WEBVTT LA248
00:02:03.960 --> 00:02:11.496
यह श्री समयसार जी परमागम शास्त्र है,
उसका प्रथम जीव नामक अधिकार (है)
00:02:11.520 --> 00:02:20.336
अथवा पूर्वरंग अधिकार पहला है।
उसमें जीवतत्व का यथार्थ स्वरूप क्या है
00:02:20.360 --> 00:02:28.576
वह बतानेवाला अधिकार है।
उसमें अनंत-अनंतकाल से आत्मा,
00:02:28.600 --> 00:02:38.056
तीर्थंकर भगवान की देह को देखकर स्तुति करता है,
आचार्य, उपाध्याय, साधु जी की भी
00:02:38.080 --> 00:02:47.336
उनकी देह पर लक्ष्य रखकर उनकी स्तुति, वंदना,
पूजन करता है। इस तरह अनंतकाल से इसप्रकार का
00:02:47.360 --> 00:02:55.176
व्यवहार अज्ञानी जीवों का चल रहा है।
देह को ही तीर्थंकर जानकर स्तुति करते हैं,
00:02:55.200 --> 00:03:02.216
आचार्य भगवान जो शुद्धोपयोगी हैं,
उनकी आत्मा की तो खबर नहीं है,
00:03:02.240 --> 00:03:05.816
उनकी आत्मा देह से भिन्न है-
यह तो वह जानता नहीं है।
00:03:05.840 --> 00:03:10.016
क्योंकि अपनी देह से अपनी
आत्मा को भिन्न जाना नहीं है
00:03:10.040 --> 00:03:15.016
इसलिए दूसरों की आत्मा भी उनकी देह से
भिन्न है, वह जानने में आता (नहीं)।
00:03:15.040 --> 00:03:20.176
यहाँ पर भिन्न जाने तो वहाँ भिन्न जानने में आये।
यहाँ तो उसे भिन्नता हुई नहीं है।
00:03:20.200 --> 00:03:24.616
यहाँ पर तो देहादि को अपनी आत्मा ही
मानता है, वह ही जीव है ऐसा मानता है।
00:03:24.640 --> 00:03:29.696
इसलिए सामने भी, उसने यहाँ
जीवपने की स्थापना की है।
00:03:29.720 --> 00:03:35.656
आत्मा की स्थापना इस देह में की है तो वहाँ भी
वह देह में आत्मा को स्थापित करके पूजा करता है।
00:03:35.680 --> 00:03:45.416
वह करता है पूजा, भक्ति, वंदना। यदि कषाय की
मंदता हो, तो मिथ्यात्व के साथ शुभभाव होता है।
00:03:45.440 --> 00:03:52.896
क्या कहा? मिथ्यात्व के परिणाम के साथ
कषाय की मंदता हो, तो शुभभाव होता है
00:03:52.920 --> 00:03:57.856
लेकिन मिथ्यात्व नहीं जाता।
तब तक उसे अनुभव नहीं होता।
00:03:57.880 --> 00:04:02.056
अनुभव के बिना मोक्षमार्ग
तीनकाल में प्रगट होता नहीं।
00:04:02.080 --> 00:04:09.576
अब २६, २७, २८, २९, ३० गाथा तक
चर्चा चली, शिष्य ने बहुत दलीलें की
00:04:09.600 --> 00:04:13.176
और उसके उत्तर में ३१वीं गाथा कहते हैं।
00:04:13.200 --> 00:04:23.656
कि भाई! देह की स्तुति करने से भगवान की
स्तुति नहीं हो सकती। क्योंकि देह भिन्न है
और आत्मा भिन्न है।
00:04:23.680 --> 00:04:30.816
इसलिए वास्तव में जो तीर्थंकर भगवान की स्तुति
करनी हो, केवली की तुझे स्तुति करनी हो
00:04:30.840 --> 00:04:41.216
तो प्रथम देह से और इन्द्रियज्ञान से भिन्न
तेरा आत्मा है, उसका पहले तू अनुभव कर।
00:04:41.240 --> 00:04:46.576
तो वह आत्मा का अनुभव है, वह ही
केवली की निश्चय स्तुति हो गई।
00:04:46.600 --> 00:04:50.136
स्वयं के आत्मा का जो अनुभव करता है
00:04:50.160 --> 00:04:58.456
उसे ही यहाँ केवली और तीर्थंकर की स्तुति
की- ऐसा कहने में आता है। क्योंकि यह आत्मा है
00:04:58.480 --> 00:05:08.216
वह स्वयं पंचपरमेष्ठी पद में समाया हुआ है इसमें।
यह ही केवली है, यह ही मुनि है, यह ही साधु है।
00:05:08.240 --> 00:05:12.096
आत्मा में ही पाँच पद समाये हुये हैं।
00:05:12.120 --> 00:05:16.576
इसलिए पहले तो तू तेरी आत्मा के
सन्मुख होकर अनुभव कर।
00:05:16.600 --> 00:05:23.056
तो उसे हम निश्चय स्तुति की (ऐसा)
कहते हैं। वहाँ से संवर की शुरूआत होती है।
00:05:23.080 --> 00:05:28.856
जब तक इन्द्रियज्ञान द्वारा तू पर की
देह को जानकर स्तुति कर रहा है,
00:05:28.880 --> 00:05:36.496
वह तो मिथ्यात्व के साथ थोड़ी कषाय की मंदता-
शुभभाव होता है तो उतने समय शुभभाव कहलाता है,
00:05:36.520 --> 00:05:42.936
लेकिन मिथ्यात्व के साथ रहा हुआ जो शुभभाव है
उसकी कोड़ी की भी कीमत नहीं है।
00:05:42.960 --> 00:05:52.496
अब यहाँ स्तुति का वर्णन करते हुये कहते
हैं कि ज्ञेय और ज्ञायक दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
00:05:52.520 --> 00:05:56.656
ज्ञेय भिन्न है और ज्ञायक आत्मा भिन्न है।
00:05:56.680 --> 00:06:03.496
दो पदार्थ हैं जगत में,
ज्ञेय भी हैं और ज्ञायक भी है।
00:06:03.520 --> 00:06:10.856
कोई ज्ञेय को उड़ाये तो वह गलत है और
ज्ञेय को ज्ञायक में मिलाता है, तो भी गलत है।
00:06:10.880 --> 00:06:15.656
ज्ञायक भिन्न है और ज्ञेय भिन्न है।
ज्ञायक और ज्ञेय भिन्न हैं
00:06:15.680 --> 00:06:20.656
इसलिए ज्ञायक को जाननेवाला जो ज्ञान,
वह भी ज्ञेयों से भिन्न है।
00:06:20.680 --> 00:06:26.976
ज्ञायक ज्ञेयों से भिन्न है,
ज्ञेयों के तीन प्रकार कल कहे
00:06:27.000 --> 00:06:33.256
कि एक तो द्रव्य इन्द्रिय वह पर ज्ञेय है।
यह द्रव्येन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय वगैरह।
00:06:33.280 --> 00:06:42.016
और दूसरी भावेन्द्रिय, खंडज्ञान
समय-समय पर जो क्षयोपशम भावेन्द्रिय का
उघाड़ है ना, पर को जानने का,
00:06:42.040 --> 00:06:47.776
उससे भी आत्मा भिन्न है, भिन्न है
इसलिये ज्ञेय है। और उनके जो विषय हैं,
00:06:47.800 --> 00:06:54.056
भावेन्द्रिय के विषय वे भी ज्ञेय हैं।
इस प्रकार ज्ञेय के तीन प्रकार कल बताये थे।
00:06:54.080 --> 00:06:59.176
उन तीन प्रकारो में पहले द्रव्येन्द्रिय को
जीतने का बोध दिया।
00:06:59.200 --> 00:07:06.296
कि द्रव्येन्द्रिय है वह पुद्गल की रचना है,
शरीर का एक स्पेयरपार्ट है।
00:07:06.320 --> 00:07:12.416
यह है ना, वह शरीर का एक भाग है।
शरीर परिणाम को प्राप्त ऐसी द्रव्येन्द्रिय,
00:07:12.440 --> 00:07:18.096
वह द्रव्येन्द्रिय ज्ञान का निमित्त नहीं है।
वह द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय का निमित्त है
00:07:18.120 --> 00:07:23.096
अथवा वह कर्म चेतना का निमित्त है
अथवा वह अज्ञान का निमित्त है।
00:07:23.120 --> 00:07:28.296
जो नैमित्तिकभाव (हैं) उनका निमित्त है,
उस स्वभावभाव का यह निमित्त नहीं।
00:07:28.320 --> 00:07:34.536
ओहो! हो जाता है।
यह वस्तु समझने जैसी यह है।
00:07:34.560 --> 00:07:40.776
अनंतकाल से इसने आत्मा के स्वरूप को समझा नहीं।
00:07:40.800 --> 00:07:46.856
पर से भिन्न होने पर भी
पर और स्व दोनों की एकत्वबुद्धि है,
00:07:46.880 --> 00:07:52.296
भेदज्ञान की शक्ति कुंठित हो गई है जिसकी,
भिन्न विभाग करने की शक्ति कुंठित हो गई है
00:07:52.320 --> 00:07:58.056
इसलिए द्रव्येन्द्रिय से आत्मा भिन्न है (ऐसी भिन्नता भासित नहीं होती)।
उसके लिए करुणा करके कैसे भिन्न करना? (उसका उपाय कहा)
00:07:58.080 --> 00:08:05.016
कि 'जो अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म
चैतन्यभाव', प्रगट है, है, है और है।
00:08:05.040 --> 00:08:09.256
किसी को ऐसा लगे कि यदि हो तो क्यों दिखता नहीं है?
00:08:09.280 --> 00:08:14.896
ऐसा श्रीमद्जी में भी एक प्रश्न-उत्तर किया है
कि यदि हो, तो सभी को दिखना चाहिये।
00:08:14.920 --> 00:08:21.536
जैसे घट-पट दिखते हैं ऐसे आत्मा दिखना
चाहिये। तू देखता नहीं है इसलिए दिखता नहीं।
00:08:21.560 --> 00:08:27.096
तेरे ज्ञान में तो जानने में आ रहा है।
समय-समय पर भगवान आत्मा,
00:08:27.120 --> 00:08:35.856
लेकिन तुझे शास्त्र के ऊपर भी विश्वास नहीं है।
आहाहा! वैसे तो देव, गुरु, शास्त्र के पैर पड़ता है।
00:08:35.880 --> 00:08:39.176
भगवान का इस प्रकार समयसार
विराजमान होता है तो पैर पड़ता है।
00:08:39.200 --> 00:08:49.616
लेकिन उसमें जो लिखा है वही सच्चा है
ऐसा मानता नहीं। वह भूल होती है।
00:08:49.640 --> 00:09:02.776
कहते हैं कि उन द्रव्येन्द्रियों को कैसे जीतना कि
अंतरंग में, अंदर में प्रगट आत्मा है, है और है।
00:09:02.800 --> 00:09:10.376
प्रगट है, वह जीव तत्त्व है और
प्रगट 'होते' हैं, वे नवतत्त्व हैं।
00:09:10.400 --> 00:09:21.496
नवतत्त्व प्रगट होते हैं भले क्रम-क्रम से। लेकिन
वे प्रगट होते हैं, वह उनका स्वभाव, नवतत्त्वों का,
00:09:21.520 --> 00:09:26.896
और जीव प्रगट है, वह उसका स्वभाव है।
जीव प्रगट नहीं होता।
00:09:26.920 --> 00:09:36.016
पर्याय तो नहीं होती धर्म की, बाद में प्रगट होती है,
मोक्ष नहीं है तो बाद में प्रगट होता है।
00:09:36.040 --> 00:09:43.416
लेकिन प्रगट होता है वह जीवतत्त्व नहीं है।
जो प्रगट होता है वह कोई संवरतत्त्व,
00:09:43.440 --> 00:09:48.376
कोई निर्जरा और कोई मोक्षतत्त्व है।
प्रगट होता है, वह जीव नहीं।
00:09:48.400 --> 00:09:54.296
जीव के परिणाम कहो लेकिन वह जीव नहीं है।
जीव का उनमें लक्षण नहीं है।
00:09:54.320 --> 00:09:57.576
मोक्ष की पर्याय में जीव का लक्षण नहीं है।
00:09:57.600 --> 00:10:04.696
मोक्ष तो हमें करना है,
मोक्ष तो हमें चाहिए। और वह जीव नहीं है?
