WEBVTT 00:01:59.440 --> 00:02:08.416
ये दशलक्षणी पर्व पर्वाधिराज के मांगलिक दिन हैं। 00:02:08.440 --> 00:02:15.496 ये आत्मा की आराधना करने के दिन हैं। 00:02:15.520 --> 00:02:27.016 अनंतकाल से स्वयं अपनी विराधना की है। पर की विराधना तो की ही नहीं जा सकती । 00:02:27.040 --> 00:02:39.096 लेकिन स्वयं स्वयं को भूल जाना, स्वयं को लक्ष में न लेना, शुद्धात्मा को ज्ञान और श्रद्धा में न लेना, 00:02:39.120 --> 00:02:48.616 उसके जैसा कोई दोष अर्थात् अपराध दुनिया में नहीं है। अनंत दुःख का कारण है। 00:02:48.640 --> 00:03:00.896 अपने को भूलकर पर को अपना मानना ऐसी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, ऐसी अवस्था आत्मा की अनंतकाल से है। 00:03:00.920 --> 00:03:06.976 उसका अभाव कैसे हो उसकी विधि समयसार में है। 00:03:07.000 --> 00:03:15.976 और दशलक्षण पर्व मुख्यरूप से मुनिराज की चारित्र दशा के भेद हैं। 00:03:16.000 --> 00:03:24.496
इसके ऊपर हुए गुरुदेव के प्रवचन छप गये हैं तो पहले थोड़ा उसके ऊपर लेना है। 00:03:24.520 --> 00:03:38.216 आज दसलक्षण पर्व का दूसरा दिन है। कल उत्तम क्षमा धर्म का दिन था, 00:03:38.240 --> 00:03:50.856 आज उत्तम मार्दव धर्म का दिन है। यह जरा लाइट करो न। है लाइट? 00:03:50.880 --> 00:03:58.336 00:03:58.360 --> 00:04:14.456 सनातन जैनधर्म के अनादि नियम के अनुसार इन भादव शुक्ल पँचमी से चतुर्दशी तक के दस दिनों को 'दसलक्षण पर्व' कहते हैं 00:04:14.480 --> 00:04:26.296 और वही सच्चा पर्युषण है। आज उत्तम मार्दव धर्म का दिन होने से 00:04:26.320 --> 00:04:35.268 क्रोध-मान-माया और लोभ, क्रोध को जीते तो उत्तम क्षमा प्रगट होती है। 00:04:35.292 --> 00:04:39.176 मान को जीते तो उत्तम मार्दव धर्म प्रगट होता है। 00:04:39.200 --> 00:04:47.736 'पद्मनन्दि-पंचविंशतिका' शास्त्र में से उसका वर्णन हो रहा है। उसके वर्णन के दो श्लोक हैं। 00:04:47.760 --> 00:04:55.696
उत्तम मार्दव अर्थात् उत्तम निरभिमानता, मान रहित की वीतरागी दशा। 00:04:55.720 --> 00:05:03.136 सम्यग्दर्शन सहित निरभिमानता सो उत्तम मार्दवधर्म है। 00:05:03.160 --> 00:05:18.976 उत्तम क्षमा, मार्दवादि दस धर्म सम्यग्दर्शनयुक्त जीव के ही होते हैं। चारित्र के भेद हैं ये। श्लोक है उसका। 00:05:19.000 --> 00:05:31.296 उत्तम जाति, कुल, बल, ज्ञान, इत्यादि के अभिमान का त्याग सो मार्दव है। यह मार्दव धर्म का अंग है। 00:05:31.320 --> 00:05:40.856 जो अपनी सम्यग्ज्ञानरूपी दृष्टि से समस्त जगत को स्वप्न तथा इन्द्रजाल की भाँति देखते हैं। 00:05:40.880 --> 00:05:51.376 ज्ञानी जगत के पदार्थों को देखते हैं लेकिन वह सब इंद्रजाल के समान दिखता है। 00:05:51.400 --> 00:06:00.096 इसप्रकार ये (पर) सब नहीं है, ऐसा हमें दिखा है, हमारे में उसका अभाव है इसलिए हम उसे देखते नहीं हैं। 00:06:00.120 --> 00:06:09.456 और इन्द्रजाल के समान है, इन्द्रजाल और स्वप्न जैसा है। आहाहा! 00:06:09.480 --> 00:06:15.456
एक बार सोगनीजी से एक मुमुक्षु भाई ने प्रश्न किया। 00:06:15.480 --> 00:06:29.376 कि यह सब आप जो प्रवचन देते हो, समझाते हो इसप्रकार और उसमें तुम्हारी रुचि है। इसप्रकार से थोड़ी टीका की। 00:06:29.400 --> 00:06:36.616 तो (सोगानी जी) ने कहा कि यह हमें यह सपना दिखता है, जागृत अवस्था में ये कुछ दिखता नहीं है। 00:06:36.640 --> 00:06:41.536 जागृत अवस्था अलग है और स्वप्न अलग चीज है। 00:06:41.560 --> 00:06:51.496 जागृत अवस्था में तो हमारा शुद्धात्मा एक ही जानने में आता है, ये कुछ जानने में नहीं आता । ऐसा जवाब दिया उन्होंने। 00:06:51.520 --> 00:06:59.256 वही बात इसमें की है। वे उत्तम मार्दव धर्म को धारण क्यों नहीं करेंगे? अर्थात् अवश्य धारण करते हैं। 00:06:59.280 --> 00:07:05.976
निरभिमान दशा को (प्राप्त) ज्ञानी, आत्मा के आश्रय से, मान कषाय का क्षय कर डालते हैं। 00:07:06.000 --> 00:07:16.496 उपशम, क्षयोपशम और अंत में, श्रेणी में , क्षय हो जाता है। क्षपक श्रेणी मांडते हैं तब मान कषाय का, क्रोध-मान-माया और लोभ, 00:07:16.520 --> 00:07:22.576 चारों कषाय का अभाव होकर, यथाख्यात चारित्र प्रगट होकर केवलज्ञान प्रगट होता है। 00:07:22.600 --> 00:07:32.336 यहाँ मुख्यतया मुनि की अपेक्षा से कथन है। उत्तम क्षमा आदि जो दस धर्म हैं वे सम्यक्चारित्र के ही भेद हैं, 00:07:32.360 --> 00:07:41.256 सम्यग्दर्शन-ज्ञान के भेद नहीं हैं अपितु मुनिराज को स्थिरता आती है उसके अंदर के ये भेद हैं सभी। 00:07:41.280 --> 00:07:53.256 सम्यग्दर्शन के बिना वह धर्म नहीं होता। शरीर, मन, वाणी की क्रिया, आत्मा नहीं करता, उससे आत्मा भिन्न ही है। 00:07:53.280 --> 00:08:05.936 दया-भक्ति अथवा व्रतादि जो शुभराग है वह धर्म नहीं है, और उसीप्रकार वे धर्म में सहायक भी नहीं हैं। 00:08:05.960 --> 00:08:18.656
आत्मा चैतन्य स्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, दर्शन स्वरूप है। वह विकार रहित है, 00:08:18.680 --> 00:08:30.056 क्रोध, मान, माया और लोभ, ये सभी पराश्रित विभाव पर्याय के एक समय के धर्म हैं। वे भगवान आत्मा में नहीं हैं। 00:08:30.080 --> 00:08:38.696 ऐसे अपने निश्चय स्वभाव की परिचय के द्वारा सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन प्रगट करने के पश्चात् 00:08:38.720 --> 00:08:45.776 विशेष स्वरूप स्थिरता से,रमणता से, चारित्र दशा प्रगट होती है, 00:08:45.800 --> 00:08:56.336 उस दशा में धर्मी जीव को ऐसी आत्म स्थिरता होती है कि जाति-कुल आदि के अभिमान का विकल्प भी नहीं उठता, 00:08:56.360 --> 00:09:04.496 मैं पूर्व में राजा था- ऐसा विकल्प उसे हो नहीं सकता। इसका नाम उत्तम मार्दवधर्म है। 00:09:04.520 --> 00:09:13.816
ऐसे किसी भी प्रकार के विभाव के विकल्प, कषाय के विकल्प, उत्पन्न होते नहीं हैं क्योंकि एकताबुद्धि टूट गई है। 00:09:13.840 --> 00:09:22.016 तीन कषाय के अभावपूर्वक स्थिरता हुई है और थोड़ा राग आता है, उसके प्रति उदास हैं। 00:09:22.040 --> 00:09:27.456 उसके प्रति उपेक्षा है। उसकी अपेक्षा उन्हें नहीं होती। 00:09:27.480 --> 00:09:35.296 ऐसी चारित्र दशा कैसे प्रगट होवे उसके लिये इस समयसार शास्त्र की रचना हुई है। 00:09:35.320 --> 00:09:45.056
