 00:40:19.896
प्राप्ति तो स्वकाल में होगी,
प्राप्ति तो स्वकाल में होगी।
00:40:19.920 --> 00:40:29.576
मगर स्वभाव के पक्ष में तो आजा। आहाहा!
यशपालजी! ऐसी बात है। आहाहा!
00:40:29.600 --> 00:40:40.416
विभाव के पक्ष में पड़ा है।
व्यवहार के पक्ष में पड़ा है।
निमित्त के पक्ष में पड़ा है। आहाहा!
00:40:40.440 --> 00:40:45.456
बाक़ी कहते हैं कि सम्यग्दर्शन होता नहीं।
कहाँ से होवे? पक्ष तो व्यवहार का है।
00:40:45.480 --> 00:40:50.076
निश्चय का पक्ष तो...
भाषा ही नहीं बदली अभी तो।
कर्ता की बात आती है।
00:40:50.100 --> 00:40:58.616
आत्मा ज्ञाता है, ऐसी बात आनी चाहिए।
आत्मा ज्ञाता है, ऐसी बात आनी चाहिए।
भाषा आनी चाहिए।
00:40:58.640 --> 00:41:02.776
जो अभी विद्वान जाने, जानेवाले हैं ना,
इसलिए विद्वान के लिए मैं,
00:41:02.800 --> 00:41:07.496
छोटे-छोटे बालक २२ वर्ष, २४ वर्ष और २६ वर्ष
के आनेवाले हैं ना, इसलिए मैं कहता हूँ।
00:41:07.520 --> 00:41:16.376
आहाहा! बड़े आदमी के लिए नहीं कहता हूँ।
आहाहा! अरे! भाषा तो बदल,
भाव तो बाद में बदलेगा।
00:41:16.400 --> 00:41:23.376
भाषा तो बदल कि मैं ज्ञाता हूँ और
कर्ता नहीं हूँ। भाषा तो बदल।
00:41:23.400 --> 00:41:26.976
एक दस दफ़े तो, दस दफ़े
तो खानगी (अकेले) में बोल।
00:41:27.000 --> 00:41:35.616
तो एक (बार) अहमदाबाद में एक बात की।
तो वो भी एक पहले णमोकारमंत्र की माला
फेरता है भाई, अपना मुमुक्षु।
00:41:35.640 --> 00:41:39.776
बाद में, मैं ज्ञाता हूँ, कर्ता नहीं हूँ,
ज्ञाता हूँ, कर्ता नहीं हूँ।
00:41:39.800 --> 00:41:43.256
ऐसे हिम्मतभाई के घर
भावनगर (में) गया। समझे?
00:41:43.280 --> 00:41:47.936
वहाँ भी सब बैठे थे,
ज्ञाता हूँ और कर्ता नहीं हूँ, बस।
00:41:47.960 --> 00:41:55.696
णमोकारमंत्र बोलने के बाद ऐसा करना कि
ज्ञाता हूँ और कर्ता नहीं हूँ। आहाहा!
00:41:55.720 --> 00:42:02.296
ये भाषा तो बदल तो भाव बदलेगा, बदलेगा।
आहाहा! मगर मैं कर्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ।
00:42:02.320 --> 00:42:09.136
पुण्य से धर्म होता है।
पुण्य-पाप करना चाहिए। आहाहा!
तू स्वभाव से बाहर निकल गया, बिल्कुल।
00:42:09.160 --> 00:42:24.256
ऐसा तेरा स्वभाव है। ज्ञाता तेरा स्वभाव है।
आहाहा! निरपेक्ष स्वभाव है।
त्रिकालस्वभाव है। आहाहा!
00:42:24.280 --> 00:42:35.176
यह क्या कहा? लो! फिर से!
एक ओर दर्पण है, दर्पण है, उसके सामने
एक ओर अग्नि और बर्फ़ है।
00:42:35.200 --> 00:42:42.496
अग्नि, अग्नि में लवक-झवक होती है।
लवक-झवक समझे? अग्नि। हें? ऐसी होती है।
00:42:42.520 --> 00:42:47.056
ऊँची-नीची होती है ना। हाँ! ऊँची-नीची।
लवक-झवक होती है।
00:42:47.080 --> 00:42:55.216
और बर्फ़ बर्फ़ में पिघलता जाता है,
बर्फ़ का पानी हो जाता है,
दर्पण सामने हो। समझे?
00:42:55.240 --> 00:42:58.296
बर्फ़, बर्फ़ का काम करता है।
अग्नि, अग्नि का काम करती है।
00:42:58.320 --> 00:43:08.136
उस समय दर्पण में भी बस ऐसा ही दिखता है।
जैसा वहाँ है ना, वैसा ही दिखता है। आहाहा!