00:10:04.720 --> 00:10:07.656
कि नहीं, वह जीव नहीं है।
जीव उससे भिन्न है।
00:10:07.680 --> 00:10:12.816
जीव का लक्षण तो परमपारिणामिक स्वभाव है।
00:10:12.840 --> 00:10:19.256
उससे जीव तन्मय है और मोक्ष की पर्याय
तो क्षायिकभाव से तन्मय है।
00:10:19.280 --> 00:10:22.217
उसमें परमपारिणामिकभाव का अभाव है, एक।
00:10:22.241 --> 00:10:25.936
मोक्ष की पर्याय में - (वह)
एक समय की पर्याय है,
00:10:25.960 --> 00:10:31.176
उसमें अनंतगुण नहीं हैं और
भगवान आत्मा में तो अनंत गुण हैं।
00:10:31.200 --> 00:10:36.656
गुणी को हम जीव कहते हैं।
गुण को गुण कहते हैं लेकिन गुण को जीव नहीं कहते।
00:10:36.680 --> 00:10:43.096
दोष को दोष, गुण को गुण और गुणी को (गुणी)।
जो रागादि भाव प्रगट होता है वह दोष है।
00:10:43.120 --> 00:10:48.896
संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रगट होता है वह गुण है
और भगवान आत्मा गुणी है। आहाहा!
00:10:48.920 --> 00:10:57.176
लेकिन हम उसे जीव कहते नहीं हैं। भगवान ने
कहा नहीं। उन्होंने तो स्वांग कहा है। आहाहा!
00:10:57.200 --> 00:11:04.056
तेरे रागादि पुण्य, पाप के परिणाम तो
स्वांग हैं, हैं और हैं, तुझे वे स्वभाव लगते हैं।
00:11:04.080 --> 00:11:12.936
तेरी उसमें कर्ताबुद्धि पड़ी है। आहाहा!
उसके लिए तो दिल्ली बहुत दूर है।
00:11:12.960 --> 00:11:19.256
लेकिन यहाँ तो कहते हैं कि मोक्ष की पर्याय,
उसमें जीव का लक्षण दिखता नहीं है।
00:11:19.280 --> 00:11:25.256
क्योंकि जीव अनादि-अनंत है।
मोक्ष की पर्याय एक समय की, सादि-सांत,
00:11:25.280 --> 00:11:32.416
एक अपेक्षा से सादि-अनंत लेकिन दूसरी अपेक्षा से
समयवर्ती है इसलिए सादि-सांत प्रगट होती है
00:11:32.440 --> 00:11:36.056
अर्थात् उत्पाद-व्यय, उत्पाद-व्यय, उत्पाद-व्यय
वह हुआ ही करता है। आहाहा!
00:11:36.080 --> 00:11:42.696
उपजता और विनशता है वह मोक्ष, लेकिन भगवान आत्मा
उत्पन्न भी नहीं होता और मरता भी नहीं है।
00:11:42.720 --> 00:11:49.576
किसी संयोग से जिसकी उत्पत्ति नहीं है तो
किसी वियोग से भी उसका नाश नहीं होता।
00:11:49.600 --> 00:11:56.616
ऐसा अंतरंग में प्रगट भगवान आत्मा,
आहाहा! जैसे यह प्रतिमा अभी प्रगट है न?
00:11:56.640 --> 00:12:02.336
प्रतिमाजी प्रगट है। ऐसे यह चैतन्य
प्रतिमा अंदर प्रगट है,
00:12:02.360 --> 00:12:09.656
चौबीसों घंटे, वह दर्शन देने का काम
करता है लेकिन वह दर्शन लेता नहीं।
00:12:09.680 --> 00:12:18.136
ऐसे, ऐसे, ऐसे (बाहर में) नज़र करता है, ऐसा,
ऐसा। आहाहा! 'अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म',
00:12:18.160 --> 00:12:23.736
मोक्षतत्त्व सूक्ष्म है,
अतिसूक्ष्म नहीं है, सर्वथा सूक्ष्म नहीं है।
00:12:23.760 --> 00:12:29.656
मोक्षतत्त्व कथंचित् सूक्ष्म है और
जीवतत्त्व सर्वथा सूक्ष्म है।
00:12:29.680 --> 00:12:37.216
बोलो ! नवतत्त्व का अभ्यास
हो तो मज़ा आता है। आहाहा!
00:12:37.240 --> 00:12:45.256
'अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के
अवलंबन के बल से',
00:12:45.280 --> 00:12:49.136
जब भावेन्द्रिय ऐसे खंड-खंड
द्रव्येन्द्रिय का अवलंबन लेता था,
00:12:49.160 --> 00:12:54.856
वह द्रव्येन्द्रिय का लक्ष्य छोड़कर अंदर में
जाता है और भगवान आत्मा का अनुभव करता है,
00:12:54.880 --> 00:13:02.976
तब ये द्रव्येन्द्रियाँ मेरे से सर्वथा
भिन्न हैं ऐसा ज्ञात होता है। जानने में आ जाता है, सर्वथा भिन्न।
00:13:03.000 --> 00:13:07.256
उन इन्द्रियों को निकालकर अलोक में
भेजने की बात नहीं है।
00:13:07.280 --> 00:13:12.415
द्रव्येन्द्रिय को उनके स्थान में
रहने दे तू। द्रव्येन्द्रिय आँख,
00:13:12.439 --> 00:13:15.416
कान, नाक,
वे सब उनके स्थान में रहेंगे।
00:13:15.440 --> 00:13:20.136
लेकिन उनका जो लक्ष्य करके प्रवृति थी,
उनका लक्ष्य छोड़ देता है
00:13:20.160 --> 00:13:25.856
और चेतन स्वभाव का अवलंबन
लेने पर... द्रव्येन्द्रिय में आत्मबुद्धि थी,
00:13:25.880 --> 00:13:30.096
द्रव्येन्द्रिय को अपना मानता था।
आँख मेरी है, कान मेरा है, आहाहा!
00:13:30.120 --> 00:13:35.696
कान तेरा नहीं है, आँख तेरी नहीं है,
उसका स्वामी पुद्गल है। तू उसका धनी नहीं है।
00:13:35.720 --> 00:13:40.936
आहाहा! वे ज्ञान के निमित्त नहीं हैं,
00:13:40.960 --> 00:13:47.456
वे अज्ञान के निमित्त हैं,
नैमित्तिक भाव के निमित्त हैं।
00:13:47.480 --> 00:13:52.576
ज्ञान चेतना के निमित्त भी नहीं हैं।
वे कर्म चेतना के निमित्त हैं।
00:13:52.600 --> 00:13:58.536
जैसे राग को कर्म चेतना कहते हैं ऐसे ही
भावेन्द्रियां भी कर्मचेतना हैं।
00:13:58.560 --> 00:14:02.936
जैसे राग असद्भूतव्यवहारनय का
विषय है ऐसे भावेन्द्रिय भी
00:14:02.960 --> 00:14:07.976
असद्भूत व्यवहारनय का विषय है।
द्रव्य संग्रह में लिया है यह। आहाहा!
00:14:08.000 --> 00:14:15.656
'अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलंबन के
बल से सर्वथा अपने से अलग किया;'
00:14:15.680 --> 00:14:18.096
ये सर्वथा भिन्न हैं
ऐसा भान होता है।
00:14:18.120 --> 00:14:24.656
ये कान, आँख और नाक मेरे
भगवान आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं,
00:14:24.680 --> 00:14:28.896
भिन्न हैं इन्द्रियां। ऐसा उसे
अनुभव के काल में ज्ञान होता है।
00:14:28.920 --> 00:14:33.456
किन्तु कथंचित् भिन्न और कथंचित्
अभिन्न या सर्वथा भिन्न?
00:14:33.480 --> 00:14:37.696
कि सर्वथा जैनमत में होता है?
जैनमत में ही सर्वथा होता है।
00:14:37.720 --> 00:14:43.136
क्योंकि सर्वथा अभिन्न मान रखा है उसके प्रतिपक्ष
सर्वथा भिन्न कहें तब ही अनुभव होता है।
00:14:43.160 --> 00:14:52.096
न्याय समझ में आता है? आहाहा! देह और
आत्मा को सर्वथा अभिन्न मानता है,
00:14:52.120 --> 00:14:58.936
इन्द्रिय और आत्मा को सर्वथा अभिन्न मानकर
बैठा है। उसे कहते हैं कि सर्वथा भिन्न है वह।
00:14:58.960 --> 00:15:06.056
सर्वथा भिन्न है- ऐसा अनुभव में, ज्ञान में
जानने में आता है। शास्त्र में है इतना मात्र नहीं।
00:15:06.080 --> 00:15:13.976
लेकिन जैसा शास्त्र में है ऐसा अनुभव होता है।
जैसा शास्त्र में है, ऐसा यहाँ अनुभव होता है।
00:15:14.000 --> 00:15:16.816
द्रव्येन्द्रिय हो भले लेकिन
ममता छूट गई है।
00:15:16.840 --> 00:15:21.216
द्रव्येन्द्रिय मेरी(ऐसा नहीं रहा), मेरापना छूट गया
और द्रव्येन्द्रिय रह गई।
00:15:21.240 --> 00:15:28.056
मेरापना छूट गया और द्रव्येन्द्रिय तो
उसके स्थान में है- पुद्गल, ज्ञेय है। आहाहा!
00:15:28.080 --> 00:15:32.576
उसे कहाँ टालना है हमें ? वह उसके
स्थान में (और) मैं अपने स्थान में हूँ।
00:15:32.600 --> 00:15:39.096
उस द्रव्येन्द्रिय को सर्वथा अपने से भिन्न करके।
सर्वथा… तीनों में सर्वथा आयेगा, हों!
00:15:39.120 --> 00:15:46.176
आहाहा! तीनों में सर्वथा आयेगा।
क्योंकि जैनदर्शन तो स्याद्वादरूप है।
00:15:46.200 --> 00:15:54.656
भगवान आत्मा में स्याद्वाद का अभाव है। सुन !
और आत्मज्ञान में स्याद्वाद का सद्भाव है।
00:15:54.680 --> 00:16:02.616
आत्मज्ञान होता है उसे स्याद्वाद होता है,
मिथ्यादृष्टि को स्याद्वाद नहीं होता। आहाहा!
00:16:02.640 --> 00:16:08.736
अपने से भिन्न करके सर्वथा,
द्रव्येन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय अर्थात्
00:16:08.760 --> 00:16:15.616
आँख, कान, नाक पुद्गल की रचना है वह।
भावेन्द्रिय का निमित्त है वह।
00:16:15.640 --> 00:16:20.236
अज्ञान का निमित्त है वह।
खंड ज्ञान का निमित्त है वह। आहाहा!
00:16:20.260 --> 00:16:26.256
ज्ञान का निमित्त नहीं है यह।
इसके अवलंबन से ज्ञान प्रगट नहीं होता।
00:16:26.280 --> 00:16:30.976
वह तो आत्मा का अवलंबन ले,
चैतन्य स्वभाव (का), तो ज्ञान प्रगट होता है।
00:16:31.000 --> 00:16:37.536
एक बात हो गई, अब दूसरी बात सूक्ष्म है।
उससे ज़्यादा सूक्ष्म (बात) आती है। आहाहा!
00:16:37.560 --> 00:16:45.016
जिसको पूरा जगत ज्ञान मान बैठा है।
जिसको पूरा विश्व, हों! जैन-जैनेतर सब।
00:16:45.040 --> 00:16:50.656
जो क्षयोपशम ज्ञान का उघाड़ है न,
आँखों से देखना, कान से सुनना,
00:16:50.680 --> 00:16:56.016
जीभ से चखना, यहाँ से (गाल से) स्पर्श
करना ये सब जो ज्ञान होता है न? ज्ञान,
00:16:56.040 --> 00:17:02.376
वह ज्ञान होता है कि ज्ञेय होता है?
उसका नाम ज्ञान है या उसका नाम ज्ञेय है?
00:17:02.400 --> 00:17:09.456
मोहराजा ने उसका नाम ज्ञान रखा है।
शास्त्रज्ञान....शास्त्र का ज्ञान हुआ,
00:17:09.480 --> 00:17:17.056
शास्त्र का ज्ञान हुआ तो मोहराजा कहता है
ज्ञान हुआ, सर्वज्ञ भगवान कहते हैं ज्ञेय हुआ।
00:17:17.080 --> 00:17:22.016
ज्ञान प्रगट ही नहीं होता
शास्त्र के लक्ष्य से। हाय, हाय!
00:17:22.040 --> 00:17:25.576
तो फिर देव, गुरु, शास्त्र की
पूजा करते हैं न? कि भाई!
00:17:25.600 --> 00:17:31.536
उसका लक्ष्य छोड़कर जब आत्मा का भान होता है,
तब शास्त्र को निमित्त कहने में आता है।
00:17:31.560 --> 00:17:35.336
वह भी भूत नैगमनय से निमित्त कहलाता है।
00:17:35.360 --> 00:17:39.776
वर्तमान में भी जब तक शास्त्र का
लक्ष्य है तब तक आत्मा का लक्ष्य नहीं होता।
00:17:39.800 --> 00:17:44.736
उसका लक्ष्य छोड़े, उपयोग
अंदर में आये, तो अनुभव होता है,
00:17:44.760 --> 00:17:52.136
तो पूर्व में शास्त्र था, उसमें शास्त्र में
ऐसा लिखा था कि भावेन्द्रिय से आत्मा भिन्न है-
00:17:52.160 --> 00:17:57.816
ऐसे भिन्न आत्मा को जाना, तब उसमें
लिखा था उसीप्रकार से स्वयं परिणम गया
00:17:57.840 --> 00:18:05.096
तब उस शास्त्र को निमित्त
कहने में आता है। आहाहा!