चारित्र है वह साक्षात् मोक्ष का कारण है। चारित्र अर्थात् शुद्धोपयोग। पाँच महाव्रत चारित्र नहीं हैं। 00:09:45.080 --> 00:09:57.056 लेकिन शुद्धात्मा में सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक अंदर रमणता-लीनता-स्थिरता ऐसी वीतराग दशा को भगवान चारित्र कहते हैं। 00:09:57.080 --> 00:10:10.936 वह साक्षात् मोक्ष का कारण है। और चारित्र का कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान है। और सम्यग्दर्शन का कारण भेदविज्ञान है। 00:10:10.960 --> 00:10:16.536 इसी भेदज्ञान की गाथा हमें लेनी है। 00:10:16.560 --> 00:10:28.696 भेदज्ञान से अभेद का अनुभव होने पर उसे आत्मा जैसा है वैसा अंतर्मुख दशा में ज्ञात हो जाता है। 00:10:28.720 --> 00:10:34.736 प्रत्यक्ष होता है। और आनंद का वेदन आता है। 00:10:34.760 --> 00:10:42.496
सम्यग्दर्शन-ज्ञान का लक्षण क्या? उसका चिन्ह क्या? उसकी निशानी क्या? 00:10:42.520 --> 00:10:50.896 कि आत्मा आनंद की मूर्ति है उसके अंदर लीन होने पर, उसे अवस्था में, पर्याय में, 00:10:50.920 --> 00:11:01.656 आत्मा में रहा हुआ आनंद जो शक्तिरूप से है, वह पर्याय में थोड़ा व्यक्त हो जाता है। नमूना आता है। 00:11:01.680 --> 00:11:08.696 जैसे कि शक्कर की बोरी, उसके आठ सौ- नौ सौ रुपये जो भाव हों (वे) भाव। 00:11:08.720 --> 00:11:19.096 तो पूरी बोरी लेने जाये,(तो दुकानवाला) उसे दो दाने नमूने के चखाता है, कि इस जाति की शक्कर है खांड, शुगर (sugar)। 00:11:19.120 --> 00:11:26.136 वह नमूना चखकर कहता है कि यह लो आठ सौ रूपये, और पूरी बोरी भेज देना। 00:11:26.160 --> 00:11:39.936 एक सैम्पल, दो दाने, लेकिन जाति नमक की नहीं है। नमक भी सफेद होता है और खाद भी सफेद होती है, वह भी दानेदार होती है। 00:11:39.960 --> 00:11:47.536 शुगर जैसी ही लगती है। ये खाद भी नहीं है और नमक भी नहीं है। 00:11:47.560 --> 00:11:50.976 मुंह में दो दाने रखे, पूरी बोरी भेज देना, बस! 00:11:51.000 --> 00:12:00.416 उसीप्रकार, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान का कारण भेदविज्ञान है। 00:12:00.440 --> 00:12:17.816 जिस भेदविज्ञान में यहाँ मुख्यरूप से अतीन्द्रिय ज्ञानमय आत्मा और इन्द्रियज्ञान, दोनों ही परस्पर सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं। 00:12:17.840 --> 00:12:21.656 उसमें कथंचित् भिन्न-अभिन्न लागू (नहीं) पड़ता। 00:12:21.680 --> 00:12:30.816 जिसप्रकार राग सर्वथा भिन्न है, पुण्य-पाप के परिणाम, उसमें कथंचित् भिन्न-अभिन्न नहीं आता। 00:12:30.840 --> 00:12:38.456 क्योंकि जाति दोनों की अलग है। एक चेतन और एक जड़। 00:12:38.480 --> 00:12:49.256 जैसे राग जड़ है, आत्मा की जाति से उसमें अलग लक्षण है। वह सामान्य का विशेष नहीं है। 00:12:49.280 --> 00:13:05.296
उसीप्रकार, अनादिकाल से आत्मा को भूला हुआ आत्मा, वह इन्द्रियज्ञान को ज्ञान मानकर बैठ गया है। आहाहा! 00:13:05.320 --> 00:13:13.936 किन्तु आचार्य प्रभु फरमाते हैं कि इन्द्रियज्ञान भगवान आत्मा से सर्वथा भिन्न है। 00:13:13.960 --> 00:13:24.096 सर्वथा भिन्न इसीलिये है, जैसे राग आत्मा के आश्रय से नहीं होता 00:13:24.120 --> 00:13:33.456 और राग आत्मा को प्रसिद्ध नहीं करता और राग आत्मा में व्यय नहीं होता। 00:13:33.480 --> 00:13:48.496 ऐसे जिसप्रकार राग पराश्रित है, उसीप्रकार इंद्रियज्ञान, पाँच इन्द्रिय और छठ्ठे मन का जो उघाड़ है, वह ज्ञेय है, ज्ञान नहीं है। 00:13:48.520 --> 00:14:00.336
जिसप्रकार राग आत्मा के आश्रय से नहीं होता उसीप्रकार इन्द्रियज्ञान (भी) आत्मा के आश्रय से नहीं होता। वह ज्ञेयाश्रित है। 00:14:00.360 --> 00:14:08.776 राग कर्म के आश्रित है और इन्द्रियज्ञान ज्ञेय के आश्रित है। 00:14:08.800 --> 00:14:15.896 इसलिए वह इन्द्रियज्ञान आत्मा को प्रसिद्ध नहीं करता। 00:14:15.920 --> 00:14:26.256 वह इन्द्रियज्ञान आत्मा में अभेद नहीं होता। और आत्मा के आश्रय से नहीं होता। 00:14:26.280 --> 00:14:31.496 इसलिए भगवान आत्मा और आत्मा के ज्ञान से (इन्द्रियज्ञान) सर्वथा भिन्न है। 00:14:31.520 --> 00:14:45.176 आत्मा से तो भिन्न है किन्तु जिस उपयोग लक्षण में आत्मा जानने में आता है, ऐसे उपयोग में भी इन्द्रियज्ञान का अभाव है। 00:14:45.200 --> 00:15:01.016
द्रव्यस्वभाव में तो अभाव है तीनों काल, लेकिन एक उपयोग लक्षण है जिसमें भगवान आत्मा बालगोपाल सबको जानने में आ रहा है। 00:15:01.040 --> 00:15:11.736 और वह उपयोग आत्मा से अनन्य है। वह कथंचित् अभिन्न है। 00:15:11.760 --> 00:15:26.656 जैसे इन्द्रियज्ञान सर्वथा भिन्न है, ऐसे ही जिसमें आत्मा अनुभव में आता है ऐसा जो ज्ञान, आहाहा! वह सर्वथा भिन्न नहीं है। 00:15:26.680 --> 00:15:33.576 वह कथंचित् अभिन्न है। उपयोग से आत्मा अनन्य है। 00:15:33.600 --> 00:15:41.896 उपयोग से आत्मा अनन्य इसीलिए है कि उस उपयोग में उपयोग जानने में आता है। 00:15:41.920 --> 00:15:48.936 उपयोग में उपयोग क्यों जानने में आता है? क्योंकि वह उपयोग में है इसलिए जानने में आता है। 00:15:48.960 --> 00:15:58.296 और रागादि उपयोग में नहीं है इसलिए उपयोग में राग जानने में नहीं आता। आहाहा! 00:15:58.320 --> 00:16:07.096 राग का करना तो बहुत दूर रहा, किन्तु जो जिसमें नहीं है वह जानने में (भी) नहीं आता। 00:16:07.120 --> 00:16:14.776 और जो जिसमें है वह जानने में आए बगैर रहता नहीं। आहाहा! 00:16:14.800 --> 00:16:23.576 यह इन्द्रियज्ञान और आत्मा के बीच के भेदज्ञान की गाथा ली है। 00:16:23.600 --> 00:16:36.976
दो हजार वर्ष पहले कुंदकुंदाचार्य समर्थ आचार्य हुए, जिनका तीसरा नाम प्रसिद्ध है। 00:16:37.000 --> 00:16:51.176 उन्होंने कलम चलायी और कहते हैं कि किसी का भी आत्मा, जगत के सभी जीवों की मैं बात करता हूँ। 00:16:51.200 --> 00:16:57.496 किसी का भी आत्मा पाँच इन्द्रियों के विषय को जानता नहीं है। 00:16:57.520 --> 00:17:12.616 आत्मा तो नहीं जानता, लेकिन आत्मा का एक लक्षण, उपयोग प्रगट होता है, वह भी स्पर्श-रस-गंध-वर्ण को नहीं जानता। 00:17:12.640 --> 00:17:19.296 क्योंकि स्पर्श-रस-गंध-वर्ण (का) वह उपयोग में अभाव है। 00:17:19.320 --> 00:17:25.336 उपयोग के बाहर वस्तु है, जड़, पुद्गल के परिणाम हैं। 00:17:25.360 --> 00:17:31.896 स्पर्श-रस-गंध-वर्ण और शब्द, वे आत्मा में तो नहीं हैं, जड़भाव हैं। 00:17:31.920 --> 00:17:41.856 लेकिन जिसमें आत्मा जानने में आता है ऐसे उपयोग में भी सर्वथा भिन्न हैं। 00:17:41.880 --> 00:17:51.416 अब, उपयोग में भिन्न हैं तो शुद्धोपयोगदशा प्रगट होती है, उसमें तो भिन्न ही होते हैं। उसमें प्रश्न ही नहीं है। 00:17:51.440 --> 00:18:04.056