00:43:08.160 --> 00:43:15.376
उस समय दर्पण में भी बस ऐसा ही दिखता है
तो क्या दर्पण में अग्नि और बर्फ़ है?
00:43:15.400 --> 00:43:25.236
नहीं; अग्नि और बर्फ़ का होना तो बाहर
अपने-अपने में है, दर्पण में उसका
होनापना (अस्तित्व) नहीं है।
00:43:25.260 --> 00:43:30.176
आया ही नहीं है दर्पण में।
ऐसे ज्ञान में दुःख आता ही नहीं है।
00:43:30.200 --> 00:43:41.816
उपयोग में दुःख नहीं आता है,
तो ज्ञायक में दुःख कहाँ से आवे? आहाहा!
ऐसा भेदज्ञान करना चाहिए।
00:43:41.840 --> 00:43:50.896
बाहर अपने-अपने में है। दर्पण में
उसका होनापना (अस्तित्व) नहीं है।
वे दर्पण में वे प्रविष्ट नहीं हैं।
00:43:50.920 --> 00:43:53.296
प्रवेश नहीं होता है,
दर्पण में अग्नि (का)।
00:43:53.320 --> 00:44:01.256
दर्पण में तो दर्पण की उसरूप
स्वच्छ दशा हुई है, वह है।
00:44:01.280 --> 00:44:09.776
अग्नि और बर्फ़ सम्बन्धी
दर्पण की स्वच्छता की दशा,
वह दर्पण का स्वयं का परिणमन है।
00:44:09.800 --> 00:44:15.016
दर्पण का स्वच्छत्व परिणमन
अपने से है। अपनी शक्ति से है।
00:44:15.040 --> 00:44:21.996
वो सामने है, तो स्वच्छता इधर है,
ऐसा नहीं है। आहाहा!
00:44:22.020 --> 00:44:28.736
कोयला हो, तो काला हो गया और
कोयला हटाओ, तो स्वच्छ हुआ,
ऐसा नहीं है।
00:44:28.760 --> 00:44:37.496
स्वभाव से स्वच्छ है।
कोयले का सद्भाव कि असद्भाव,
स्वभाव से स्वच्छता है, दर्पण की। आहाहा!
00:44:37.520 --> 00:44:45.416
कर्म का उदय हो कि कर्म का उदय न हो,
ज्ञान अपनी आत्मा को जानता है। क्या कहा?
00:44:45.440 --> 00:44:54.176
कर्म का उदय हो कि कर्म का अनुदय हो,
ज्ञान अपनी आत्मा को
समय-समय पर जानता है। आहाहा!
00:44:54.200 --> 00:45:00.976
प्रत्येक समय, प्रत्येक जीव
अपनी आत्मा को ही जानता है।
मानता नहीं है, बस।
00:45:01.000 --> 00:45:04.896
माने तो सम्यग्दृष्टि हो जावे,
ऐसा लिखा है, समयसार में।
00:45:04.920 --> 00:45:12.696
समयसार का वंदन रोज़ करता है
और समयसार में लिखा है,
वो मानता नहीं है। आहाहा!
00:45:12.720 --> 00:45:17.696
दर्पण में तो दर्पण की
उसरूप स्वच्छ दशा हुई है, वह है।
00:45:17.720 --> 00:45:24.656
अग्नि और बर्फ़ सम्बन्धी दर्पण की
स्वच्छ की दशा, वह दर्पण का
स्वयं का परिणमन है
00:45:24.680 --> 00:45:37.556
अग्नि और बर्फ़ का उसमें कुछ है ही नहीं;
अग्नि और बर्फ़ ने उसमें कुछ किया ही नहीं,
वे तो भिन्न पदार्थ हैं।
00:45:37.580 --> 00:45:44.976
भैया! यहाँ स्वच्छता में कहाँ
अग्नि आ गयी तेरी? आहाहा!
ऐसे ज्ञान में राग कहाँ आ जाता है?
00:45:45.000 --> 00:45:51.496
राग दाह है ना, दाह।
लिखा है ना? आया ना दाह।
00:45:51.520 --> 00:45:54.656
मुमुक्षु:- राग आग दहे सदा
तातें समामृत सेइए।
00:45:54.680 --> 00:45:58.296
उत्तर:- आहाहा! राग तो दाह है,
अग्नि की जगह राग है।
00:45:58.320 --> 00:46:06.336
अग्नि जो दर्पण में आ जावे,
तो अपने उपयोग में राग आ जावे।
राग (उपयोग में) आता ही नहीं है।
00:46:06.360 --> 00:46:12.856
राग आ गया, ऐसी भ्राँति हो गयी,
वो अज्ञान है तेरा। आहाहा!