00:18:05.120 --> 00:18:11.976
निमित्त के लक्ष्य से- उसका नाम निमित्त नहीं है।
निमित्त के लक्ष्य से- उसका नाम निमित्त नहीं है।
00:18:12.000 --> 00:18:17.856
निमित्त का लक्ष्य छूटे और अनुभव
हो, तो पूर्वकाल में शास्त्र के ऊपर लक्ष्य था,
00:18:17.880 --> 00:18:21.936
उसमें लेख था, ३१ वीं गाथा में
कि भावेन्द्रिय को जीतना।
00:18:21.960 --> 00:18:26.156
उस भावेइन्द्रिय को जीता, तो
उस शास्त्र को भी वंदन करता हूँ।
00:18:26.180 --> 00:18:30.376
द्रव्यश्रुत को मैं नमस्कार करता हूँ,
द्रव्यश्रुत ने मेरे स्वरूप को बताया है। आहाहा!
00:18:30.400 --> 00:18:38.576
' भिन्न-भिन्न', भावेन्द्रिय
खंडज्ञान की बात चलती है।
00:18:38.600 --> 00:18:43.456
पाँच इन्द्रियों से जो ज्ञान में व्यापार
चलता है न वह ज्ञान नहीं है किंतु ज्ञेय है।
00:18:43.480 --> 00:18:49.896
ज्ञेय- परज्ञेय है, वह हेयरूप ज्ञेय है।
वह ज्ञेय प्रगट करने योग्य भी नहीं है।
00:18:49.920 --> 00:18:57.616
कि भाई! आश्रय करने के लिये तो कोई बात नहीं, लेकिन प्रगट
करने योग्य तो है कि नहीं इन्द्रियज्ञान?
00:18:57.640 --> 00:19:06.656
प्रगट करने योग्य भी उपादेय नहीं है। आहाहा!
यह प्रारंभिक बात है, हों ! शुरूआत।
00:19:06.680 --> 00:19:11.736
यह कोई ऊंची प्रकार की बात नहीं है।
अनंतकाल से अज्ञान है।
00:19:11.760 --> 00:19:15.216
इन्द्रियज्ञान को ज्ञान माना है
उसका नाम अज्ञान।
00:19:15.240 --> 00:19:18.656
अज्ञान किसका नाम है? अज्ञान के
ऐसे सींग उगते होंगे ?
00:19:18.680 --> 00:19:24.256
यह जो उघाड़ है और उस उघाड़ द्वारा
ज्ञेय से ज्ञेयांतर, ज्ञेय से ज्ञेयांतर,
00:19:24.280 --> 00:19:31.536
जो खंड-खंडज्ञान ऐसे घूमरी खाता है, स्थिर होता
नहीं है। ज्ञेय के आश्रय से ज्ञान सिद्ध होता ही नहीं।
00:19:31.560 --> 00:19:37.736
एक ज्ञेय को जानने की इच्छा होती है, वहाँ
तृप्ति नहीं हुई तो तुरंत ज्ञेय बदलेगा।
00:19:37.760 --> 00:19:43.376
कौन बदलता है? ज्ञान ज्ञेय नहीं बदलता।
इन्द्रियज्ञान ज्ञेय- ज्ञेय को बदलता है।
00:19:43.400 --> 00:19:49.456
इन्द्रियज्ञान स्वयं ज्ञेय है,
उस ज्ञेय के संबंध से ज्ञान होता है
उसका नाम ज्ञेय है, ज्ञान नहीं।
00:19:49.480 --> 00:19:54.536
ज्ञेय के संबंध से, ज्ञेय के संग से
जो ज्ञान की प्रवृत्ति होती है
00:19:54.560 --> 00:20:02.576
उसे परमात्मा ज्ञेय का भाव कहते हैं।
एक भावक का भाव और एक ज्ञेय का भाव, आहाहा!
00:20:02.600 --> 00:20:06.496
भावक का भाव किसको कहते हैं?
कि राग को भावक का भाव कहते हैं।
00:20:06.520 --> 00:20:13.176
राग है वह कर्म के लक्ष्य से होता है।
इसलिए उसे भावक का भाव (कहते हैं),
00:20:13.200 --> 00:20:19.576
ज्ञायक का भाव नहीं है राग। भावक का
भाव है, भावक अर्थात् द्रव्यकर्म।
00:20:19.600 --> 00:20:25.336
उसके संग से जो रागादि उत्पन्न होते हैं,
जिसके संग से उत्पन्न हुए
00:20:25.360 --> 00:20:31.456
उसे भावक का भाव कहने में आता है, उससे
आत्मा भिन्न है। उससे आत्मा भिन्न है।
00:20:31.480 --> 00:20:38.616
उससे भी ज़्यादा यहाँ तो सूक्ष्म कहना है।
कि जो इन्द्रियज्ञान है वह ज्ञेय है
00:20:38.640 --> 00:20:45.016
और ज्ञेय के संग से वह ज्ञेय प्रगट होता है।
ज्ञेय अर्थात् पाँच इन्द्रियों के जो विषय हैं
00:20:45.040 --> 00:20:49.376
वे ज्ञेय हैं, परज्ञेय हैं।
उनको प्रसिद्ध करता है,
00:20:49.400 --> 00:20:54.696
जो ज्ञान उनको प्रसिद्ध करता है वह
ज्ञेय का भाव है, वह ज्ञायक का भाव नहीं है।
00:20:54.720 --> 00:20:59.656
ज्ञायक की जाति उसमें नहीं है।
ज्ञायक के उसमें लक्षण नहीं हैं।
00:20:59.680 --> 00:21:10.296
जैसे राग आत्मा को प्रसिद्ध नहीं कर
सकता, ऐसे इन्द्रियज्ञान द्वारा
भी आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता। आहाहा!
00:21:10.320 --> 00:21:16.976
अनुभव से धर्म की शुरूआत होती है, हों!
दूसरे किसी क्रियाकांड से धर्म की शुरूआत नहीं होती।
00:21:17.000 --> 00:21:20.856
आहाहा! दुष्कर लगे,
कठिन लगे, लेकिन हो क्या?
00:21:20.880 --> 00:21:29.376
गुरुदेव कहते थे कि समाज में भाग पड़ें
तो भले पड़ जाएं लेकिन तू सत्य बात कहना। आहाहा!
00:21:29.400 --> 00:21:37.376
भले भाग पड़ जाएं एकबार, पड़ने देना,
लेकिन तुझे जो, तुझे आत्मा का ज्ञान हुआ हो
00:21:37.400 --> 00:21:43.696
अथवा तुझे आत्मा का भान हुआ हो,
तो जैसा आत्मा है, सर्वज्ञ भगवान ने
कहा है वैसा ही कहना,
00:21:43.720 --> 00:21:49.436
आहाहा! दूसरों को दुःख लगेगा, बुरा लगेगा,
तो "माफ करना" (इसप्रकार) माफी माँग लेना,
00:21:49.460 --> 00:21:55.496
दूसरा क्या हो आखिर ? कि भाई, तुझे अच्छी न लगे
और कोई दुःख लगा हो
तो मैं माफी माँगता हूँ।
00:21:55.520 --> 00:21:59.336
बाकी हमारे पास से और कुछ
आशा मत रखना।
00:21:59.360 --> 00:22:06.096
ब्रह्मचर्य का अधिकार चला एक बार, भावलिंगी
संत ने (लिखा)। फिर ब्रह्मचर्य का अधिकार ऐसा कहा,
00:22:06.120 --> 00:22:10.416
ऐसा (स्पष्ट) वर्णन किया (कि उसे सुनकर)
जवानों को लगा बुरा।
00:22:10.440 --> 00:22:15.536
बाद में अंत में कहा कि जवानों! तुम्हें
कोई दुःख हुआ हो तो माफ करना,
00:22:15.560 --> 00:22:19.716
लेकिन हमारे से दूसरी कोई आशा
रखना नहीं। हम तो ब्रह्मचारी हैं।
00:22:19.740 --> 00:22:26.336
हम ब्रह्मचर्य की ही बात करेंगे। आहाहा!
ऐसे ही सत्य का उपदेश देने पर
00:22:26.360 --> 00:22:32.416
किसी को दुःख लगे तो भले लगे लेकिन
सत्य को छुपाने जैसा नहीं है।
00:22:32.440 --> 00:22:37.616
यहाँ कहते हैं कि खंडज्ञान भावेन्द्रिय
वह ज्ञेय का भाव है, ज्ञायक का भाव नहीं है।
00:22:37.640 --> 00:22:45.216
वे जीव के परिणाम नहीं हैं, (किंतु) ज्ञेय के
परिणाम हैं। ज्ञायक की जाति उसमें नहीं है।
00:22:45.240 --> 00:22:52.176
ज्ञानचेतना नहीं है। उसके साथ आनंद नहीं हैं।
उसके साथ आकुलता है।
00:22:52.200 --> 00:22:56.176
इन्द्रियज्ञान में लक्षण,
आकुलता लक्षण है उसका। आहाहा!
00:22:56.200 --> 00:23:05.136
आकुलता लक्षण है इसलिए हेय है।
आहाहा! ये पंडित बैठे हैं। अरे भाई!
00:23:05.160 --> 00:23:11.736
इन्द्रियज्ञान से जब तक भेदज्ञान नहीं करेगा
तब तक अतीन्द्रियज्ञान प्रगट नहीं होगा।
00:23:11.760 --> 00:23:15.576
अतीन्द्रियज्ञान का घात करता है इन्द्रियज्ञान।
00:23:15.600 --> 00:23:23.696
जिस प्रकार राग की उत्पत्ति होने पर वीतरागभाव का
घात करता है, घातक। वीतरागभाव का घात करता है।
00:23:23.720 --> 00:23:29.416
उसी प्रकार इन्द्रियज्ञान जब तक प्रगट होता है
तब तक अतीन्द्रियज्ञान प्रगट ही नहीं होता।
00:23:29.440 --> 00:23:35.856
अतीन्द्रियज्ञान प्रगट नहीं होता तब तक
आत्मा का साक्षात्कार, अनुभव नहीं होता।
00:23:35.880 --> 00:23:48.976
आहाहा! 'भिन्न भिन्न अपने अपने विषयों में',
भावेन्द्रिय के पाँच प्रकार हैं न?
00:23:49.000 --> 00:23:55.896
स्पर्शेन्द्रिय का विषय अलग, चक्षुन्द्रिय का
विषय अलग, कर्णेन्द्रिय का विषय अलग।
00:23:55.920 --> 00:24:01.656
ऐसे भिन्न भिन्न इन्द्रियां हैं पाँच, तो
पाँच इन्द्रियों के विषय भी अलग हैं।
00:24:01.680 --> 00:24:08.056
आँख द्वारा स्पर्श का अनुभव नहीं होता,
स्पर्श इन्द्रिय द्वारा कोई जानने में नहीं आता।
00:24:08.080 --> 00:24:15.816
प्रत्येक के विषय, पाँच इन्द्रियों के अलग अलग हैं।
पाँच इन्द्रियाँ अलग हैं।
उनके विषय भी अलग-अलग हैं।
00:24:15.840 --> 00:24:22.816
'भिन्न भिन्न अपने-अपने विषयों में'
अर्थात् कि ज्ञेयो में,
00:24:22.840 --> 00:24:32.016
विषयों अर्थात् ज्ञेयों में 'व्यापारभाव से'
व्यापार, एक लब्ध है और एक व्यापार है।
00:24:32.040 --> 00:24:38.816
इन्द्रियज्ञान के दो भेद पड़ते हैं। एक
इन्द्रिय का व्यापार जब चलता हो
00:24:38.840 --> 00:24:43.016
तब चार इंद्रियाँ लब्धरूप होती हैं,
व्यापाररूप नहीं होती।
00:24:43.040 --> 00:24:46.736
लब्ध होने पर भी उत्पाद-व्ययरूप हैं,
कूटस्थ नहीं हैं।
00:24:46.760 --> 00:24:53.296
लेकिन पाँच इन्द्रियों में से एक
इन्द्रिय का जो व्यापार होता है,
00:24:53.320 --> 00:24:57.456
गुरुदेव की वाणी हम सुन रहे हों (कान से), (तो)
जब सुनने का उपयोग है
00:24:57.480 --> 00:24:59.741
तब हम गुरुदेव को देखते नहीं हैं।
00:24:59.765 --> 00:25:04.016
भ्रांति होती है कि देखने और सुनने का
काम एक समय में होता है।
00:25:04.040 --> 00:25:07.696
एक समय में काम नहीं होता। आहाहा!