आशीष और निर्मल आये हैं या नहीं? आशीष तो है। आहाहा! 00:18:04.080 --> 00:18:09.336 सभी के ज्ञान में भगवान आत्मा जानने में आता है। मुझे जाननहार जानने में आता है। 00:18:09.360 --> 00:18:17.536 अरे! स्वभाव के पक्ष में तू आजा तो स्वभाव की प्राप्ति हुये बिना रहेगी नहीं। 00:18:17.560 --> 00:18:28.416 उपयोग में उपयोग है। ज्ञान में ज्ञायक है। ज्ञान में रागादि या देहादि, कर्म-नोकर्म इसमें नहीं हैं। आहाहा! 00:18:28.440 --> 00:18:38.496 और जिसे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण जानने में आते हैं उनके लक्षपूर्वक वह अन-उपयोग हो गया, अज्ञान उपयोग हो गया, इन्द्रियज्ञान हो गया। 00:18:38.520 --> 00:18:45.736 वह स्वभाव को भूल गया। और जिसे जानता है उसे अपना माने बगैर रहता नहीं है। 00:18:45.760 --> 00:18:52.216
फैक्टरी को जानता है तो फैक्टरी मेरी। दुकान को जाना तो दुकान मेरी। 00:18:52.240 --> 00:18:59.616 दुकान में, हमने दुकान का सामान्य कथन किया। किसी की कोई दुकान, किसी की कोई दुकान, उसका कुछ नहीं। 00:18:59.640 --> 00:19:07.496 सूरूभाई! यह दुकान मेरी है और यह बराबर वाले की दुकान मेरी नहीं है, दो विभाग किये उसने। 00:19:07.520 --> 00:19:18.536 आहाहा! यह मेरा और यह तेरा इसप्रकार परपदार्थ में दो हिस्से नहीं हैं। वे सभी पराई वस्तुएं हैं। 00:19:18.560 --> 00:19:27.696 वे वस्तु तो पराई हैं लेकिन उनको जाननेवाला, वह ज्ञान मेरे से सर्वथा भिन्न है। 00:19:27.720 --> 00:19:40.376 इसलिए परपदार्थ को जानता नहीं है, आहाहा! और परपदार्थ को जाननेवाले ज्ञान को भी मैं जानता नहीं हूँ। 00:19:40.400 --> 00:19:55.336 मैं तो जिसमें आत्मा जानने में आता है ऐसे ज्ञान को जानता हूँ अथवा अभेद से आत्मा को जानता हूँ। 00:19:55.360 --> 00:20:04.816
दस लक्षण पर्व हैं न यह तो। अजमेराभाई! ऊँचा माल होता है न। आहाहा! 00:20:04.840 --> 00:20:14.576 कुंदकुंदाचार्य भगवान की क्या बात करें! जैनधर्म को टिका कर रखा है। मोक्षमार्ग को टिका कर रखा है। 00:20:14.600 --> 00:20:20.816 पंचमकाल के अंत तक रहेगा यह। अब दस गाथा के ऊपर से बात की। 00:20:20.840 --> 00:20:52.616 अब दस गाथा मूल लेते हैं। आहाहा! ३७३ से ३८२ तक। 00:20:52.640 --> 00:21:03.896
रागादि से तो भिन्न आत्मा है। यह बात तो जिनागम में, द्रव्यानुयोग में जगह-जगह हर ठिकाने पर है। 00:21:03.920 --> 00:21:09.656 राग से आत्मा भिन्न है यह बात तो स्थान-स्थान पर रही हुई है। 00:21:09.680 --> 00:21:17.936 लेकिन जैसे राग आस्रव तत्त्व है ऐसे इन्द्रियज्ञान भी आस्रव तत्त्व है। वह संवर तत्त्व नहीं है। 00:21:17.960 --> 00:21:24.176 जीव तत्व तो नहीं है, लेकिन संवर तत्व भी नहीं है। संवर का लक्षण उसमें नहीं है। 00:21:24.200 --> 00:21:34.856 अतः इन्द्रियज्ञान से आत्मा भिन्न है, उसके भेदज्ञान की गाथायें कम हैं। 00:21:34.880 --> 00:21:47.816 हैं सही, लेकिन जितनी "राग से आत्मा भिन्न है", उसकी बात जितनी प्रचलित है उतनी यह बात प्रचलित नहीं है। 00:21:47.840 --> 00:21:53.336 हैं तो सही। ज्ञानी लोग कह गये हैं। 00:21:53.360 --> 00:22:02.456 गुरुदेव ने भी इन्द्रियज्ञान से भेदज्ञान करने की गाथायें गिनकर व्याख्यान (किये हैं) जो छप गये हैं। 00:22:02.480 --> 00:22:13.616
लेकिन चलते-फिरते इन्द्रियज्ञान से भिन्न आत्मा है, उसका विचार करने का काल अब पका है। 00:22:13.640 --> 00:22:22.616 राग से तो आत्मा भिन्न है लेकिन राग को जाननेवाले ज्ञान से भी आत्मा (भिन्न है)। 00:22:22.640 --> 00:22:34.176 अरे! वह तो दूर रहो, दुकान और फैक्टरी को जाननेवाला ज्ञान, उससे तो आत्मा भिन्न ही है। 00:22:34.200 --> 00:22:50.936 आहाहा! लेकिन यह तीर्थंकरों की प्रतिमा, भगवान महावीर की प्रतिमा होती है, चौबीसवें तीर्थंकर हमारे 00:22:50.960 --> 00:23:04.616 अथवा विहरमान बीस तीर्थंकरों में, सीमंधर भगवान की प्रतिमा हो , उसको जाननेवाला ज्ञान आत्मा का नहीं है। 00:23:04.640 --> 00:23:18.136 वे परमात्मा तो मेरे नहीं हैं क्योंकि मेरा परमात्मा तो यहाँ (मेरे में) विराजमान है। 00:23:18.160 --> 00:23:26.256 वे (तीर्थंकर) व्यवहार से परमात्मा हैं। उनके दर्शन रोज करने का मुझे भाव आता है। 00:23:26.280 --> 00:23:35.256 किन्तु उनके प्रति जो शुभराग होता है वह मेरा नहीं है। यह तो ठीक, 00:23:35.280 --> 00:23:59.136 किन्तु उनको जाननेवाली जो चक्षुइन्द्रिय, बहिर्मुख ज्ञान है, जिसमें प्रतिमा ज्ञात होती है और इस में आत्मा ज्ञात नहीं होता, वह ज्ञान मेरा नहीं है। 00:23:59.160 --> 00:24:08.936 अरे! वह तो ठीक किन्तु साक्षात् तीर्थंकर भगवान विराजमान हों, इन्द्र और देव उनकी सभा में हों 00:24:08.960 --> 00:24:20.576 और गौतम गणधर आदि उनकी उपस्थिति हो और उनके सामने इन्द्रियज्ञान देखता है लेकिन आत्मा उनके सामने देखता (नहीं है)। 00:24:20.600 --> 00:24:27.496
आत्मा अपने ज्ञान को छोड़कर, वह परपदार्थ को जानने जाता नहीं है। 00:24:27.520 --> 00:24:35.776 और जो पर को जानता है वह ज्ञान मेरा नहीं है। आहाहा! ज्ञान और ज्ञान के बीच का भेदज्ञान है। 00:24:35.800 --> 00:24:47.656 ज्ञान से ज्ञान भिन्न है। निश्चय ज्ञान से व्यवहार ज्ञान भिन्न है। आहाहा! ऐसी अद्भुत बात! 00:24:47.680 --> 00:24:55.416 ऐसी बात आज से दो हजार वर्ष पहले, कुंदकुंदाचार्य भगवान ताड़पत्र में लिखकर गये हैं। 00:24:55.440 --> 00:25:03.696 उसमें हमारा नाम है ऊपर। शास्त्र खोला, जो खोलता है और पढ़ता है उसका। उसके पढ़ने में आता है नाम। 00:25:03.720 --> 00:25:11.296 जो शास्त्र बंद रखता है अलमारी में, उसमें उसका नाम तो होता है लेकिन खोलकर पढ़े तो, तो उसका नाम होता है अंदर। 00:25:11.320 --> 00:25:22.856 लेकिन पढ़े ही नहीं। लिखा हुआ तो नाम है उसमें, लेकिन उसको ख्याल नहीं आता। 00:25:22.880 --> 00:25:28.736 लेकिन जो आँख उघाड़कर देखता है और आत्मा की रूचिपूर्वक पढ़ता है, अभ्यास करता है, ओहो! 00:25:28.760 --> 00:25:37.216 यह तो धर्म पिता का पत्र मेरे लिए आया है। ये तो मुझे ही कहते हैं। आहाहा! 00:25:37.240 --> 00:25:42.216