00:46:12.880 --> 00:46:21.536
उसमें कुछ किया ही नहीं,
वे तो भिन्न पदार्थ हैं।
टाइम है दस मिनिट।
00:46:21.560 --> 00:46:49.826
इसी प्रकार... अभी टाइम थोड़ा है ना।
आज दोपहर में..... आज अभी और दोपहर में।
00:46:49.880 --> 00:46:55.936
तो इसमें सब आ जाएगा।
दोपहर तक में, सब बहुत माल तो आ जाएगा।
00:46:55.960 --> 00:47:06.216
ये पूरा तो इधर होता है।
जो गुरुदेव ने फ़रमाया है कि
तू तेरी ओर देख।
00:47:06.240 --> 00:47:08.736
ऐसे (यहाँ-वहाँ) मत देख।
00:47:08.760 --> 00:47:16.536
युगल जी साहब ने कहा था, वहाँ भिंड में
(कि) जो बाहर देखता है ना,
उसकी नियत ख़राब है।
00:47:16.560 --> 00:47:22.176
क्यों बाहर देखता है तू? ऐसा शब्द।
आहाहा! कड़क शब्द निकाला।
00:47:22.200 --> 00:47:29.536
मेरे को बहुत अच्छा लगा कि तू क्यों
बाहर देखता है? तेरी नियत ख़राब है।
इधर (अंदर) में देख ना।
00:47:29.560 --> 00:47:39.136
इसी प्रकार भगवान आत्मा, आहाहा!
दर्पण का दृष्टांत पूरा हुआ।
00:47:39.160 --> 00:47:43.096
इसी प्रकार भगवान आत्मा, हो!
सब भगवान हैं।
00:47:43.120 --> 00:47:48.056
स्वभाव से सब भगवान हैं।
पर्याय को गौण कर दे। कल कहा था ना
00:47:48.080 --> 00:47:53.896
जो निगोद में सो ही मुझमें,
सो ही मोक्ष मंझार।
00:47:53.920 --> 00:48:00.376
निश्चयभेद कछुनाहीं,
भेद गिने संसार (मिथ्यात्व)।।
00:48:00.400 --> 00:48:03.456
संसार कहो कि मिथ्यात्व, एक ही बात है।
00:48:03.480 --> 00:48:10.456
इसी प्रकार भगवान आत्मा, आहाहा!
00:48:10.480 --> 00:48:18.736
भगवान कहनेवाला, आहाहा! आया था और
अपना काम करके चला गया।
00:48:18.760 --> 00:48:25.696
भारत में ऐसा बनाव बनता है।
ज्ञानी कहते जाते हैं और चले जाते हैं।
00:48:25.720 --> 00:48:29.016
कहते जाते हैं और चले जाते हैं।
भारत में ऐसा है।
00:48:29.040 --> 00:48:35.496
अन्यमत में, अमेरिका में,
वहाँ तो कुछ है नहीं, रशिया में। आहाहा!
इधर भारत में ऐसा है।
00:48:35.520 --> 00:48:41.696
ज्ञानी कहते जाते हैं, आत्मा का स्वरूप
और चले जाते हैं। आहाहा!
00:48:41.720 --> 00:48:50.416
अल्पकाल में मुक्ति वहाँ मिल जाएगी। आहाहा!
ऐसा इधर प्रवाह टुकड़े-टुकड़े में है,
धारावाही नहीं है।
00:48:50.440 --> 00:48:55.736
पंचम काल है ना। आहाहा!
धारावाही ज्ञानी मिलना बहुत मुश्किल है।
00:48:55.760 --> 00:49:01.536
कभी-कभी काल ऐसा आता है
कि कोई ज्ञानी ही न हो।
कभी-कभी ऐसा काल आ जाता है।
00:49:01.560 --> 00:49:11.976
इसी प्रकार भगवान आत्मा,
भगवान आत्मा को (भगवान) कहना
और उसको राग को कर्ता कहना।
00:49:12.000 --> 00:49:17.536
भगवान को गाली देता है?
क्या कहा? आहाहा!
00:49:17.560 --> 00:49:27.616
आत्मा को भगवान कहना और
उसको राग का करनेवाला मानना,
वो तो भगवान को गाली दिया।
00:49:27.640 --> 00:49:35.816
भगवान राग को करे? आहाहा!
क्या हो गया तेरे को? आहाहा!
00:49:35.840 --> 00:49:40.416
आत्मा, आत्मा का ज्ञान करे,
वो भी कथंचित् है।
00:49:40.440 --> 00:49:46.016
तो राग का कर्ता है और कर्म का
और कर्म बांधता है और आयु बांधता है
00:49:46.040 --> 00:49:50.776
और कर्म भोगता है, साता वेदनीय,
असाता वेदनीय। आहाहा!