00:25:07.720 --> 00:25:13.176
क्रमिक है। इन्द्रियज्ञान क्रमिक है,
अतीन्द्रियज्ञान अक्रम से जानता है।
00:25:13.200 --> 00:25:21.336
ऐसा लगता है हमें कि हम गुरुदेव को
सुनते भी हैं और देखते भी हैं।
00:25:21.360 --> 00:25:23.266
नहीं, दो में से एक ही उपयोग होता है।
00:25:23.290 --> 00:25:27.496
जहाँ यह (कान का) उपयोग बंद होता है
वहाँ यह (आँख का) उपयोग चालू होता है।
00:25:27.520 --> 00:25:29.976
यह (आँख का) उपयोग बंद होता है,
वहाँ यह (कान का) उपयोग चालू होता है।
00:25:30.000 --> 00:25:35.296
इतनी शीघ्रता से, एक का उपयोग उपयोगात्मक,
दूसरा लब्धरूप हो जाता है।
00:25:35.320 --> 00:25:37.456
वापस (जो) लब्धरूप है, वह उपयोगरूप हो जाता है।
00:25:37.480 --> 00:25:41.816
ऐसे क्रम-क्रम क्रम से इन्द्रियज्ञान
उसका काम करता है।
00:25:41.840 --> 00:25:50.356
जैसे 'अपने-अपने विषयों में' अर्थात्
ज्ञेयों में 'व्यापारभाव से जो' अर्थात्
00:25:50.380 --> 00:25:54.116
भावेन्द्रिय खंडज्ञान-इन्द्रियज्ञान,
00:25:54.140 --> 00:25:58.096
अतीन्द्रियज्ञान अलग
और इन्द्रियज्ञान अलग है।
00:25:58.120 --> 00:26:06.456
आहाहा!'व्यापारभाव से जो' अर्थात्
भावेन्द्रिय 'विषयों को' अर्थात् ज्ञेयों को
00:26:06.481 --> 00:26:11.976
'विषयों को' अर्थात ज्ञेयों को, ये सब ज्ञेय
हैं भिन्न भिन्न, आहाहा! परज्ञेय हैं।
00:26:12.000 --> 00:26:18.296
उन विषयों को, ज्ञेय अर्थात् ज्ञान में
जानने योग्य पदार्थ, उन्हें ज्ञेय कहा जाता है,
00:26:18.320 --> 00:26:23.936
और जाननेवाले को ज्ञान कहते हैं।
तो यहाँ भावेन्द्रिय जो खंडज्ञान है
00:26:23.960 --> 00:26:28.776
उसमें जो जानने की क्रिया परसन्मुख
होती है, उसमें वह जानने में आता है।
00:26:28.800 --> 00:26:34.696
'विषयों को खंडखंड ग्रहण करती हैं' , ग्रहण
करती हैं अर्थात् पकड़ती हैं- ऐसा नहीं, जानती हैं।
00:26:34.720 --> 00:26:41.536
खंडखंड ज्ञान, जैसे कि, उदाहरण के लिए:- मुझे
अलमारी जानने में आती है, फिर मुझे पंखा जानने में आता है।
00:26:41.560 --> 00:26:47.576
तो अब वह जो ज्ञान है, ज्ञान तो अखंड है,
उस अखंड को खंड बनाया उसने।
00:26:47.600 --> 00:26:56.096
जैसे पाँच इन्द्रियों के विषय क्रम-क्रम से
ज्ञात होते हैं, उसमें ज्ञान खंड-खंड हो जाता है।
00:26:56.120 --> 00:27:04.456
ज्ञेय के संबंध से जो ज्ञान प्रगट होता है
इन्द्रियज्ञान, वह सामान्यज्ञान को
तिरोभूत कर डालता है।
00:27:04.480 --> 00:27:07.656
विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान का
आविर्भाव- अज्ञान बनाता है।
00:27:07.680 --> 00:27:16.096
शास्त्र के शब्द भले आयें लेकिन
समझ में आये ऐसा है, न समझ में आये, ऐसा नहीं है।
00:27:16.120 --> 00:27:19.936
ज्ञेयाकार ज्ञान क्या? और सामान्य ज्ञान क्या?
00:27:19.960 --> 00:27:26.376
जैसे कि यह पदार्थ है उसके सामने नजर की,
तो उसे ज्ञेयाकार ज्ञान कहते हैं।
00:27:26.400 --> 00:27:31.176
ज्ञेय के संग वाला ज्ञान
अर्थात् अज्ञान। ज्ञान मतलब?
00:27:31.200 --> 00:27:36.616
ज्ञेय के संग वाला जो ज्ञान प्रगट होता है,
भावेन्द्रिय वह अज्ञान है।
00:27:36.640 --> 00:27:41.656
उस ज्ञेयाकार ज्ञान का जब आविर्भाव
होता है, तब यह(पदार्थ) जानने में आता है
00:27:41.680 --> 00:27:47.136
तब भगवान आत्मा जानने में नहीं आता,
तो सामान्य ज्ञान का तिरोभाव होता है।
00:27:47.160 --> 00:27:53.656
अनंतकाल से यह विपरीत धंधा करता है।
अनंत-अनंतकाल बीता, आहाहा!
00:27:53.680 --> 00:28:00.056
पर को जानने की रुचि पड़ी है कि मैं पर को
जाननेवाला हूँ। श्रद्धा विपरीत है! आहाहा!
00:28:00.080 --> 00:28:06.096
'रुचि अनुयायी वीर्य' श्रद्धा मानती है कि मैं
पर को जाननेवाला हूँ, तो उपयोग बाहर ही भटकता है,
00:28:06.120 --> 00:28:10.016
उपयोग अभिमुख होता नहीं।
क्यों सम्यग्दर्शन होता नहीं है?
00:28:10.040 --> 00:28:16.816
ऐसा प्रश्न उठता है। कहाँ से हो?
जो ज्ञेय है उसे तूने ज्ञान माना।
00:28:16.840 --> 00:28:21.576
और जो आत्मा है उसे तू जानता नहीं।
उसे तो छोड़ दिया।
00:28:21.600 --> 00:28:24.936
और ऐसे, ऐसे, ऐसे (बाहर का)
चौबीसों घंटे जानता रहता है। आहाहा!
00:28:24.960 --> 00:28:33.816
कहते हैं कि
अपने-अपने विषयों में व्यापारभाव से
जो विषयों को खंड खंड ग्रहण करती हैं',
00:28:33.840 --> 00:28:38.376
अर्थात् ज्ञान खंड-खंड
दिखाई देता है। ज्ञान अखंड है।
00:28:38.400 --> 00:28:44.416
ज्ञेय के संग से ज्ञान खंड(खंड) है-
ऐसा उसे भासित होता है। आहाहा!
00:28:44.440 --> 00:28:55.176
ज्ञान एकाकार है, ज्ञेय अनेक हैं। तो अनेक
ज्ञेयों के संग से ज्ञान भी अनेकाकार लगता है।
00:28:55.200 --> 00:29:00.136
है एकाकार ज्ञान।
एकाकार ज्ञान है वह अतीन्द्रियज्ञान है।
00:29:00.160 --> 00:29:05.096
अनेकाकार ज्ञान वह इन्द्रियज्ञान है,
उसका निषेध कर। आहाहा!
00:29:05.120 --> 00:29:10.616
ज्ञेयाकार ज्ञान का आविर्भाव करता है,
यह जानने में आता है, यह जानने में आता है, यह जानने में आता है,
00:29:10.640 --> 00:29:16.216
ऐसा करके उसका जो
सामान्यज्ञान है, उसे तिरोभूत करता है
00:29:16.240 --> 00:29:20.976
इसलिए आत्मज्ञान प्रगट नहीं होता।
अज्ञान प्रगट होता है, ज्ञेय के संग से।
00:29:21.000 --> 00:29:25.160
आहाहा! ज्ञेयलुब्ध है, ज्ञेय में आसक्त है।
00:29:25.184 --> 00:29:29.656
ज्ञेय को जानने की अभिलाषा करता है
चौबीसों घंटे।
00:29:29.680 --> 00:29:36.136
जैसे सब्जी का दृष्टांत दिया,
कि अनेक प्रकार की सब्जी हों,
00:29:36.160 --> 00:29:40.696
उनमें नमक डालने में आये तो
यह सब्जी खारी है, यह सब्जी खारी है।
00:29:40.720 --> 00:29:47.256
सब्जी खारी है या नमक खारा (है)? नमक को
सब्जी से भिन्न करके स्वाद नहीं लेता है।
00:29:47.280 --> 00:29:52.056
सब्जी द्वारा भी नमक का स्वाद लेता है।
लौकी में डाला हो,
00:29:52.080 --> 00:29:57.056
करेले में डाला हो, तो भी वह
नमक का स्वाद लेता है, सभी जीव।
00:29:57.080 --> 00:30:01.136
लेकिन उसे ऐसा लगता है कि इस सब्जी
का मैं स्वाद लेता हूँ, सब्जी खारी है।
00:30:01.160 --> 00:30:05.816
सब्जी खारी नहीं है, नमक खारा है।
लेकिन वह नमक को उसके संग से देखता है,
00:30:05.840 --> 00:30:12.776
पर उसका व्यवच्छेद करके नमक को, अकेले
नमक को देखे तो नमक खारा है,
सब्जी खारी नहीं है।
00:30:12.800 --> 00:30:18.136
ऐसे ही ज्ञान को परज्ञेय से जानता है
इसलिए मुझे यह जानने में आता है,
00:30:18.160 --> 00:30:22.336
उस ज्ञेय का संबंध छोड़कर यह ऐसा कहे (कि) मुझे
पर जानने में नहीं आता, जाननहार जानने में आता है।
00:30:22.360 --> 00:30:29.496
उस समय ज्ञेयाकार ज्ञान का तिरोभाव होकर
सामान्य ज्ञान का आविर्भाव होगा और
परमात्मा के दर्शन होते हैं।
00:30:29.520 --> 00:30:39.056
आत्मा के अनुभव के बिना कोई क्रिया
चाहे जितनी लाख, करोड़ क्रिया करे, (तो उससे) शुभभाव होता है।
00:30:39.080 --> 00:30:44.616
स्वर्ग में दुःखी होने के लिये जाये। दुःखी
होने के लिये (जाये), स्वर्ग में कोई सुख नहीं है।
00:30:44.640 --> 00:30:49.416
स्वर्ग के क्षेत्र में सुख है या
आत्मा के क्षेत्र में सुख है?
00:30:49.440 --> 00:30:54.816
स्वर्ग में जायें तो ठीक,
स्वर्ग में जायें तो (ठीक)। आहाहा!
00:30:54.840 --> 00:31:00.936
अरे! अरे! परक्षेत्र की भावना करता है,
स्वक्षेत्र को भूल जाता है।
00:31:00.960 --> 00:31:03.296
स्वक्षेत्र में परक्षेत्र की नास्ति है।
00:31:03.320 --> 00:31:08.656
वहाँ जायेगा तो भी स्वर्ग के क्षेत्र की
इस क्षेत्र में नास्ति (है)।
00:31:08.680 --> 00:31:11.376
अभी यहाँ है तब
इस क्षेत्र की भी (नास्ति है)।
00:31:11.400 --> 00:31:17.416
द्रव्य में भिन्न द्रव्य, क्षेत्र,
काल, भाव की स्वचतुष्टय में तद्दन नास्ति है।
00:31:17.440 --> 00:31:25.336
आहाहा! उसकी बात तो दूर रहो
लेकिन यहाँ तो अंदर भावेन्द्रिय जो प्रगट
होती है उसे जीतने की बात है।
00:31:25.360 --> 00:31:29.456
वह इन्द्रियज्ञान द्वारा जीता जा रहा है,
अज्ञान हो गया है।
00:31:29.480 --> 00:31:32.376
अब इन्द्रियज्ञान को छेदो
तो आत्मज्ञान हो।
00:31:32.400 --> 00:31:38.896
आहाहा! दो प्रकार हैं। एक राग को जीतने का
और एक इन्द्रियज्ञान को जीतने का।
00:31:38.920 --> 00:31:41.896
इन्द्रियज्ञान को जीतने से
मोह पर जीत हो जाती है।
00:31:41.920 --> 00:31:48.296
इन्द्रियज्ञान से ही मोह की उत्पत्ति होती है।
इन्द्रियज्ञान से ही ममता प्रगट होती है।
00:31:48.320 --> 00:31:55.476
इन्द्रियज्ञान को जीतकर जहाँ आत्मा का भान
हुआ, वहाँ मोह का क्षय हो जाता है। आहाहा!
00:31:55.500 --> 00:31:59.636
थोड़ा राग रहता है, वह बाद में स्वरूप में
लीन होने पर क्षय को प्राप्त होता है।
00:31:59.760 --> 00:32:05.442
भावेन्द्रिय 'अपने अपने विषयों में
व्यापारभाव से जो विषयों को
खंड खंड ग्रहण करती हैं '
00:32:05.466 --> 00:32:08.376
अर्थात् '(ज्ञान को खंडखंडरूप बतलाती हैं),'
00:32:08.400 --> 00:32:13.536
ज्ञेय के संग वाला जो ज्ञान है
वह खंडज्ञान है, अखंडज्ञान नहीं है।
00:32:13.560 --> 00:32:22.176
'ऐसी भावेन्द्रियों को,', ऐसी
भावेन्द्रियों को, पाँच इन्द्रिय को,
00:32:22.200 --> 00:32:34.256
उघाड़ को 'प्रतीति में आनेवाली'
श्रद्धा में आनेवाली, आहाहा! देखा!