कि इन्द्रियज्ञान भिन्न है और अतीन्द्रियज्ञान (मयी) भगवान आत्मा उससे सर्वथा भिन्न है। 00:25:42.240 --> 00:25:51.296 इन्द्रियज्ञान के द्वारा जानने का काम आत्मा नहीं करता है। कर सकता नहीं। 00:25:51.320 --> 00:26:02.256 "इन्द्रियज्ञान के द्वारा मैं जानता हूँ," इसप्रकार ज्ञेय और ज्ञायक की एकता की उसने, (यह) मिथ्यादर्शन है, मिथ्याज्ञान है। 00:26:02.280 --> 00:26:14.456 आहाहा! इन्द्रियज्ञान भले पर को जाने लेकिन मैं इन्द्रियज्ञान के द्वारा, द्वारा अर्थात् 'साधन'- करण। 00:26:14.480 --> 00:26:28.736 रमेश, तो अभ्यासी हैं भाई। आहाहा! उस भिन्न साधन के द्वारा आत्मा पर को जाने ऐसा तो आत्मा का स्वभाव नहीं है। 00:26:28.760 --> 00:26:43.376 और अभिन्न साधन के द्वारा आत्मा को ही जाने और पर (को) न जाने, ऐसा उसका स्वभाव है। अलौकिक अपूर्व बात है। 00:26:43.400 --> 00:26:50.496 आत्मा की आराधना के दिवस हैं न? इन्द्रियज्ञान मेरा नहीं है। 00:26:50.520 --> 00:26:59.256 अब, इन्द्रियज्ञान मनुभाई, तुम्हारा नहीं है, तो इंद्रियज्ञान जिसको जानता है वह चीज तुम्हारी कहाँ से होगी? 00:26:59.280 --> 00:27:06.656 इन्द्रियज्ञान ही, यदि आत्मा की प्रॉपर्टी नहीं है; 00:27:06.680 --> 00:27:16.576 इन्द्रियज्ञान आत्मा की प्रॉपर्टी नहीं है तो यह प्रॉपर्टी किसकी होगी? धीरूभाई! आहाहा! 00:27:16.600 --> 00:27:28.736 अरे! इन्द्रियज्ञान से आत्मा भिन्न है। देख ले न, तुझे जानने में आ जायेगा! अरे! जानने में आ ही रहा है! 00:27:28.760 --> 00:27:36.176 अकेला इन्द्रियज्ञान प्रगट नहीं होता, बल्कि उसका (आत्मा का) लक्षण उपयोग भी साथ में प्रगट होता है। 00:27:36.200 --> 00:27:44.656 और उस उपयोग में बालगोपाल सबको, उसमें तू (भी) आ गया। तुझे जानने में आता है। इसप्रकार। 00:27:44.680 --> 00:27:47.656 दूसरे को जानने में आता है ऐसा नहीं लेना। मुझे जानने में आता है। 00:27:47.680 --> 00:27:53.188 कब जानने में आता होगा? स्वाध्याय मंदिर में आते हैं तब? 00:27:53.212 --> 00:28:03.496 दुकान पर आते हैं तब नहीं जानने में आता? ऐसा होगा? चौबीसों घंटे (जानने में आता है)। आहाहा! 00:28:03.520 --> 00:28:12.856
गुरुदेव तो सब कुछ दे गये हैं लेकिन इसका ध्यान खिंचता नहीं है। उसमें श्रीगुरु क्या करें? आहाहा! 00:28:12.880 --> 00:28:30.736 ज्ञानी कोई बात छुपाते नहीं। आहाहा! अरे! (जब) ऊँचे न्याय आते हों और कोई पास में खड़ा हो, तो तुरंत बुलाकर बिठाकर कह देते हैं। 00:28:30.760 --> 00:28:39.296 कि सुन! यह विचार मुझे आया है। आहाहा! वे नहीं कहते तब तक उनके पेट में दुःखता है, चैन नहीं पड़ता। 00:28:39.320 --> 00:28:55.656 आहाहा! वे कह ही देते हैं। कि मैं कहूँगा तो मेरे शिष्य मेरे से आगे बढ़ जायेंगे, ऐसा ज्ञानी को नहीं होता। 00:28:55.680 --> 00:29:14.976 वे न्याय छुपाते हों तो वे ज्ञानी नहीं हैं। ये छुपाने की बातें नहीं हैं। ये तो प्रसिद्ध करने की बातें हैं। 00:29:15.000 --> 00:29:18.788
कि "इन्द्रियज्ञान वह ज्ञान नहीं है" डंके की चोट पर। 00:29:18.812 --> 00:29:24.376 नाम ही ऐसा रखा किताब का कि 'इन्द्रियज्ञान वह ज्ञान नहीं है’। 00:29:24.400 --> 00:29:28.656 पहले एक हजार कॉपी छपी थी। तुरंत ही खप गई। 00:29:28.680 --> 00:29:37.216 एक पार्टी का लंदन से फोन आया कि एक लाख रूपये में जितनी पुस्तक छपें उतनी छाप दो। 00:29:37.240 --> 00:29:48.456 जितनी छपें उतनी छापो और सबको फ्री दो। (मैंने) कहा 'तो लगभग पच्चीस सौ-तीन हजार पुस्तक छपेंगी।' 00:29:48.480 --> 00:29:55.056 कि फ्री देना। मैंने कहा कि 'फ्री नहीं, दस रूपया रखना कम से कम। भले साठ (रूपये) की पड़े, पचास की पड़े पुस्तक में।' 00:29:55.080 --> 00:30:01.016 (उन्होंने कहा) कि 'ठीक है, ऐसा ही करना।' तीन हजार पुस्तकें छपायी! और चार हजार पुस्तकें हो गयी गुजराती में। 00:30:01.040 --> 00:30:05.656 और गुजराती की संख्या तो कम है, इसलिए धीरे धीरे खपती हैं। 00:30:05.680 --> 00:30:10.136 यहाँ पर खपाने को पाँच सौ पुस्तकें खप जाती आज। ज्यादा होती तो खप जाती। 00:30:10.160 --> 00:30:17.296
इसप्रकार हिंदीभाषी भाइयों ने भी एक हजार पुस्तक छपवाई। 00:30:17.320 --> 00:30:22.656 वहाँ हिम्मतनगर में निश्चित हुआ था और एक हजार पुस्तकें छपी। 00:30:22.680 --> 00:30:29.256 ये शांति साहेब पीछे बैठे हैं वगैरह-वगैरह, सभी हिन्दी भाई हैं। आहाहा! 00:30:29.280 --> 00:30:36.656 एक हजार पुस्तक में से नौ सौ पुस्तक खप गई हैं। सौ पुस्तक उनके पास रखी हुई हैं। 00:30:36.680 --> 00:30:45.096 वे तो स्वाध्याय के लिए रखी हैं, नहीं तो सौ भी खप जाती। लेकिन छह सौ की डिमांड आकर खड़ी है, छपवाओ-छपवाओ-छपवाओ-छपवाओ। 00:30:45.120 --> 00:30:53.536 सौ मँगाते हैं उनको तीस (किताबें) भेजते हैं। कोटा से सौ प्रतियाँ मंगायी, तो बीस या तीस मुश्किल से भेजी। कितनी? 00:30:53.560 --> 00:31:02.136
मुमुक्षु :- बीस वहाँ से भेजी हैं।
उत्तर :- बीस वहाँ से भेजी हैं। बोलो! सौ मंगायी उन्होंने। 00:31:02.160 --> 00:31:10.496 आहाहा! अपूर्व चीज है यह तो। भेदज्ञान की पराकाष्ठा है यह। 00:31:10.520 --> 00:31:19.016 जीव लुट गया है इन्द्रियज्ञान को ज्ञान मानकर। है ज्ञेय, भिन्नरूप ज्ञेय है। 00:31:19.040 --> 00:31:28.856 हेयरूप ज्ञेय है। आश्रय करने के लिये उपादेय नहीं है। और प्रगट करने के लिये भी उपादेय नहीं है। 00:31:28.880 --> 00:31:41.616 ऐसी अलौकिक बात इन दस गाथाओं में है। आहाहा! उसकी जीभ से प्रशंसा हो पाये ऐसा नहीं है। 00:31:41.640 --> 00:32:00.480 आहाहा! कितनी प्रशंसा करनी उसकी? 00:32:00.500 --> 00:32:09.576
जिस तरह से हिंदुस्तान में खलबलाहट हुई, गुरुदेव का उदय हुआ तब। 00:32:09.600 --> 00:32:20.896 समयसार-समयसार-समयसार, चारों तरफ। तो वर्तमान के जो विद्वान थे वे कहीं समयसार पढ़ते नहीं थे। 00:32:20.920 --> 00:32:27.936 उसमें यह सोनगढ़ से चिनगारी सत्य की बाहर आयी, समयसार-समयसार-समयसार! 00:32:27.960 --> 00:32:35.096 तो लोग पंडितों से पूछने लगे प्रश्न कि पंडितजी, इस समयसार में इस गाथा का क्या अर्थ है? 00:32:35.120 --> 00:32:43.496 तो कहते कि हमने तो पढ़ा ही नहीं है। अब यह जो प्रजा पूछने लगी है तो हमें पढ़ना तो पड़ेगा ही। 00:32:43.520 --> 00:32:49.616 उसका जवाब देने के लिये उन्होंने वाँचन शुरू किया, विद्वानों ने, हों! विद्वान बड़े- बड़े डिग्रीवाले। 00:32:49.640 --> 00:32:56.336 कोई शास्त्री और कोई आचार्य, उनकी बात चलती है, साधारण की बात नहीं। आहाहा! 00:32:56.360 --> 00:33:08.736 बाद में कैलाशचंदजी पंडित लिखते हैं कि यह गुरुदेव का उपकार है। (उनसे) उदय हुआ समयसार का। 00:33:08.760 --> 00:33:12.736 और हमें यह पढ़ने की जरूरत पड़ी। (लोग) पूछने लगे इसलिए। 00:33:12.760 --> 00:33:17.376 पर अलौकिक भेदज्ञान का शास्त्र है। बहुत प्रशंसा करते थे। 00:33:17.400 --> 00:33:23.336