00:49:50.800 --> 00:49:59.536
कहाँ गयी तेरी नज़र? जड़-कर्म में गयी,
बुद्धि जड़ हो गयी।
ज्ञान ढँक जाता है उसका। आहाहा!
00:49:59.560 --> 00:50:11.216
इसी प्रकार भगवान आत्मा
स्वच्छ चैतन्य दर्पण है,
स्वच्छ चैतन्यदर्पण है। कभी? तीनोंकाल।
00:50:11.240 --> 00:50:20.856
आहाहा! तो ये मलिनता किसकी है?
मलिनता आश्रव की है।
जीव की मलिनता होती नहीं है।
00:50:20.880 --> 00:50:28.896
नवतत्व है, सर्वज्ञ भगवान ने कहा।
आश्रव को मलिन कहा है।
जीव को मलिन कहा नहीं है।
00:50:28.920 --> 00:50:36.856
जीव मलिन होता ही नहीं है। आहाहा!
आश्रव है, वो मलिन है।
कौन ना बोलता है? है। ठीक है!
00:50:36.880 --> 00:50:44.496
मगर जीव है, मलिन? आहाहा!
आश्रव को मलिन देखकर (जीव को
मलिन कह दिया), दृष्टि वहाँ है ना।
00:50:44.520 --> 00:50:50.656
तो मैं मलिन हो गया, रागी हो गया,
दुःखी हो गया, ऐसी भ्राँति हो गयी,
भेदज्ञान का अभाव होने से।
00:50:50.680 --> 00:51:00.536
स्वच्छ चैतन्य दर्पण है, उसके ज्ञान में
ज्ञेयों के आकार की झलक आने पर,
ज्ञान ज्ञेयाकार दिखता है।
00:51:00.560 --> 00:51:06.936
ज्ञान ज्ञेयाकार दिखता है।
है नहीं, दिखता है।
00:51:06.960 --> 00:51:14.056
सामने जैसे ज्ञेय हैं, उसी प्रकार की
विशेषतारूप अपनी ज्ञान की दशा होने पर,
00:51:14.080 --> 00:51:19.536
मानो कि ज्ञान,
ज्ञेयाकार हो गया हो,
ऐसा दिखता है
00:51:19.560 --> 00:51:27.496
हुआ नहीं (है) ज्ञेयाकार,
वो तो ज्ञानाकार रहता है।
आकार यानि उस स्वरूप होता नहीं है।
00:51:27.520 --> 00:51:39.956
अपनी ज्ञान की दशा होने पर, मानो कि ज्ञान,
ज्ञेयाकार हो गया हो, ऐसा दिखता है
परंतु ज्ञान, ज्ञेयाकार हुआ ही नहीं है,
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ज्ञेयाकार कहना, वो व्यवहार है।
ज्ञानाकार जानना, वो निश्चय है।
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ज्ञानाकार ही है; देखो!
ज्ञानाकार ही है और ज्ञेयाकार नहीं है।
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प्रमाण से ज्ञानाकार भी है
और ज्ञेयाकार भी है।
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नय से देखो तो, विधि-निषेध में आओ तो,
ज्ञानाकार है और ज्ञेयाकार नहीं है।
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उसमें साध्य की सिद्धी होती है।
प्रमाण में साध्य की सिद्धी नहीं होती है।
प्रमाण में से निश्चय निकालना चाहिए।
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स्वपरप्रकाशक में से
स्वप्रकाशक निकालना चाहिए,
तो साध्य की सिद्धी होती है।
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परंतु ज्ञान, ज्ञेयाकार हुआ ही नहीं,
ज्ञानाकार ही है; आहाहा!
रागरूप होता ही नहीं ज्ञान।
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आत्मा का ज्ञान आत्मारूप रहता है।
ज्ञानाकार है, ज्ञान का आकार,
ज्ञान का स्वरूप है।
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अर्थात् वे ज्ञेय की कल्लोलें नहीं,
वो ज्ञान की तरंगे है।
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आत्मा, आत्मा को जानता है,
वो ज्ञान की तरंग पर्याय है।
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परंतु ज्ञान की ही कल्लोलें हैं,
कल्लोल यानि पर्याय।
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ज्ञान की ही दशा है;
ज्ञेयों का उसमें कुछ है नहीं है।
समझ में आया कुछ?
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लो अभी इतना हो गया और टाइम हो गया थोड़ा।
पाँच मिनिट बाक़ी है, थोड़ा पैर में दर्द है।
जिनवाणी स्तुति।
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