श्रद्धा में आत्मा आता है अभी
00:32:34.280 --> 00:32:40.736
इस काल में, श्रद्धा का विषय है आत्मा
इसलिए आत्मा की श्रद्धा होती है।
00:32:40.760 --> 00:32:44.896
श्रद्धा का विषय विद्यमान है,
इसलिए श्रद्धा प्रगट (होती है)।
00:32:44.920 --> 00:32:50.176
श्रद्धा का विषय विद्यमान न हो तो
किसी को सम्यग्दर्शन हो नहीं सकता।
00:32:50.200 --> 00:32:59.096
अभी सोनगढ़ गया था मैं, वहाँ एक
भाई ने प्रश्न किया, मुमुक्षु भाई ने।
00:32:59.120 --> 00:33:08.056
कि यह एक भक्ति के, तात्विक वहाँ गए होंगे
भजन में, केसेट तो आजकल एकदम चलती है न?
00:33:08.080 --> 00:33:14.016
इस भजन में कहते हैं कि श्रेणी मांडेंगे कि मांडी,
मांडेंगे कि मांडी, श्रेणी आएगी,
00:33:14.040 --> 00:33:19.056
वे श्रेणी की बात क्यों करते हैं? वह श्रेणी
तो अभी है नहीं। बराबर है।
00:33:19.080 --> 00:33:26.536
श्रेणी अभी नहीं है, बात सही है।
लेकिन श्रेणी का कारण आचार्य भगवान के
हाथ में आ गया है।
00:33:26.560 --> 00:33:34.776
आचार्य भगवान को श्रेणी का कारण हाथ में आ
गया है, इसलिए श्रेणी आयेगी, आयेगी और आयेगी।
00:33:34.800 --> 00:33:38.416
फिर दृष्टांत दिया उसका। अब उसका
दृष्टांत दें तब समझ में आए ना?
00:33:38.440 --> 00:33:44.896
श्रेणी का कारण क्या है वह भी पता नहीं है। आहाहा!
कि देख भाई! सम्यग्दर्शन नहीं प्रगट हुआ,
00:33:44.920 --> 00:33:49.056
कोई बात नहीं। सम्यग्दर्शन तो होने के
काल में होगा, उसकी कोई चिंता नहीं।
00:33:49.080 --> 00:33:52.776
लेकिन सम्यग्दर्शन का विषय
विद्यमान है या नहीं?
00:33:52.800 --> 00:34:00.136
वह सम्यग्दर्शन का विषय जिसको ख्याल में आ
गया, उसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता होता और होता ही है।
00:34:00.160 --> 00:34:06.696
ऐसे ही श्रेणी किसको कहते हैं उसका ज्ञान
हो जाता है। श्रेणी आती नहीं है।
00:34:06.720 --> 00:34:12.056
श्रेणी का कारण आ जाता है यहाँ
(अंदर में)। श्रेणी कैसे प्रगट होती है?
00:34:12.080 --> 00:34:15.856
श्रेणी होने के पहले ही
श्रेणी का ज्ञान हो जाता है।
00:34:15.880 --> 00:34:26.616
श्रेणी तो उसके काल में (आयेगी) लेकिन
कारण का सेवन करने पर श्रेणी आती आती और आती ही है।
00:34:26.640 --> 00:34:34.896
पाँच गाथा हैं परमार्थ प्रतिक्रमण की,
नियमसार में। उन्हें 'रतन' ऐसी उपमा दी है।
00:34:34.920 --> 00:34:38.256
पूरे नियमसार में कहीं भी
'रत्न' शब्द प्रयोग नहीं किया है।
00:34:38.280 --> 00:34:44.856
तब आत्मा स्वयं.., कुंदकुंद भगवान
कहते हैं कि मैं अपनी भावना के लिये
इस शास्त्र की रचना करता हूँ।
00:34:44.880 --> 00:34:48.456
वे कहते हैं कि मैं ये चौदह
गुणस्थान, मार्गणास्थान,
00:34:48.480 --> 00:34:54.456
यह शुद्धोपयोग प्रगट होता है न मुझे,
शुद्धोपयोग मुझे प्रगट होता है, हों!
00:34:54.480 --> 00:35:02.416
और आनंद भी प्रगट है। लेकिन
उस शुद्धोपयोग का मैं कर्ता नहीं,
00:35:02.440 --> 00:35:06.176
कारयिता नहीं, कारण नहीं और अनुमोदक नहीं।
00:35:06.200 --> 00:35:13.576
लेकिन प्रभु! कर्ताबुद्धि तो चौथे गुणस्थान में
गई और (आप) अभी भी '(मैं) परिणाम का कर्ता नहीं हूँ'-
ऐसा किसलिये कहते हो?
00:35:13.600 --> 00:35:20.296
कि वह जो कर्ता का उपचार आता है
मेरे ऊपर, वह मुझे खटकता है।
00:35:20.320 --> 00:35:25.816
इसलिए अभी से मैं निषेध करता हूँ, तो शीघ्र ही मुझे
श्रेणी आ जायेगी और मोक्ष हो जायेगा।
00:35:25.840 --> 00:35:33.096
अभी से मैं निषेध करता जाता हूँ।
आहाहा! और दूसरों को मैं सिखाता हूँ
कि देखो, इस प्रकार से श्रेणी आती है।
00:35:33.120 --> 00:35:39.976
सम्यग्दर्शन तो साधारण है। श्रेणी में तो
अनंत पुरुषार्थ है। चारित्र, आहाहा!
00:35:40.000 --> 00:35:44.296
भले अभी श्रेणी नहीं आयी लेकिन
श्रेणी का कारण हमारे पास आ गया है।
00:35:44.320 --> 00:35:53.656
कि उपचार से जो निर्मल पर्याय का आत्मा
कर्ता है, ऐसा जो हमारे ऊपर आक्षेप आता है,
00:35:53.680 --> 00:36:00.216
आरोप आता है, उपचार आता है, वह हमें खटकता है।
आहाहा! क्योंकि हम तो अकारक, अवेदक हैं।
00:36:00.240 --> 00:36:06.896
और हम अपने को कहें कर्ता,
वह खटकता है इसलिए हमें
कर्ताबुद्धि तो गई थी
00:36:06.920 --> 00:36:11.096
लेकिन कर्ता के उपचार (का) अभी निषेध
करते हैं। अल्पकाल में श्रेणी आयेगी।
00:36:11.120 --> 00:36:15.736
कारण जिसके हाथ में आया और कारण का
सेवन करे, तो कार्य होता होता और होता ही है।
00:36:15.760 --> 00:36:20.376
ऐसे सम्यग्दर्शन भले नहीं हो लेकिन
सम्यग्दर्शन के कारण का जो सेवन करता है
00:36:20.400 --> 00:36:24.416
यथार्थरूप से, उसे सम्यग्दर्शन होता होता
और होता ही है। आहाहा!
00:36:24.440 --> 00:36:32.856
कारण की विपरीतता हो तो सम्यग्दर्शन (नहीं होता)।
जीवतत्त्व का जैसा स्वरूप है वैसा न जानकर
00:36:32.880 --> 00:36:38.896
यदि अन्यथा जानेगा तो बड़ी नींव की भूल है।
जीव की भूल (है) तो नवतत्त्व की भूल (है)
00:36:38.920 --> 00:36:42.976
और जीव का यथार्थ भान और ज्ञान हुआ
तो नवतत्त्व भी सच्चे हैं।
00:36:43.000 --> 00:36:50.256
इस प्रकार यहाँ कहते हैं कि प्रभु! एक बार
आत्मा की बात तो सुन।
00:36:50.280 --> 00:36:57.216
कि यह इन्द्रियज्ञान, वह तेरा परिणाम नहीं है।
वह ज्ञेय के संग से होता है इसलिए वह ज्ञेय है।
00:36:57.240 --> 00:37:04.456
हेयरूप ज्ञेय है। आहाहा! उससे तो भेदज्ञान
करना है। उससे अधिक अर्थात् भिन्न आत्मा है।
00:37:04.480 --> 00:37:09.936
जो जानने की क्रिया होती है ना
इन्द्रियज्ञान में, उससे आत्मा भिन्न- अधिक,
00:37:09.960 --> 00:37:13.776
अधिक अर्थात् अलग। ऐसे आत्मा को
तू जान। वही कहते हैं अब।
00:37:13.800 --> 00:37:21.536
'ऐसी भावेन्द्रियों को, प्रतीति में',
आहाहा! श्रद्धा में, उस श्रद्धा के विषय को
00:37:21.560 --> 00:37:29.496
विकल्प में तो श्रद्धा में स्थापित कर। तेरी
विकल्प की भूमिका में भावमन द्वारा भी
00:37:29.520 --> 00:37:35.056
श्रद्धा प्रगट होने से पहले, श्रद्धा के विषय को
स्थापित कर दे ना, श्रद्धा आ गई समझो।
00:37:35.080 --> 00:37:40.136
श्रद्धा आ गई समझो। चक्कर लगा रही है,
थोड़ी ही देर में श्रद्धा प्रगट होती है।
00:37:40.160 --> 00:37:46.176
श्रद्धा का विषय जिसको हाथ में आया,
उसे सम्यग्दर्शन हुये बिना रहता नहीं।
00:37:46.200 --> 00:37:48.936
उसके विषय की भूल है इसलिए
सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता।
00:37:48.960 --> 00:37:55.936
ध्येय की भूल है इसलिए ध्यान प्रगट नहीं होता।
ध्येय की भूल है इसलिए धर्मध्यान प्रगट नहीं होता।
00:37:55.960 --> 00:38:00.696
जिसे ध्येय लक्ष्य में आ गया यथार्थ रूप से,
सर्वज्ञ भगवान ने कहा,
00:38:00.720 --> 00:38:07.776
वीतराग देवाधिदेव ने कहा, संतों ने
अनुभव करके कहा कि यह धर्मध्यान का
और यह शुक्लध्यान का विषय है।
00:38:07.800 --> 00:38:14.136
उसे विषय हाथ में आने पर थोड़े ही काल में
'चिरम् अचिरम्' आहाहा!
00:38:14.160 --> 00:38:20.016
ज्यादा से ज़्यादा छह महीने में सम्यग्दर्शन होता है।
ज़्यादा से ज़्यादा, यदि हाथ में जीव तत्व आए तो।
00:38:20.040 --> 00:38:25.576
लेकिन (यदि) जीव की अन्यथा प्रतीति हो तो
लाख और करोड़ उपाय करे (तो भी)
00:38:25.600 --> 00:38:30.776
सम्यग्दर्शन और अनुभव नहीं होता।
ध्येय की भूल से ध्यान की भूल है।
00:38:30.800 --> 00:38:35.696
ध्यान तो सब करने बैठते हैं लेकिन ध्येय क्या है
उसकी कुछ खबर नहीं होती है। आहाहा!
00:38:35.720 --> 00:38:39.096
ध्येय किसको कहते हैं? आत्मा का स्वरूप क्या है?
कि राग को करे वह आत्मा,
00:38:39.120 --> 00:38:44.136
कर्म को बांधे वह आत्मा, कर्म के बंधवाला आत्मा,
देह के संयोगवाला आत्मा, आहाहा!
00:38:44.160 --> 00:38:50.376
पर को जाने वह आत्मा, राग को करे वह आत्मा,
दुःख को भोगे वह (आत्मा)।
ये आत्मा का स्वरूप ही नहीं है।
00:38:50.400 --> 00:38:56.096
आत्मा ने अनादि-अनंत आज तक दुःख को
भोगा नहीं है। वह आत्म तत्व है।
00:38:56.120 --> 00:39:00.416
अकारक और अवेदक है।
सामान्य तत्त्व दुःख को भोगता नहीं।
00:39:00.440 --> 00:39:10.016
(जो) भोगता है वह दूसरा, जानता है वह भिन्न। आहाहा!
जीवतत्त्व की भूल से भूल रह गई। आहाहा!
00:39:10.040 --> 00:39:16.336
प्रथम में प्रथम तू जीव को जान। आता है न?
रात को आया था न? आहाहा!
00:39:16.360 --> 00:39:26.696
उस जीवराजा को तू पहले जान। नवतत्त्व को जानने से
पंडित होता है और जीव को जानने से ज्ञानी होता है।
00:39:26.720 --> 00:39:34.736
आहाहा! लेकिन उसकी बुद्धि बाहर में रुकी है।
इसे जानता हूँ, इसे जानता हूँ,
00:39:34.760 --> 00:39:41.656
इसे जानता हूँ, इसे जानता हूँ।
खंड खंड भावेन्द्रिय प्रगट होती है
और आत्मा का अहित होता है।
00:39:41.680 --> 00:39:45.736
अतीन्द्रियज्ञान का घात करता है। जैसे
वीतरागभाव का घात राग से होता है,
00:39:45.760 --> 00:39:52.296
उसीप्रकार भावेन्द्रिय अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रगट
होने देता नहीं है। उसमें अहमपना किया है,
00:39:52.320 --> 00:39:56.856
उघाड़ में अहमपना। आहाहा! थोड़े श्लोक
आ गये, थोड़ी संस्कृत आ गई,
00:39:56.880 --> 00:40:07.776
थोड़ी गाथा मुखाग्र (हो गई) और थोड़ा वाचाल हो गया।
आहाहा! उसमें काम नहीं होगा। आहाहा!