इस तरह यह 'इन्द्रियज्ञान वह ज्ञान नहीं है’ अपनी पुस्तक के फैलाव के बाद, 00:33:23.360 --> 00:33:29.416 ए पंडितजी! यह इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है, वो समझाओ न जरा? लेकिन उन्होंने पढ़ा ही न हो, तो कहाँ से समझायें? 00:33:29.440 --> 00:33:37.776 इसलिए शांतिसागर को लिखते हैं कि भाई! एक कॉपी भेजना। हमारे यहाँ लोग पूछते हैं, अब हमें तैयारी करनी पड़ेगी। 00:33:37.800 --> 00:33:45.016 आहाहा! ऐसा युग आनेवाला है। थोड़ा-थोड़ा शुरू हो गया है। 00:33:45.040 --> 00:33:50.056 समाज पूछेगा, कि इन्द्रियज्ञान ज्ञान है या अज्ञान? 00:33:50.080 --> 00:33:55.976 ज्ञान तो कह सकते नहीं क्योंकि उसमें तो आत्मा जानने में नहीं आता। 00:33:56.000 --> 00:34:03.216 आहाहा! एक युग आनेवाला है। लगभग दो वर्ष लगेंगे, वरना दो वर्ष में तो भड़ाका होगा। 00:34:03.240 --> 00:34:12.976 चिनगारी बाहर निकल गई है। एक हजार पुस्तक हिंदी में छप गई हैं। 00:34:13.000 --> 00:34:23.336 हिंदी में तो दस हजार छपें तो भी कम हैं, क्योंकि हिंदी मुमुक्षु भाइयों की संख्या, गुजराती मुमुक्षुओं से बहुत ज्यादा है। 00:34:23.360 --> 00:34:33.776 और गुजराती की अपेक्षा वे बहुत मेहनती हैं। आहाहा! गुजराती तो आरामतलब, जरा प्रमादी। 00:34:33.800 --> 00:34:47.896
मुमुक्षु :- (उनको तो) तैयार माल मिलता है न।
उत्तर :- तैयार। आहाहा! इन्द्रियज्ञान और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। 00:34:47.920 --> 00:34:55.296 सर्वथा भिन्न हैं। अतीन्द्रियज्ञान की पर्याय प्रगट होती है, वह कथंचित् भिन्न-अभिन्न है। 00:34:55.320 --> 00:35:02.976 और इन्द्रियज्ञान तो सर्वथा भिन्न है। आहाहा! यह समयसार की ३१ वीं गाथा में है। 00:35:03.000 --> 00:35:07.176 बहुत सी जगह पर है। यह तो तुम्हें एक उदाहरण दिया। आहाहा! 00:35:07.200 --> 00:35:14.496 सर्वथा भिन्न, तो एकांत हो जायेगा। कि तब अनेकांत होगा! 00:35:14.520 --> 00:35:20.496 कि आत्मा ज्ञानमय है और इन्द्रियज्ञान की आत्मा में नास्ति है, उसे अनेकांत कहने में (आता है)। 00:35:20.520 --> 00:35:28.736 अस्ति-नास्ति अनेकांत भेदज्ञानपरक है। अब यह मूल गाथा फिर रह जाएगी इसलिए अब यह (विषय) लंबा नहीं होगा। 00:35:28.760 --> 00:35:51.616
दो गाथा चली हैं। आज तीसरी गाथा (३७५) अशुभ अथवा शुभ शब्द। शब्द तो ज्ञेय है। 00:35:51.640 --> 00:36:04.416 शब्द में शुभ या अशुभ ऐसी कोई छाप नहीं है। लेकिन कोई शब्द उसे प्रिय लगता है तो उसे शुभ कहा जाता है, और अप्रिय लगता है तो उसे अशुभ कहा जाता है। 00:36:04.440 --> 00:36:11.736 यहाँ के परिणाम का आरोप उस शब्द के ऊपर दिया जाता है। ज्ञेय कहीं अच्छा-बुरा नहीं है। 00:36:11.760 --> 00:36:20.656 ज्ञेय तो ज्ञेय ही है। ज्ञेय के दो विभाग नहीं हैं। लेकिन यहाँ उसे मन से अच्छा लगता हो तो उसे शुभ शब्द कहा जाता है 00:36:20.680 --> 00:36:24.896 और अच्छा नहीं लगता हो तो उसे अशुभ शब्द कहा जाता है। 00:36:24.920 --> 00:36:34.696
अशुभ अथवा शुभ शब्द तुझसे यह नहीं कहता, देखना आचार्य भगवान की शैली। 00:36:34.720 --> 00:36:44.456 अज्ञानी को कहते हैं कि हे भव्य आत्मा! कोई भी शब्द, प्रिय या अप्रिय तुझे लगता हो, 00:36:44.480 --> 00:36:53.856 तो शब्द तुझसे यह नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन';। 00:36:53.880 --> 00:37:01.616 शब्द कहीं ऐसा नहीं कहता कि तू मुझे सुन क्योंकि उसमें इस प्रकार से कहने की शक्ति नहीं है। 00:37:01.640 --> 00:37:10.776 पुद्गल शब्दरूप परिणमे वह उसकी शक्ति है लेकिन दूसरों को ऐसा कहने की शक्ति नहीं है कि 'तू मुझे सुन'। 00:37:10.800 --> 00:37:21.016
क्या कहा? शब्द पुद्गल की अवस्था है। वह शब्दरूप से परिणमता है यह बात सच है। 00:37:21.040 --> 00:37:32.376 लेकिन कोई शब्द रूप से परिणमे पुद्गल, तो वह शब्द तुझसे यह नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन' 00:37:32.400 --> 00:37:45.936 उसमें कहने की शक्ति का ही अभाव है। आहाहा! उसमें आत्मा को कहने की शक्ति का अभाव है। 00:37:45.960 --> 00:38:00.416 और आत्मा में उसे जानने की शक्ति का अभाव है। तब (प्रश्न होता है कि) मैं नहीं सुनता तो कौन सुनता है? 00:38:00.440 --> 00:38:09.256 आहाहा! वह सुननेवाली चीज अलग है और आत्मा को जाननेवाला ज्ञान (अलग है)। 00:38:09.280 --> 00:38:13.216 यह इसमें कहेंगे अभी। आहिस्ता-आहिस्ता जरा। 00:38:13.240 --> 00:38:28.576
शब्द तुझसे यह नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन' ;एक साइड। सामने की तरफ से बात की। 00:38:28.600 --> 00:38:36.976 पुद्गल ऐसा कहता नहीं कि तू मुझे सुन। ऐसा नहीं कहता। आहाहा! 00:38:37.000 --> 00:38:45.776 इसप्रकार चले जाते हों हम और मोटर का हॉर्न बजता हो, वह शब्द की पर्याय है न! 00:38:45.800 --> 00:38:51.016 हॉर्न बजा, भू-भू हुआ, तो उसने तुम्हें किसी को कहा कि मुझे सुन? 00:38:51.040 --> 00:39:03.056 मैंने तो देखा नहीं कि कोई शब्द कहता हो कि मुझे सुन। ऐसा कहने की शक्ति का उसमें अभाव है। 00:39:03.080 --> 00:39:14.856 बात जरा सूक्ष्म तो है। यह सामने की साइड से बात की है। कि शब्द नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन'! 00:39:14.880 --> 00:39:18.776
अब यह (अपनी) साइड से बात करते हैं। समझाते हैं। 00:39:18.800 --> 00:39:29.576 और आत्मा भी, वह (शब्द) यह नहीं कहता कि 'तू मुझे सुन'। 00:39:29.600 --> 00:39:48.056 और आत्मा भीअपने को जानना छोड़कर, जाननहार को जानना छोड़कर ज्ञान उसे जानने जाये, ऐसा बनता ही (नहीं है)। 00:39:48.080 --> 00:39:55.896 वह ज्ञान तो स्वयं को ही जाना करता है। अपने को जानना छोड़े तो उसका (पर का) जानना हुआ, ऐसा कहा जाये। 00:39:55.920 --> 00:40:04.216 लेकिन आत्मा तो अपने को जानना छोड़ता ही नहीं है। सभी के पास यह स्थिति है। 00:40:04.240 --> 00:40:11.136 आहाहा! ऐसा जाने उसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट हो जाये, ऐसी चीज है। 00:40:11.160 --> 00:40:19.416 आत्मा भी, (अपने स्थान से च्युत होकर), अर्थात् अपने को जानना छोड़कर, 00:40:19.440 --> 00:40:35.896 जाननहार को जानना छोड़कर, अरे! जाननहार को जानना यदि ज्ञान छोड़े, तो ज्ञान और ज्ञायक कोई रहता नहीं है। आहाहा! 00:40:35.920 --> 00:40:41.856 यह प्रकाश का उदाहरण आयेगा बाद में टीका में। आहाहा! 00:40:41.880 --> 00:40:51.748
दीपक का प्रकाश दीपक के प्रकाश को छोड़कर घट-पट को प्रकाशित करने नहीं जाता। 00:40:51.772 --> 00:41:00.656 इसलिए प्रकाशित करता नहीं है। आहाहा! यह टीका में आयेगा। 00:41:00.680 --> 00:41:09.056 यहाँ तो कहते हैं ज्ञानानंद भगवान आत्मा और उसके अंदर एक जाननेवाला ज्ञान भी प्रगट होता है। 00:41:09.080 --> 00:41:23.456 वह ज्ञान जानता है और ज्ञायक उसमें जानने में आता है। ऐसा फंक्शन, ऐसी क्रिया, सभी आत्माओं में निरंतर हो रही है। 00:41:23.480 --> 00:41:35.336 वह उपयोग आत्मा को तन्मय होकर जाना करता है। और उस उपयोग में जो नहीं है उसको जानता (नहीं है)। 00:41:35.360 --> 00:41:41.736 है उसको जानता है, नहीं है उसको जानता (नहीं है)। 00:41:41.760 --> 00:41:51.016
दीपक का प्रकाश, प्रकाश में दीपक है इसलिए दीपक को प्रसिद्ध करता है लेकिन घटपट को प्रसिद्ध करता (नहीं है)। 00:41:51.040 --> 00:41:56.068 प्रकाशित करता ही नहीं है क्योंकि घटपट का उसमें अभाव है। 00:41:56.092 --> 00:42:03.856 'जिसका जिसमें अभाव होता है उसको प्रसिद्ध करता नहीं है'। आहाहा! 00:42:03.880 --> 00:42:11.976 ज्ञाता-ज्ञेय और कर्ता-कर्म एक पदार्थ में होता है। दो पदार्थ के बीच में ज्ञाता-ज्ञेय है नहीं। 00:42:12.000 --> 00:42:21.376 वह भ्रांति है। मैं ज्ञाता और ये छह द्रव्य मेरे ज्ञेय, यह तो भ्रांति हो गई है तुझे। तेरे वे ज्ञेय नहीं हैं। 00:42:21.400 --> 00:42:27.136 उन्हें ज्ञेय मानेगा तब तक मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान है। 00:42:27.160 --> 00:42:36.136
निश्चय से ज्ञेय नहीं तो कोई बात नहीं, लेकिन व्यवहार से ज्ञेय है या नहीं? व्यवहार से ज्ञेय अर्थात् क्या? 00:42:36.160 --> 00:42:41.896 आत्मा व्यवहार से छह द्रव्यों को जानता है। अर्थात् क्या? उसका अर्थ समझाओ। 00:42:41.920 --> 00:42:51.856 कि जानता है इन्द्रियज्ञान और उपचार आया कि आत्मा उसे जानता है। 00:42:51.880 --> 00:43:00.896 उस उपचार के झूठे कथन को सच्चा माना कि मैं उसे जानता हूँ। यह भ्रांति है बड़ी तेरी। 00:43:00.920 --> 00:43:07.976
यह जानने में भूल। एक करने की भूल और एक जानने की भूल। दो भूल हैं। 00:43:08.000 --> 00:43:14.896 या तो राग को मैं करता हूँ ऐसा मानता है और या फिर राग को मैं जानता हूँ ऐसा मानता है। 00:43:14.920 --> 00:43:28.616 जानता है ज्ञान स्व को। आत्मा का ज्ञान जिसका है उसे जानता है। और मानता है, मानने में आ गया है कि मैं पर को जानता हूँ। 00:43:28.640 --> 00:43:35.896 वह ज्ञान का अज्ञान हो गया। आहाहा! उसे आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता। 00:43:35.920 --> 00:43:47.496
शब्द कहते नहीं है कि 'तू मुझे सुन', और आत्मा भी अपने को जानना छोड़े तो उसे जानने जाये न? 00:43:47.520 --> 00:43:54.576 अपने को जानना तो छोड़ता नहीं। अपने को जाना ही करता है निरंतर। 00:43:54.600 --> 00:44:00.376 बाल-गोपाल सर्व को सदाकाल, सर्व को, छोटे-बड़े सभी आ गये। 00:44:00.400 --> 00:44:05.736 सदाकाल सभी काल मात्र अनादि अनंत। सदाकाल आया न? 00:44:05.760 --> 00:44:16.336 अनुभूति स्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा, आहाहा! उसका अनुभव निरंतर हुआ करता है। 00:44:16.360 --> 00:44:23.216 अनुभव अर्थात् उसका ज्ञान निरंतर (हुआ करता है)। ज्ञान में ज्ञायक जानने में आया करता है। 00:44:23.240 --> 00:44:30.176 एक समय ऐसा नहीं होता कि आत्मा के ज्ञान में आत्मा जानने में न आये। 00:44:30.200 --> 00:44:35.148
वह सामान्य उपयोग है। उस उपयोग से आत्मा अनन्य है। 00:44:35.172 --> 00:44:39.336 इसलिए उस उपयोग में आत्मा जानने में आ रहा है सभी को। 00:44:39.360 --> 00:44:42.668 और जानने में आ रहा है, मुझे जाननहार जानने में आता है। 00:44:42.692 --> 00:44:48.796 इसप्रकार परोक्ष में आने के पश्चात, यदि प्रत्यक्ष होता है तो शुद्धोपयोग हो जाता है। 00:44:48.820 --> 00:44:57.936 उस पहले उपयोग में आनंद नहीं था लेकिन दूसरे उपयोग में आनंद आता है। 00:44:57.960 --> 00:45:06.656 किन्तु पहले उपयोग में पक्ष आता है। दूसरे उपयोग में पक्षातिक्रांत होता है। 00:45:06.680 --> 00:45:11.508 अभी इस उपयोग में आत्मा जानने में आता है 00:45:11.532 --> 00:45:16.536 ऐसे स्वभाव के पक्ष में भी नहीं आता और मुझे यह जानने में आता है- यह जानने में आता है। 00:45:16.560 --> 00:45:25.336 जो भिन्न है वह तुझे जानने में आता है और जो उपयोग से अभिन्न है वह तुझे जानने में नहीं आता? आहाहा! 00:45:25.360 --> 00:45:34.216 एक अमितगति आचार्य हैं। समर्थ आचार्य हो गये हैं। योगसार उन्होंने लिखा है। 00:45:34.240 --> 00:45:40.976 दो प्रकार के योगसार हैं। एक योगीन्दुदेव का योगसार। उन्होंने परमात्मप्रकाश की रचना की है। 00:45:41.000 --> 00:45:48.536 योगसार के १०८ दोहे हैं। उसमें तो श्लोक बहुत हैं। अमितगति आचार्य के योगसार में। 00:45:48.560 --> 00:45:56.856 उन्होंने अज्ञानी जीवों को आसान में आसान उपाय बताया है। 00:45:56.880 --> 00:46:05.496 जयपुर में डिग्री प्राप्त न की हो, क, ख, ग, घ, न सीखा हो, आता न हो, A-B-C-D तो कहाँ से आयेगी? 00:46:05.520 --> 00:46:16.016 जहाँ गुजराती क, ख, न आता हो तो। अंगूठा छाप हो। समझ गये? कुछ भी पढ़ा हुआ न हो और उसे अनुभव हो जाता है। 00:46:16.040 --> 00:46:25.136
कि इस समयसार की तुम गाथा.., समयसार शब्द पढ़ना आता है? कि साहेब! वह पढ़ना नहीं आता। मुझे पढ़ना नहीं आता है। 00:46:25.160 --> 00:46:34.336 पढ़ना नहीं आता, लिखना नहीं आता। और उसके ऊपर करुणा आ गई आचार्य भगवान को, कि सभी जीव प्राप्त करो! 00:46:34.360 --> 00:46:43.216 आहाहा! ऐसी करुणा में कलम चलायी उन्होंने। उसमें एक दृष्टान्त दिया। 00:46:43.240 --> 00:46:53.616 आत्मा का अनुभव जल्दी हो जाये उसके लिये, एक सरल दृष्टान्त और सभी को अनुभव में रोज आता है ऐसा दृष्टान्त। 00:46:53.640 --> 00:47:08.896
कि सुन! जैसे दीपक है न? दीपक, दीपक है वह द्रव्य कहलाता है। उसे द्रव्य कहा जाता है। 00:47:08.920 --> 00:47:14.096 और उसमें से प्रकाश फैलता है वह उसकी पर्याय कहलाती है। 00:47:14.120 --> 00:47:22.336 प्रकाशक, दीपक का नाम प्रकाशक, प्रकाश का करनेवाला प्रकाशक। 00:47:22.360 --> 00:47:31.696 और उसमें से जो तेज निकला उसका नाम प्रकाश। उसका नाम प्रकाश। 00:47:31.720 --> 00:47:44.216 प्रकाशक और प्रकाश। द्रव्य का नाम है प्रकाशक और जो प्रकाश फैला, उसका नाम, उसकी पर्याय है, प्रकाश। 00:47:44.240 --> 00:47:49.736 उस प्रकाशक में से प्रकाश निकलता है या अंधेरा निकलता है?