00:40:07.800 --> 00:40:11.056
'प्रतीति में आनेवाली', श्रद्धा में आनेवाली,
00:40:11.080 --> 00:40:18.176
विश्वास में आनेवाली 'अखंड', वह खंडज्ञान
था न। इन्द्रियज्ञान को खंडज्ञान कहा था,
00:40:18.200 --> 00:40:23.656
उसके प्रतिपक्ष में अखंड। खंडज्ञान, उसके प्रतिपक्ष में
अखंड, भेद के प्रतिपक्ष में अभेद।
00:40:23.680 --> 00:40:30.816
'अखंड एक', वे पाँच इन्द्रियाँ थी,
उसके प्रतिपक्ष में एक आत्मा (लिखा)। आत्मा एक है।
00:40:30.840 --> 00:40:38.616
इन्द्रियाँ पाँच हैं और आत्मा (एक है), आहाहा!
अरे! शुद्धात्मा को इन्द्रियज्ञान अड़ता नहीं है।
00:40:38.640 --> 00:40:46.336
राग तो अड़ता नहीं किंतु इन्द्रियज्ञान भी,
भगवान-आत्मा को स्पर्श करता नहीं।
00:40:46.360 --> 00:40:52.256
आहाहा! बाहर लोटता है वह इन्द्रियज्ञान।
अंदर में प्रवेश नहीं होता।
00:40:52.280 --> 00:40:59.376
शुद्धात्मा में प्रवेश नहीं है। आहाहा!
बाहर में है। बाहर में तो सब है।
00:40:59.400 --> 00:41:02.216
छह द्रव्य हैं, लोकालोक है,
कौन ना बोलता है? हैं।
00:41:02.240 --> 00:41:10.136
लेकिन उसकी अस्ति किन्तु मेरे में (नास्ति)।
भावेन्द्रिय की अस्ति किन्तु मेरे में (नास्ति है)।
00:41:10.160 --> 00:41:13.976
ऐसी मेरी अस्ति। उसका अनुभव
हो, तो मस्ती होती है।
00:41:14.000 --> 00:41:24.616
'अखंड एक चैतन्यशक्तिता के द्वारा
अर्थात् उसके अवलंबन द्वारा
00:41:24.640 --> 00:41:31.376
जो एक अखंड शुद्धात्मा अंदर विराजमान है,
भावेन्द्रिय से भिन्न, उघाड़ से भिन्न..,
00:41:31.400 --> 00:41:36.496
वर्तमान जो उघाड़ है न आँख का, कान का,
उससे आत्मा भिन्न है। आहाहा!
00:41:36.520 --> 00:41:42.576
उस उघाड़ से, भावेन्द्रिय से
आत्मा अनुभव में नहीं आता।
00:41:42.600 --> 00:41:48.456
उससे भिन्न स्वयं का जो अखंड चैतन्यप्रकाश का
जो पुंज है, उसका अवलंबन लेने पर
00:41:48.480 --> 00:41:53.576
एक नया जात्यांतरज्ञान प्रगट होता है,
अतीन्द्रियज्ञान। जाति अलग,
00:41:53.600 --> 00:42:01.176
इन्द्रियज्ञान से जाति अलग है। इन्द्रियज्ञान
कर्मचेतना है। नया ज्ञान प्रगट होता है
00:42:01.200 --> 00:42:07.936
उसमें आत्मा का अनुभव होता है, उसे
ज्ञानचेतना कहने में आता है। आहाहा!
00:42:07.960 --> 00:42:13.456
'अखंड एक चैतन्यशक्तिता के द्वारा
सर्वथा अपने से भिन्न जाना;'
00:42:13.480 --> 00:42:20.856
यह इन्द्रियज्ञान सर्वथा भिन्न (है)? सर्वथा कहोगे
तो एकांत हो जायेगा! आहाहा!
00:42:20.880 --> 00:42:26.936
इसप्रकार अज्ञानी चिल्लाता है।
वह तो चिल्लाता है अनंतकाल से। आहाहा!
00:42:26.960 --> 00:42:31.256
यह तकरार तो आज की नहीं है।
यह तकरार तो चलने वाली है।
00:42:31.280 --> 00:42:37.016
क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तो
रहनेवाले हैं। हें? दो तो रहेंगे।
00:42:37.040 --> 00:42:42.336
तो एक कुछ कहता है और दूसरा कुछ और कहता है।
आहाहा! उन दोनों के तो विरुद्ध (मत) हैं न?
00:42:42.360 --> 00:42:48.216
दोनों का एक मत नहीं होता, दोनों के मत अलग हैं।
आहाहा! तो विरोध करे तो भले करो।
00:42:48.240 --> 00:42:53.936
सर्वथा भिन्न है। (लेकिन) सर्वथा अभिन्न माना है।
इन्द्रियज्ञान को ज्ञान माना है
00:42:53.960 --> 00:43:03.496
और आत्मा से अनन्य माना है।
आत्मा से इन्द्रियज्ञान अन्य है, उसके
बदले अनन्य माना है, सर्वथा, हों!
00:43:03.520 --> 00:43:07.435
क्योंकि अज्ञानी के पास कथंचित् नहीं होता।
00:43:07.459 --> 00:43:13.216
क्या कहा?
अज्ञानी के स्याद्वाद का जन्म नहीं हुआ है।
00:43:13.240 --> 00:43:16.056
अनुभवज्ञान में स्याद्वाद का जन्म होता है।
00:43:16.080 --> 00:43:21.896
तब आचार्य भगवान कहते हैं कि तूने
सर्वथा अभिन्न माना है न,
00:43:21.920 --> 00:43:23.816
तो मैं कहता हूँ कि सर्वथा भिन्न है।
00:43:23.840 --> 00:43:27.816
कहता है, साहेब! सर्वथा भिन्न कहोगे
तो फिर स्याद्वाद का क्या होगा?
00:43:27.840 --> 00:43:34.936
कि स्याद्वाद का जन्म हो जायेगा। हें? सर्वथा
भिन्न में स्याद्वाद का जन्म (होगा)? हाँ।
00:43:34.960 --> 00:43:39.216
स्याद्वाद आयेगा कि नहीं? कि हाँ,
अभी आयेगा। तू देख,
00:43:39.240 --> 00:43:46.896
मैं बैठा हूँ। सर्वथा भिन्न करके तू
अंदर में देख, अनुभव कर, फिर अतीन्द्रियज्ञान से
00:43:46.920 --> 00:43:52.856
आत्मा सर्वथा भिन्न नहीं, (किन्तु) कथंचित् भिन्न
और अभिन्न- ऐसे स्याद्वाद का जन्म होगा।
00:43:52.880 --> 00:43:57.656
और इन्द्रियज्ञान तो सर्वथा भिन्न लगता है।
उसमें कहीं कथंचित् लागू नहीं पड़ता।
00:43:57.680 --> 00:44:00.376
राग से कथंचित् भिन्न-अभिन्न नहीं होता।
00:44:00.400 --> 00:44:06.816
वीतराग भाव से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न।
लेकिन कब? कि सर्वथा भिन्न करे तब।
00:44:06.840 --> 00:44:11.696
सर्वथा भिन्न में द्रष्टि निर्मल होती है।
उसके साथ ज्ञान प्रगट होता है
00:44:11.720 --> 00:44:16.216
वह कथंचित् को जान लेता है। कथंचित्
भिन्न-अभिन्न जानता है ज्ञान। आहाहा!
00:44:16.240 --> 00:44:21.456
श्रद्धा कथंचित् को स्वीकारती नहीं है।
श्रद्धा कथंचित् को स्वीकारती नहीं
00:44:21.480 --> 00:44:25.656
और आत्मज्ञान कथंचित् को
जाने बिना रहता नहीं।
00:44:25.680 --> 00:44:35.616
इसप्रकार द्रष्टि का भी दोष नहीं और ज्ञान का
भी दोष नहीं। निर्दोष कथन है।
00:44:35.640 --> 00:44:41.536
सर्वथा भिन्न चमत्कारिक शब्द है। यह आपत्ति है
बस, 'हे साहेब, आप सर्वथा मत कहो,
00:44:41.560 --> 00:44:44.216
नहीं तो एकांत हो जायेगा,
स्वच्छंदी हो जाएंगे लोग।'
00:44:44.240 --> 00:44:48.656
मुमुक्षु:-मिथ्यात्व भाग जायेगा।
पू. लालचंदभाई: हें? मिथ्यात्व भाग जायेगा। भले (आदमी) लाभ होगा!
00:44:48.680 --> 00:44:56.176
यह कोई सोनगढ़ के संत ने शब्द नहीं लिखा, शब्द।
यह तो २००० वर्ष पहले मुनिराज का कथन है।
00:44:56.200 --> 00:45:01.096
सर्वथा शब्द संस्कृत में है। है कि नहीं
संस्कृत में? देख लो न। आहाहा!
00:45:01.120 --> 00:45:09.016
ये पंडित बैठे हैं। संस्कृत में है कि नहीं 'सर्वथा'
भैया? है? है। लो! है सर्वथा शब्द।
00:45:09.040 --> 00:45:16.896
अरे प्रभु! भाई! जब तक
सर्वथा भिन्न का श्रद्धान नहीं होगा
00:45:16.920 --> 00:45:22.816
तब तक श्रद्धान का उदय नहीं होगा। श्रद्धान
उदय होने पर ज्ञान में आत्मा का अनुभव होता है,
00:45:22.840 --> 00:45:28.696
उस ज्ञान में दो पहलू जैसे हैं वैसे, कथंचित्
भिन्न-अभिन्न का उसे ज्ञान हुए बिना नहीं रहता।
00:45:28.720 --> 00:45:35.916
सर्वथा भिन्न का फल कथंचित् है।
सर्वथा भिन्न, उसका फल कथंचित् है।
00:45:35.940 --> 00:45:40.256
आत्मा में स्याद्वाद का अभाव है,
द्रष्टि में भी स्याद्वाद का अभाव है,
00:45:40.280 --> 00:45:46.256
द्रष्टि के विषय में भी स्याद्वाद का अभाव है
और आत्मज्ञान में स्याद्वाद का सद्भाव है।
00:45:46.280 --> 00:45:55.696
आहाहा! अनेकांत! अनेकांत! स्याद्वाद! (ऐसे नारे लगाता है।) भई!
स्याद्वाद से पहले, स्याद्वाद आत्मा में नहीं है-
00:45:55.720 --> 00:46:00.376
ऐसे आत्मा का लक्ष्य कर तो
तुझे आत्मज्ञान प्रगट होगा।
00:46:00.400 --> 00:46:08.056
वह प्रगट हुआ आत्मज्ञान, निर्मल पर्याय से
आत्मा कथंचित् भिन्न और अभिन्न (है)-
ऐसा ज्ञान जानेगा।
00:46:08.080 --> 00:46:13.256
श्रद्धा सर्वथा भिन्न जानेगी और ज्ञान
कथंचित् भिन्न-अभिन्न जान लेगा।
00:46:13.280 --> 00:46:20.016
श्रद्धा तो उस वक्त.… ज्ञान कहता है कि, ज्ञान
श्रद्धा को (कहता है) कि कथंचित् में आ न तू।
00:46:20.040 --> 00:46:25.376
आहाहा! देख! मेरा नाम सम्यग्ज्ञान है और
सम्यग्ज्ञान बोलता है कथंचित् भिन्न-अभिन्न,
00:46:25.400 --> 00:46:29.416
तो तू भी कथंचित् भिन्न-अभिन्न ले न?
तुझे क्या आपत्ति है?
00:46:29.440 --> 00:46:34.976
मैं भी सम्यग्ज्ञान और तू भी सम्यग्ज्ञान(श्रद्धा)।
कि देख, यदि मैं कथंचित् अभिन्न कहूँगी तो मैं मर जाऊंगी।
00:46:35.000 --> 00:46:39.696
और मेरी मौत होगी तो तेरी भी मौत (होगी)।
तो सम्यग्ज्ञान तेरा नहीं रहेगा।
00:46:39.720 --> 00:46:44.656
इसलिए तू तेरे स्थान में (रह) और मैं मेरे स्थान में।
रहने दो दोनों को अपने-अपने स्थान में।
00:46:44.680 --> 00:46:53.656
दोनों का विषय जैसा है वैसा (रहने दो)। हमें मिलकर साथ
रहना है। अंदर तकरार नहीं करनी है। आहाहा!