मुमुक्षु :- प्रकाश। 00:47:49.760 --> 00:47:59.136
उत्तर :- कि अंधेरा तो निकलता ही नहीं। इतनी बात तो निश्चित हो गई? हें! फिर उससे आगे कहते हैं। 00:47:59.160 --> 00:48:11.816 उस प्रकाश में तुझे घटपट जानने में आते हैं, जो प्रकाश से सर्वथा भिन्न हैं, प्रकाश से। वह तो सभी को अनुभव है। 00:48:11.840 --> 00:48:19.176 रात को सोफासेट को वह प्रकाशित करता है। लेकिन सोफासेट को प्रकाशित करे, ऐसा नहीं होता, वह तो सर्वथा भिन्न है। 00:48:19.200 --> 00:48:25.696 कालाजी! यह तो सीधी बात है। यह दृष्टान्त तो समझ में आये ऐसा है। 00:48:25.720 --> 00:48:38.856 अब कहते हैं कि जो प्रकाश से सर्वथा भिन्न है, वह तुझे जानने में आता है। वह तुझे (जानने में आता है)? और प्रकाश तुझे जानने में नहीं आता? 00:48:38.880 --> 00:48:43.616 हमें तो आश्चर्य होता है! 00:48:43.640 --> 00:48:55.176
(शिष्य:-) कि 'चलो साहेब! वह नहीं जानने में आता। प्रकाश जानने में आता है।' प्रकाश तुझे जानने में आता है न? तो प्रकाशक तुझे जानने में आ जायेगा। 00:48:55.200 --> 00:49:06.016 क्योंकि प्रकाश और प्रकाशक कथंचित् अभिन्न हैं। दृष्टान्त आसान है। इसमें न समझ में आये? 00:49:06.040 --> 00:49:13.136 प्रकाश के द्वारा घटपट तुझे (जानने में आते हैं) जो भिन्न हैं, दीपक से भिन्न और दीपक के प्रकाश से भी भिन्न। 00:49:13.160 --> 00:49:19.896 कथंचित् भिन्न या सर्वथा, मनुभाई?
मुमुक्षु :- सर्वथा भिन्न।
उत्तर :- सर्वथा भिन्न। 00:49:19.920 --> 00:49:27.136 अब जो सर्वथा भिन्न है वह तुझे ज्ञात होता है और प्रकाश तुझे ज्ञात नहीं होता? 00:49:27.160 --> 00:49:37.216 अतः तुझे प्रकाश ज्ञात होता है ऐसा ले। दीपक न जानने में आये अभी थोड़ी देर तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तुझे जानने में आ जायेगा। हमें विश्वास है। 00:49:37.240 --> 00:49:47.336 यदि प्रकाश में आयेगा तो प्रकाशक जानने में आ ही जायेगा। क्योंकि प्रकाश और प्रकाशक एक वस्तु है। एक सत्ता है, दो सत्ता नहीं है। 00:49:47.360 --> 00:49:54.456 पदार्थ अपेक्षा से एक सत्ता है। नय अपेक्षा से दो सत् अलग-अलग हैं। वह अलग विषय है। यह तो एक अभेद है। 00:49:54.480 --> 00:50:09.176
प्रकाश को जानते ही प्रकाशक तुझे जानने में आ जायेगा और तेरा लक्ष घड़े के ऊपर से छूट जायेगा कि यह घड़ा जानने में आता है-घड़ा जानने में आता है-घड़ा जानने में आता है, यह छूट जायेगा। 00:50:09.200 --> 00:50:18.096 पहले कहता था कि यह लाइट हुई, ट्यूबलाइट। फिर चली गई थी। अब क्या जानने में आता है? कि प्रकाश। 00:50:18.120 --> 00:50:25.816 कि अंधेरा था तब वह परपदार्थ नहीं जानने में आता, यह बात सही है। प्रकाश हुआ तो यह पदार्थ क्या नहीं जानने में आता? 00:50:25.840 --> 00:50:34.976 पप्पाजी! मुझे यह सोफासेट ज्ञात नहीं होता। मुझे तो प्रकाश ज्ञात होता है। तो तेरे गुरु ने ऐसा सिखाया है? कि हाँ! 00:50:35.000 --> 00:50:43.176 हमारे सोनगढ़ के संत ने ऐसा सिखाया है। आहाहा! जो प्रकाश जानने में आता है, यहाँ पर पूर्णविराम किया या आगे भी कुछ कहा? 00:50:43.200 --> 00:50:48.096 कि मुझे तो ऐसा कहा कि प्रकाश जानने में आने पर प्रकाशक (जानने में आ जायेगा)। और मुझे तो जानने में आ गया। 00:50:48.120 --> 00:50:57.856 तुम्हें जानने में आये या न जानने में आये वह तो तुम जानो। ऐसे आसान में आसान उदाहरण के द्वारा (समझाया)। 00:50:57.880 --> 00:51:05.416 अब हमें आत्मा के ऊपर उतारना है यह दृष्टान्त। दृष्टान्त तो दृष्टान्त के लिये ही था। सिद्धांत को आसान करने के लिये। 00:51:05.440 --> 00:51:12.656
अब, आचार्य भगवान कलम चलाते हैं कि यह ज्ञायक आत्मा है न? आहाहा! 00:51:12.680 --> 00:51:19.496 जानने-देखने की इसमें दशा होती है। ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग, सामान्य और विशेष। 00:51:19.520 --> 00:51:25.996 दो प्रकार के उपयोग प्रगट होते हैं। जीव हो और उपयोग प्रगट न हो, ऐसा होता नहीं। 00:51:26.020 --> 00:51:31.096 लक्ष्य हो और लक्षण न हो ऐसा हो नहीं सकता। कि हाँ! सही है। 00:51:31.120 --> 00:51:39.056 ज्ञायक आत्मा द्रव्य है और उसमें एक प्रगट पर्याय होती है जानने-देखने की क्रिया। 00:51:39.080 --> 00:51:45.736 जैसे प्रकाशक और प्रकाश, इसीप्रकार ज्ञायक और ज्ञान। 00:51:45.760 --> 00:51:57.736 ज्ञायक-ज्ञान और तीसरा शब्द है ज्ञेय। उसमें था प्रकाश्य, प्रकाश का विषय। वह प्रकाश्य कहा जाता है। 00:51:57.760 --> 00:52:07.376
यहाँ कहते हैं ज्ञायक आत्मा द्रव्य है। और उसमें जानने-देखने की दशा प्रगट होती है प्रति समय, सभी को, हों! आहाहा! 00:52:07.400 --> 00:52:15.856 वह जानने-देखने की दशा प्रगट होती है उसका नाम है ज्ञान। आत्मा का नाम है ज्ञायक- द्रव्य। 00:52:15.880 --> 00:52:20.776 और ज्ञान प्रगट होता है, उसका नाम ज्ञान है। प्रगट होता है ज्ञान। 00:52:20.800 --> 00:52:31.696 और बाहर के पदार्थ जो ज्ञात होते हैं उस ज्ञान में उनका नाम है ज्ञेय- उनका नाम है ज्ञेय। 00:52:31.720 --> 00:52:39.776
अब समझाते हैं, कि तेरे में ज्ञान तो होता है? कि हाँ साहेब! मेरे में ज्ञान होता है। 00:52:39.800 --> 00:52:45.936 तो उसमें क्या जानने में आता है? कि ये (पर पदार्थ) सब जानने में आते हैं। 00:52:45.960 --> 00:52:57.856 ठीक! अब मैं तुझे प्रश्न करता हूँ कि जो ज्ञान से भिन्न है, ये सभी पदार्थ, तो ज्ञान से भिन्न हैं न? 00:52:57.880 --> 00:53:01.216 रागादि दुःख, और यह शरीर और (सब)। 00:53:01.240 --> 00:53:10.276 जो भिन्न हैं वे तुझे जानने में आते हैं और जिसकी सत्ता में वे जानने में आते हैं वह तुझे जानने में नहीं आता ज्ञान? 00:53:10.300 --> 00:53:13.136 विचार करने लग गया। सही बात है। 00:53:13.160 --> 00:53:24.576 ज्ञान को जाने बिना, ज्ञेय को जानना (ऐसा) व्यवहार भी उत्पन्न होता नहीं है। क्या कहा? रमेश! 00:53:24.600 --> 00:53:30.296
मुमुक्षु :- ज्ञान को जाने बिना ज्ञेय को जानने का व्यवहार ही उत्पन्न नहीं होता।
उत्तर :- कहाँ से व्यवहार उत्पन्न हो? 00:53:30.320 --> 00:53:42.656 यहाँ जो ज्ञान ही न प्रगट हो, यहाँ अंधेरा हो (तो ज्ञेय को जानने का व्यवहार उत्पन्न नहीं होता)। 00:53:42.680 --> 00:53:55.996 यह जैनदर्शन! एकदम न्याय, लॉजिक, आगम, युक्ति और अनुभव से सिद्ध हो ऐसा है। हम कहते हैं इसलिए मान लो ऐसी बात नहीं है। 00:53:56.020 --> 00:54:04.896 तब तुझे परपदार्थ जो भिन्न हैं वे तुझे जानने में आते हैं और जो उन्हें प्रसिद्ध करता है, ज्ञान, वह तुझे जानने में नहीं आता? 00:54:04.920 --> 00:54:12.536 हमें तो आश्चर्य होता है। तब कहता है कि प्रभु! आपकी बात कुछ मुझे गले से उतरी। 00:54:12.560 --> 00:54:17.616 क्योंकि ज्ञान ज्ञान को जाने बिना ज्ञेय को कैसे जाने? 00:54:17.640 --> 00:54:31.956 ज्ञान ज्ञान को जानकर ज्ञेय को जानता है ऐसा व्यवहार अथवा भ्रांति-अज्ञान होता है। क्या कहा? 00:54:31.980 --> 00:54:40.716
इसलिए ऊर्ध्वरूप से तो ज्ञान ही जानने में आता है, सबको। लेकिन ज्ञान को भूल गया, अब उसे ज्ञेय जानने में आते हैं , ऐसी भ्रांति होती है। 00:54:40.740 --> 00:54:49.576 भ्रांति छुड़ाने के लिये अब कहते हैं कि ज्ञान से जो भिन्न पदार्थ है वह तुझे जानने में आता है? कि हाँ साहेब! वह जानने में आता है। 00:54:49.600 --> 00:54:59.876 अब मैं तुझे कहता हूँ जो भिन्न है वह तुझे जानने में आता है, लेकिन भिन्न पदार्थ जिसमें ज्ञात होता है, प्रतिभास जिसमें होता है, ज्ञान में, वह तुझे जानने में नहीं आता? 00:54:59.900 --> 00:55:10.736 कि हाँ! यह बात कुछ विचार करने जैसी है। अर्थात् ज्ञेय के ऊपर से लक्ष छूटा, ज्ञेय जानने में आता है ऐसा जो पक्ष हो गया था, अभिमान का। 00:55:10.760 --> 00:55:15.336 ज्ञेय जानने में नहीं आता, बात सच्ची है। ज्ञान जानने में आता है मुझे हों! 00:55:15.360 --> 00:55:28.456 वह ज्ञेय में से खिसक गया और ज्ञान में आ गया। वह ज्ञेय बदलने लगा। अभी बदल जायेगा। क्या कहा? 00:55:28.480 --> 00:55:38.696
ज्ञेय बदलने लगा। वह (पर) मुझे जानने में आता था, उस ज्ञेय का पलटाव होने लगा। पलटने लगा। 00:55:38.720 --> 00:55:47.416 अभी सर्वथा नहीं पलट गया। अभी पलट जाएगा, दो मिनट में। ज्यादा देर लगेगी (नहीं)। 00:55:47.440 --> 00:55:53.456 वह तो भिन्न पदार्थ है, वह तो जानने में आता ही नहीं, मुझे तो मेरा ज्ञान जानने में आता है। समझ गये? 00:55:53.480 --> 00:56:01.816 अब ज्ञान ज्ञेय होने लगा। पहले (पर)ज्ञेय-ज्ञेय होने लगता था। 00:56:01.840 --> 00:56:13.356 थोड़ा जरा यह (दिमाग) चलाना तो पड़ता है। हें? उसके बिना तो कहाँ से जानने में आये। फायदा बड़ा है। लाभ बड़ा है इसमें। 00:56:13.380 --> 00:56:25.996
अब यह (पर) ज्ञेय नहीं है। लेकिन ज्ञान जो जानने में आता है, जो जानने में आता है वह ज्ञेय कहलाता है। जानता है वह ज्ञान और जानने में आता है वह ज्ञेय। 00:56:26.020 --> 00:56:34.516 तो ज्ञान में दो धर्म हैं, पर्याय में। ज्ञान जानता भी है और ज्ञान, वह पर्याय, जानने में भी आती है। 00:56:34.540 --> 00:56:41.296 अतः (ज्ञान) ज्ञेय होने लगा। वह (पर) ज्ञेय खिसक गया। वह खिसक गया। अंदर आया। 00:56:41.320 --> 00:56:46.096 अब अंदर अभी आ जायेगा, एकदम अंदर। अभी थोड़ा सा बाहर है। 00:56:46.120 --> 00:56:51.736 पश्चात कहते हैं, कि तुझे ज्ञान जानने में आता है? कि हाँ साहेब! ज्ञान जानने में आता है। 00:56:51.760 --> 00:56:55.536 तो ज्ञान और ज्ञायक तो अभेद हैं। वह ज्ञायक कैसे न जानने में आये? 00:56:55.560 --> 00:57:05.796 प्रकाश को जाने वह दीपक को कैसे न जाने? प्रकाश को जानता है वह दीपक को जानता ही है। क्योंकि अभिन्न है वस्तु। 00:57:05.820 --> 00:57:14.496 वह जो पहले ज्ञेय होता था, ज्ञान की पर्याय, वह पूरा आत्मा ज्ञेय हो गया। अंदर में आ गया। आहाहा! 00:57:14.520 --> 00:57:24.856
मुझे तो जाननहार जनाता है। जब आत्मा वह ज्ञेय होता है तो जाने हुए का श्रद्धान भी उसमें आ जाता है और अनुभूति हो जाती है। 00:57:24.880 --> 00:57:34.816 ऐसी बात। आहाहा! अपूर्व बातें जिनागम में भरी हैं। रहस्यवाली बातें। 00:57:34.840 --> 00:57:40.016 आसान में आसान, अंगूठा छाप हो, व्याकरण न आता हो। 00:57:40.040 --> 00:57:46.176 निश्चयनय और व्यवहारनय और निक्षेप और, धीरज! कुछ पता न हो। 00:57:46.200 --> 00:57:51.856 अंगूठा छाप, समझे न? क, ख, ग, घ वर्णमाला न आती हो, कि तुम तो जाननेवाले हो! 00:57:51.880 --> 00:57:54.456 कि यह (पर) जानने में आता है इसलिए जाननेवाले हो? 00:57:54.480 --> 00:58:04.476 उसको (पर को) जानते हो इसलिए जाननेवाले हो या जाननेवाला जानने में आता है इसलिए तुम जाननेवाले हो? आहाहा! 00:58:04.500 --> 00:58:10.796 ये बात तो प्रभु, मैंने अनंतकाल से सुनी नहीं थी! आज आपके श्रीमुख से सुनी। 00:58:10.820 --> 00:58:15.936 मेरे ऊपर कृपा की आपने और मुझे सुनायी और मुझे बात समझ में आ गई। 00:58:15.960 --> 00:58:19.216 बूढ़ी अम्मा को सम्यग्दर्शन हो गया, नब्बे वर्ष की उम्र में। 00:58:19.240 --> 00:58:29.856 और यदि पर जानने में आता है ऐसे पक्ष में रहे तो पंडित को भी अनुभव (नहीं) होता। हो जाता है ? बोलो? नहीं होता? नहीं! 00:58:29.880 --> 00:58:36.696 यह धीरज बहुत पढ़ता है इसलिए इसे हो जायेगा और तू रह जायेगा ऐसा नहीं है। जो आत्मा को जानता है वह ज्ञानी होता है। 00:58:36.720 --> 00:58:42.936 शास्त्र को जाने वह ज्ञानी (हो) ऐसा नहीं है। वह उसकी व्याख्या ही नहीं है। पर को जाने वह ज्ञानी - ऐसा है (नहीं)। 00:58:42.960 --> 00:58:53.096
यदि ऐसा करोगे तो ग्यारह अंग का पाठी भी कोरा रह गया और पढ़े हुए को ही सम्यग्दर्शन होता हो, (तो)अनपढ़ को धर्म होगा (नहीं)। आहाहा! 00:58:53.120 --> 00:59:01.656 पढ़ा हुआ हो या अनपढ़ (हो), यह जाननहार जानने में आता है- उसमें आजा न! तुझे जानने में आ जायेगा। प्रत्यक्ष हो जायेगा। 00:59:01.680 --> 00:59:08.276 तुझे आनंद आयेगा! और सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट होने के पश्चात चारित्र भी आनेवाला है। 00:59:08.300 --> 00:59:12.776 चारित्र का कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन का कारण भेदविज्ञान। 00:59:12.800 --> 00:59:17.821 भेदविज्ञान अर्थात् इन्द्रियज्ञान भिन्न और आत्मा भिन्न। इन दो के बीच के भेदज्ञान की गाथा है। 00:59:17.845 --> 00:59:18.845