00:46:53.680 --> 00:46:58.416
अंदर का खेल, आहाहा! ज्ञानियों की
रमत (खेल) तो ज्ञानी जानते हैं।
00:46:58.440 --> 00:47:03.576
पर यह 'सर्वथा' लिखा है अंदर।
यह खटकता है। 'सर्वथा' मत कहो, बस।
00:47:03.600 --> 00:47:07.856
अरे! इन्द्रियज्ञान को सर्वथा भिन्न
कहा तो तेरे राग की बात तो (दूर रही)।
00:47:07.880 --> 00:47:15.096
वह तो जड़ और अचेतन प्रसिद्ध है।
अंधा है। आहाहा! राग तो अंधा है।
00:47:15.120 --> 00:47:18.096
जड़-अचेतन, वह तो सर्वथा भिन्न है।
00:47:18.120 --> 00:47:25.776
यहाँ तो कहते हैं (कि) राग को जाननेवाला जो ज्ञान
खड़ा होता है, दुःख को जाननेवाला ज्ञान, आहाहा!
00:47:25.800 --> 00:47:29.776
जिस ज्ञान में दुःख जानने में आता है, वह ज्ञान
आत्मा से भिन्न है सर्वथा।
00:47:29.800 --> 00:47:35.056
जिस ज्ञान में आत्मा जानने में आता है, वह कथंचित्
भिन्न-अभिन्न में ले। आहाहा!
00:47:35.080 --> 00:47:44.456
इस 'सर्वथा' में बड़ी आपत्ति आती है, आहाहा!
अज्ञानी को। और जो निकट भव्य होता है
00:47:44.480 --> 00:47:49.776
उसे अमृत जैसा लगता है। निकट भव्य
हो, उसे अमृत जैसा लगता है।
00:47:49.800 --> 00:47:56.336
'सर्वथा अपने से भिन्न जानी; ' आहाहा!
00:47:56.360 --> 00:48:00.536
चैतन्यशक्ति अतीन्द्रिय ज्ञानमय
भगवान आत्मा जो ज्ञायक है,
00:48:00.560 --> 00:48:03.936
उसका अवलंबन लेने पर
अतीन्द्रियज्ञान प्रगट होता है,
00:48:03.960 --> 00:48:08.456
उस अतीन्द्रियज्ञान ने ज्ञायक को और
इन्द्रियज्ञान को अलग कर दिया।
00:48:08.480 --> 00:48:11.536
प्रज्ञाछैनी द्वारा भेदज्ञान हो गया।
00:48:11.560 --> 00:48:15.536
अतीन्द्रियज्ञान ने ज्ञायक को
प्रसिद्ध किया कि यह मैं हूँ,
00:48:15.560 --> 00:48:18.496
वहाँ इन्द्रियज्ञान मेरा नहीं(ऐसी प्रतीति हो गई)।
ममता छूट गई।
00:48:18.520 --> 00:48:22.256
इन्द्रियज्ञान रह जाता है और
ममता छूट जाती है।
00:48:22.280 --> 00:48:27.096
इन्द्रियज्ञान का अभाव नहीं होता क्षण में।
वह तो केवलज्ञान होता है तब होता है।
00:48:27.120 --> 00:48:30.416
लेकिन मेरेपने की बुद्धि
छूट जाती है उसमें से। बस।
00:48:30.440 --> 00:48:35.616
उसे 'अपने से भिन्न जाना; सो यह
भावेन्द्रियों का जीतना हुआ।'
00:48:35.640 --> 00:48:44.336
दो बोल हुए, अब तीसरा बोल।
भावेन्द्रिय का विषय, 'ग्राह्यग्राहकलक्षणवाले
संबंध की निकटता के कारण', आहाहा!
00:48:44.360 --> 00:48:49.736
ग्राह्य अर्थात् ज्ञेय-परपदार्थ।
ग्राहक अर्थात् इन्द्रियज्ञान।
00:48:49.760 --> 00:48:55.536
इन्द्रियज्ञान- ग्राहक, जाननेवाला।
इन्द्रियज्ञान जाननेवाला और ज्ञेय उसमें जानने में आते हैं।
00:48:55.560 --> 00:49:02.896
'ग्राह्यग्राहकलक्षणवाले संबंध की
निकटता के कारण', ज्ञेय और इन्द्रियज्ञान,
00:49:02.920 --> 00:49:07.976
इन्द्रियज्ञान का जो विषय.., इन्द्रियज्ञान का
विषय और ज्ञेय, दोनों की निकटता है।
00:49:08.000 --> 00:49:14.296
आत्मा से तो भिन्न है। आत्मा के साथ निकटता
नहीं है ज्ञेय की या भावेन्द्रिय की, किसी की (निकटता नहीं है)।
00:49:14.320 --> 00:49:19.816
लेकिन इन्द्रियज्ञान और उसका जो विषय,
उनकी निकटता के कारण
00:49:19.840 --> 00:49:24.216
'जो अपने संवेदन (अनुभव) के साथ परस्पर
एक जैसे हुए दिखाई देते हैं',
00:49:24.240 --> 00:49:28.016
इन्द्रियज्ञान में जहाँ ऐसे रस चखा,
00:49:28.040 --> 00:49:34.216
वहाँ रस और भावेन्द्रिय मानो एकाकार एक
वस्तु है, ऐसा उसे भासित होता है। भ्रांति हो जाती है।
00:49:34.240 --> 00:49:39.696
अति 'निकटता के कारण' जानकर
'जो अपने संवेदन'
00:49:39.720 --> 00:49:44.536
अर्थात् '(अनुभव) के साथ'। अनुभव
अर्थात् ज्ञान जानने का- भावेन्द्रिय(को)।
00:49:44.560 --> 00:49:49.416
(यहाँ अनुभव का अर्थ) आनंद का वेदन नहीं।
'परस्पर एक जैसे हुए दिखाई देते हैं '
00:49:49.440 --> 00:49:54.696
रस-इन्द्रिय, रस-रसेंद्रिय, वे दोनों
एक जैसे लगते हैं। आहाहा!
00:49:54.720 --> 00:49:59.056
यह खट्टा रस मैंने जाना।
मुझे खट्टा लगता है। मुझे खट्टा लगता है,
00:49:59.080 --> 00:50:06.176
मुझे तीखा रस लगता है। मुझे मतलब कौन?
कि भावेन्द्रिय में मैं-पने की बुद्धि की। आहाहा!
00:50:06.200 --> 00:50:11.056
'एक जैसे हुए दिखाई देते हैं
ऐसे, भावेन्द्रियों द्वारा',
00:50:11.080 --> 00:50:15.136
देखो! खुलासा करते हैं।
'भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुए',
00:50:15.160 --> 00:50:22.936
अरे! भावेन्द्रिय पर को जानती हैं, हों!
अतीन्द्रियज्ञान पर को नहीं जानता
प्रभु! कठिन बात है। क्या करें?
00:50:22.960 --> 00:50:29.536
शास्त्र में है सब, दस गाथा हैं पूरी।
कुंदकुंद आचार्य भगवान कहते हैं
00:50:29.560 --> 00:50:37.856
कि भावेन्द्रिय पर को ग्रहण करती हैं। आहाहा!
आत्मा पर को, शब्द को ग्रहण नहीं करता।
00:50:37.880 --> 00:50:46.336
दस गाथा हैं, दस। आहाहा!
क्या कहा यह ? भावेन्द्रिय है,
00:50:46.360 --> 00:50:50.416
श्रोतेन्द्रिय शब्द को जानती है।
आत्मा शब्द को नहीं जानता।
00:50:50.440 --> 00:50:57.816
रसेन्द्रिय खट्टे-मीठे को जानती है,
आत्मा खट्टे-मीठे पदार्थ को नहीं जानता।
00:50:57.840 --> 00:51:05.536
तो स्वपरप्रकाशक का क्या होगा?
कि स्वपरप्रकाशक जो अज्ञान है, उसका अस्त होगा
00:51:05.560 --> 00:51:11.096
और स्वप्रकाशक ज्ञान प्रगट हो जायेगा तुझे।
नुकसान कुछ होनेवाला नहीं है।
00:51:11.120 --> 00:51:18.696
फिर स्वपरप्रकाशक? तो स्वपरप्रकाशक में
क्या है? कि यह (आत्मा) स्व और ये सब पर - ऐसा नहीं है।
00:51:18.720 --> 00:51:25.296
स्वपरप्रकाशक एक निश्चय प्रगट होता है। ज्ञान
वह स्व और अतीन्द्रिय आनंद प्रगट हुआ वह पर।
00:51:25.320 --> 00:51:31.496
वह निश्चय स्वपरप्रकाशक प्रगट होता है उसे
स्वपरप्रकाशक का व्यवहार लागू पड़ता है।
00:51:31.520 --> 00:51:37.816
बात बहुत सूक्ष्म है। इन भाई को जानने की
जिज्ञासा बहुत हो गई है कि यह क्या है?
00:51:37.840 --> 00:51:46.416
आहाहा! कभी हिम्मतनगर आना।
(तो) हम यह विषय, पूछना मुझे जरा,
00:51:46.440 --> 00:51:49.456
(तो) यह विषय ले लेंगे।
विषय समझने जैसा है।
00:51:49.480 --> 00:51:55.816
स्वप्रकाशक, निश्चय स्वपरप्रकाशक और
व्यवहार स्वपरप्रकाशक, ये तीन ज्ञानी को हैं।
00:51:55.840 --> 00:51:59.096
और एक चौथा स्वपरप्रकाशक
अज्ञानी के पास (भी) है।
00:51:59.120 --> 00:52:03.376
चौथा स्वपरप्रकाशक अज्ञानी के पास भी है।
00:52:03.400 --> 00:52:08.536
लेकिन अभी यह विषय अपना चलता है।
डिपोज़िट रखना, समझने जैसा है।
00:52:08.560 --> 00:52:18.776
'परस्पर एक जैसे हुए दिखाई देते हैं ऐसे,
भावेन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए', देखो!
00:52:18.800 --> 00:52:25.176
ग्राह्य-ग्राहक का खुलासा किया है।
भावेन्द्रिय है वह जाननेवाली है और
सब द्रव्य जानने में आते हैं।
00:52:25.201 --> 00:52:29.496
'ग्रहण किए हुए, इन्द्रियों के विषयभूत
स्पर्शादि पदार्थों को,' आहाहा!
00:52:29.520 --> 00:52:34.736
इन्द्रियज्ञान पर को जानता है प्रभु! हों!
आहाहा! शब्द को श्रोतेन्द्रिय जानती है,
00:52:34.760 --> 00:52:42.176
चक्षुइन्द्रिय रूप को जानती है,
घ्राणइन्द्रिय दुर्गंध और सुगंध को
जानती है, आत्मा नहीं। आहाहा!
00:52:42.200 --> 00:52:48.896
आत्मा तो आत्मा को जानता है। आत्मा तो आत्मा को
जानता है और भावेन्द्रिय पर को जानती है।
00:52:48.920 --> 00:52:55.456
बस पूरी हो गई बात। यह सब गाथाओं में है,
दस गाथा हैं इसकी समयसार में।
00:52:55.480 --> 00:53:08.896
एकदम स्पष्ट शब्द हैं।
कौनसी गाथा हैं, ३७३ से ३८२ तक।
लाओ ना समयसार, लाओ ना।
00:53:08.920 --> 00:53:13.016
मुमुक्षु:- यह समयसार ही है।
पू. लालचंदभाई: हाँ, यह समयसार ही है।
हाँ, बराबर है।
00:53:13.040 --> 00:53:21.016
३७३ से ३८२। आहाहा!
यह समयसार पूरा होने को आया न,
00:53:21.040 --> 00:53:28.496
तब आचार्य भगवान ने कहा, लाओ जो भी है वो
मैं कह दूं। समझनेवाला कोई तो बिरला निकलेगा!
00:53:28.520 --> 00:53:36.576
भले ज़्यादा न निकलें तो कोई (बात) नहीं, थोड़े, लेकिन
उनका तो काम होगा। सत्य बात कह दूं। आहाहा!
00:53:36.600 --> 00:54:06.616
मुमुक्षु:- संख्या की क्या जरूरत?
पू. लालचंदभाई: हें, संख्या की क्या जरूरत? हं..। पृष्ठ ५२६। बराबर। आ गया।
आहाहा! देखो! दस गाथाएँ हैं।
00:54:06.640 --> 00:54:19.576
पुद्गलदरब बहु भांति
निंदा-स्तुतिवचनरूप परिणमे।
00:54:19.600 --> 00:54:24.256
सुनकर उन्हें 'मुझको कहा' गिन
रोष तोष जु जीव करे।।३७३।।
00:54:24.280 --> 00:54:29.136
पुद्गलदरब शब्दत्वपरिणत,
उसका गुण जो अन्य है।
00:54:29.160 --> 00:54:35.256
तो नहीं कहा कुछ भी तुझे, हे अबुध!
रोष तू क्यों करे? ।।३७४।।
00:54:35.280 --> 00:54:43.496
शुभ या अशुभ जो शब्द
उस शब्द को कौन जानता है?
आत्मा जानता है या इंद्रियज्ञान जानता है?
00:54:43.520 --> 00:54:52.536
आहाहा! मूल बात है। मूल बात।
'मैं शब्द को सुनता हूँ'- द्रष्टि विपरीत है।
00:54:52.560 --> 00:54:58.376
मैं शब्द को जानता भी नहीं,
मैं तो जाननहार को जानता हूँ।
00:54:58.400 --> 00:55:03.896
ऐसा करके अंदर चला जा ना एकबार,
थोड़ी देर के लिए तो जा। एयरकन्डीशन है अंदर।
00:55:03.920 --> 00:55:13.296
शुभ या अशुभ जो शब्द
वह 'तू सुन मुझे' न तुझे कहे।
00:55:13.320 --> 00:55:17.016
अरु जीव भी नहीं ग्रहण जावे
कर्णगोचर शब्द को।।३७५।।
00:55:17.040 --> 00:55:21.576
जीव उसे जानने नहीं जाता। अब उस
गाथा का अर्थ करें हम। अर्थ।
00:55:21.600 --> 00:55:30.056
तीसरी गाथा। शुभ अथवा अशुभ शब्द तुझसे
नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन';
00:55:30.080 --> 00:55:35.136
यह शब्द जो निकलता है ना, वह
हमें ऐसा नहीं कहता कि,
00:55:35.160 --> 00:55:38.736
शब्द ऐसा नहीं कहता कि
'तू मुझे सुन'। एक बात।
00:55:38.760 --> 00:55:43.376
शब्द नहीं कहता कि तू मुझे
सुन। एक बात, वहाँ से।
00:55:43.400 --> 00:55:52.336
अब दूसरी बात यहाँ से करते हैं। और आत्मा भी
(अपने स्थान से च्युत होकर),
00:55:52.360 --> 00:55:59.936
श्रोत-इन्द्रिय के विषय में आये हुये शब्द को
ग्रहण करने को (-जानने को) नहीं जाता। आहाहा!
00:55:59.960 --> 00:56:06.776
एक बार तो 'मैं नहीं जानता'
इस शब्द को (श्रद्धा में) ले तो सही।
तो इन्द्रियज्ञान का व्यापार बंद हो जायेगा
00:56:06.800 --> 00:56:11.616
और नया अतीन्द्रियज्ञान (प्रगट होगा)। आत्मा-
जाननहार जानने में आता है, जाननहार जानने में आता है
00:56:11.640 --> 00:56:13.492
वास्तव में पर जानने में नहीं आता।
00:56:13.516 --> 00:56:19.096
पर को मैं सुनता नहीं,
पर को जानता नहीं, पर को सूँघता
नहीं, पर को स्पर्श करता नहीं।
00:56:19.120 --> 00:56:23.576
जननहार जानने में आता है तब इन्द्रियज्ञान
क्षणमात्र, थोड़े टाइम (के लिए) रुक जायेगा
00:56:23.600 --> 00:56:27.856
और नया ज्ञान प्रगट होगा,
उसमें आत्मा का अनुभव होगा।
00:56:27.880 --> 00:56:33.456
फिर सविकल्प दशा आयेगी। तब शब्द को
और शब्द को जाननेवाला इन्द्रियज्ञान-
00:56:33.480 --> 00:56:38.496
उन दोनों को ज्ञान से भिन्न जानेगा।
वे ज्ञान में भिन्नपने जानने में आते रहेंगे।
00:56:38.520 --> 00:56:46.496
अब अभिन्नपने जानने में नहीं आयेंगे। एकत्व नहीं होगा,
विभक्तरूप परिणमन चालू हो जायेगा। आहाहा!
00:56:46.520 --> 00:56:54.616
अशुभ अथवा शुभ शब्द तुझसे यह
नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन',
00:56:54.640 --> 00:57:00.136
और आत्मा यहाँ से च्युत होकर
वहाँ सुनने नहीं जाता।
00:57:00.160 --> 00:57:05.376
कहाँ अवकाश है कि शब्द सुनने जाये? स्वयं
अपने को जानने में रुके या उसे जानने जाये?
00:57:05.400 --> 00:57:09.616
यदि यहाँ से छूटकर वहाँ जानने
गया तो लक्ष्य पलट गया। आहाहा!
00:57:09.640 --> 00:57:16.816
आत्मा लक्ष्य में नहीं आयेगा, आत्मा हाथ में
नहीं आयेगा। ऐसी ये दस गाथा हैं,
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ऊंचे में ऊंची। सब कुछ शास्त्र में (भरा है)।
समयसार तो समयसार है।
00:57:22.640 --> 00:57:26.656
'न भूतो न भविष्यति' ऐसी टीका है,
गुरुदेव फरमाते थे।
00:57:26.680 --> 00:57:33.816
लेकिन पक्ष पड़ गया है,
एक कर्ताबुद्धि (का) और एक पर की ज्ञाताबुद्धि (का)।
00:57:33.840 --> 00:57:37.436
पर की ज्ञाताबुद्धि पड़ी है न इसलिए
इन्द्रियज्ञान पर को जानने जाता है।
00:57:37.460 --> 00:57:41.376
इन्द्रियज्ञान ही उत्पन्न होता है। क्योंकि मैं पर को
जाननेवाला हूँ, पर को जाननेवाला हूँ,
00:57:41.400 --> 00:57:45.816
पर को जाननेवाला हूँ, आहाहा! जाननहार जानने में आता है,
जाननहार जानने में आता है, वह भूल गया।
00:57:45.840 --> 00:57:48.616
मैं ज्ञाता हूँ- वह भूल गया
और 'कर्ता हूँ'- ऐसा आ गया।
00:57:48.640 --> 00:57:53.456
कर्ता के पक्ष में पड़ा है। कोई कर्ता के
पक्ष में और कोई ज्ञाता के पक्ष में पड़े हुए जीव
00:57:53.480 --> 00:58:03.256
आत्मा की उपलब्धि नहीं कर सकते।
आहाहा! ऐसा है, बालचंदभाई!
00:58:03.280 --> 00:58:08.976
उनको 'अपनी चैतन्यशक्ति की स्वयमेव
अनुभव में आनेवाली असंगता', देखो!
00:58:09.000 --> 00:58:12.976
पर को जो जानता है उसमें
इन्द्रियज्ञान पर का संग करता है।
00:58:13.000 --> 00:58:19.656
वह संग कैसे छूटे? पर का संग कैसे छूटे?
व्यभिचार कैसे छूटे?
00:58:19.680 --> 00:58:26.016
पर के संगवाले परिणाम को
परमात्मा व्यभिचार कहते हैं। आहाहा!
00:58:26.040 --> 00:58:31.376
कठिन शब्द हैं, लेकिन करुणा के हैं। करुणा
आ गई है.., उनको करुणा आ गई है।
00:58:31.400 --> 00:58:35.536
अरे! पर का लक्ष्य छोड़ दे।
तुझे कुछ हाथ में नहीं आयेगा।
00:58:35.560 --> 00:58:43.216
स्व का लक्ष्य कर तो सब हाथ में आयेगा। अब उसे
कैसे.., पर पदार्थों को जानना कैसे बंद हो?
00:58:43.240 --> 00:58:50.856
कि असंग ऐसा आत्मा है। जो परिणाम
पर का संग करते हैं वे परिणाम तेरे नहीं हैं।
00:58:50.880 --> 00:58:56.576
तू तो असंगी परमात्मा है।
असंगी को भावेन्द्रियों का संग नहीं है,
00:58:56.600 --> 00:59:01.816
द्रव्येन्द्रियों का संग नहीं है,
असंगी को परपदार्थ का भी संग नहीं है।
00:59:01.840 --> 00:59:04.616
संग करने जायेगा तो दुःखी होगा। आहाहा!
00:59:04.640 --> 00:59:09.656
संग छोड़ दे, मैं तो असंग हूँ।
परमात्मा हूँ, मुझे किसी का संग (नहीं है),
00:59:09.680 --> 00:59:15.416
मेरा किसी के साथ संबंध ही नहीं है न।
कर्ता-कर्म संबंध नहीं, निमित्त-नैमित्तिक (संबंध) नहीं
00:59:15.440 --> 00:59:19.496
और ज्ञाता-ज्ञेय (संबंध) भी नहीं है। और
ज्ञाता-ज्ञेय का भेद भी यहाँ दिखता नहीं है।
00:59:19.520 --> 00:59:24.936
अभेद में भेद नहीं दिखता,
उसका नाम अनुभूति कहने में आता है।
00:59:24.960 --> 00:59:32.696
'असंगता के द्वारा' , आहाहा!
असंग का एक बोल आता है,
00:59:32.720 --> 00:59:35.936
श्रीमद् में भी एक बोल आता है,
असंग है परमार्थ से, हों!
00:59:35.960 --> 00:59:41.976
असंग है परमार्थ से..।
यह परमार्थ की बात चलती है। आहाहा!
00:59:42.000 --> 00:59:48.656
संग छुड़ाना है। पर का संग छुड़ाकर, असंग
ऐसे असंगी आत्मा का संग कर।
00:59:48.680 --> 00:59:56.016
असंगी ऐसे परमात्मा का संग कर तो परिणाम
पवित्र हो जायेंगे। संवर-निर्जरा प्रगट होगी।
00:59:56.040 --> 01:00:02.296
'असंगता के द्वारा सर्वथा अपने से अलग किया;'
तीनों में 'सर्वथा' शब्द लगाया। आहाहा!
01:00:02.320 --> 01:00:06.056
सो यह इंद्रियों के विषयभूत
पदार्थों का जीतना हुआ।
01:00:06.080 --> 01:00:11.896
'इसप्रकार जो (मुनि) द्रव्यन्द्रियों, भावेन्द्रियों
तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को'
01:00:11.920 --> 01:00:18.136
'(तीनों को) जीतकर, ज्ञेयज्ञायक-संकर
नामक दोष आता था' खिचड़ी (मिला-जुला),
01:00:18.160 --> 01:00:24.736
एकत्व 'सो सब दूर होने से
एकत्व में' अर्थात् एकपने में,
01:00:24.760 --> 01:00:30.376
एकत्व अर्थात् एकपने में। आत्मा एक है।
'एकत्व में टंकोत्कीर्ण और
01:00:30.400 --> 01:00:36.096
ज्ञानस्वभाव के द्वारा सर्व
अन्यद्रव्यों से परमार्थ से भिन्न' , आहाहा!
01:00:36.120 --> 01:00:41.456
अन्यद्रव्यों से अर्थात् द्रव्यन्द्रियां,
भावेइन्द्रियां और भावेन्द्रियों के
विषय- (ये) तीनों अन्यद्रव्य में जाते हैं।
01:00:41.480 --> 01:00:47.496
'परमार्थ से भिन्न ऐसे अपने आत्मा का
अनुभव करता है', आहाहा! अनुभव करता है प्रत्यक्ष।
01:00:47.520 --> 01:00:53.736
'वह निश्चय से जितेन्द्रिय जिन है।'
उसने मोह को जीत लिया।
01:00:53.760 --> 01:01:00.776
इन्द्रियज्ञान को जीतते ही मिथ्यात्व पर जीत हो
जाती है। मिथ्यात्व का उत्पाद नहीं होता।
01:01:00.800 --> 01:01:09.736
उसे 'जितेन्द्रिय जिन' कहा। चौथे
गुणस्थान में जिन है। सर्वज्ञ का लघुनंदन है!
01:01:09.760 --> 01:01:19.056
'जितेन्द्रिय जिन' आहाहा! मेंढक, हिरण
भी 'जितेन्द्रिय जिन' होता है। आहाहा!
01:01:19.080 --> 01:01:23.016
हाथी, घोडा, किसी भी संज्ञी पंचेन्द्रिय
जीव को अनुभव हो सकता है।
01:01:23.040 --> 01:01:31.056
'जितेन्द्रिय जिन है। (ज्ञानस्वभाव
अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है, इसलिए उसके द्वारा
आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है।)'
01:01:31.080 --> 01:01:35.896
'कैसा है यह ज्ञानस्वभाव?' आहाहा!
कैसा है यह ज्ञानस्वभाव?
01:01:35.920 --> 01:01:40.856
'इस विश्व के (समस्त पदार्थों के) ऊपर तिरता हुआ',
01:01:40.880 --> 01:01:46.256
ऊपर तिरता हुआ अर्थात् '(उन्हें जानता हुआ भी
उनरूप न होता हुआ),'
01:01:46.280 --> 01:01:50.776
विश्व ज्ञान में ज्ञेय होता है लेकिन
आत्मा विश्वरूप नहीं होता।
01:01:50.800 --> 01:01:56.496
आत्मा ज्ञेयरूप नहीं होता है, ज्ञान छूटता नहीं है,
ज्ञेय भिन्न और ज्ञान भिन्न ही रहता है।
01:01:56.520 --> 01:02:01.776
'प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा
अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर,
01:02:01.800 --> 01:02:08.656
स्वतः सिद्ध और परमार्थसत्---ऐसा भगवान
ज्ञानस्वभाव है।।३१।।'
01:02:08.680 --> 01:02:18.976
उसका लक्ष्य करके उसका श्रद्धान, उसका अनुभव कर तो
संसार का अंत आयेगा और अल्पकाल में
पूर्णानंद की प्राप्ति उसे होती है।
01:02:19.000 --> 01:02:20.000
बोलो! परम उपकारी पूज्य सदगुरुदेव की जय हो!