WEBVTT
00:06:25.320 --> 00:06:38.856
अभी हमने ७:३० से ८:१५ तक चर्चा रखी है।
सुबह प्रवचन होंगे, ८:३० से ९:३० तक।
अभी चर्चा का समय है।
00:06:38.880 --> 00:07:33.016
किसी भाई और बहनों को प्रश्न हो तो कर सकते हैं।
00:07:33.040 --> 00:07:52.096
मुमुक्षु:- जैसे कल हमने ज्ञान-गोष्ठी में पढ़ा था कि पर्याय, पर्याय में…
00:07:52.120 --> 00:08:21.376
उत्तर:- ज्ञान-गोष्ठी में है...अच्छा!
कल लाना पुस्तक, पुस्तक लाना। पुस्तक में है।
सामने पुस्तक हो तो ख्याल आवे कि क्या है?
00:08:21.400 --> 00:08:26.216
मुमुक्षु:- पर्याय सत् है, ये बात है।
उत्तर:- पर्याय सत् है। हाँ!
00:08:26.240 --> 00:08:36.616
मुमुक्षु:- और उसमें परमाणु का दृष्टांत दिया है
कि उसमें रंग गुण की पर्याय है,
वो एक समय पहले....रंग गुण तो साफ था।
00:08:36.640 --> 00:08:45.016
उत्तर:- गुण तो त्रिकाली है। मगर उसकी
पर्याय में फेरफार होता है। कभी लाल,
कभी सफ़ेद, कभी काला, ये क्या है?
00:08:45.040 --> 00:08:53.416
क्योंकि गुण तो सरखा (एक समान) होता है, सब
परमाणु में। एक परमाणु, छूटा (स्वतंत्र) परमाणु लेना, स्कन्ध नहीं।
00:08:53.440 --> 00:09:00.376
दो परमाणु लो।
एक परमाणु में जो गुण है,
ऐसा (ही) दूसरे परमाणु में गुण है।
00:09:00.400 --> 00:09:07.416
तो एक (परमाणु के) गुण की पर्याय
लाल होती है और ये (दूसरे परमाणु के )
गुण की पर्याय काली हो जाती है।
00:09:07.440 --> 00:09:16.696
तो पर्याय में फर्क है, गुण में फर्क तो नहीं है।
तो नक्की होता है कि परिणाम गुण से नहीं होता है।
00:09:16.720 --> 00:09:23.896
परिणाम से... अपनी योग्यता से परिणाम होता है।
गुण से परिणाम नहीं होता है।
00:09:23.920 --> 00:09:32.736
गुण और द्रव्य से जो परिणाम होवे,
तो दोनों ही परमाणु की अवस्था
एक जैसी ही होनी चाहिए। समझे?
00:09:32.760 --> 00:09:43.736
ऐसे, ये जीव है, जीव, सब आत्मा।
तो एक आत्मा में क्रोध होता है,
दूसरे आत्मा में क्षमा का भाव होता है।
00:09:43.760 --> 00:09:48.376
तो गुण तो सरखा (एक समान) है,
गुण तो सरखा (एक समान) है।
00:09:48.400 --> 00:09:54.336
चारित्र नाम का जो गुण है,
उसकी जो विभाव-पर्याय,
00:09:54.360 --> 00:10:03.336
क्रोध का परिणाम हुआ तो पाप का
परिणाम हुआ और क्षमा का परिणाम हुआ
तो पुण्य का परिणाम, शुभभाव हुआ।
00:10:03.360 --> 00:10:10.656
तो दो जीव में गुण तो सरखा (एक समान) है।
चारित्र नाम का गुण है, सरखा है, समान है।
00:10:10.680 --> 00:10:21.216
गुण और गुणी समान होते हैं, अनादि-अनंत।
गुण में कभी कुछ फेरफार होता नहीं है।
फेरफार (जो)होता है, (वो)परिणाम में होता है।
00:10:21.240 --> 00:10:30.256
और जिसकी द्रष्टि परिणाम पर है,
उसको ऐसा लगता है कि मैंने क्रोध किया
00:10:30.280 --> 00:10:34.536
और अभी मैंने क्रोध को व्यय
होकर (करके) क्षमा मैंने किया।
00:10:34.560 --> 00:10:39.336
तो परिणाम पर नज़र (रखने) वाला,
वो मिथ्याद्रष्टि हो जाता है।
00:10:39.360 --> 00:10:46.976
और परिणाम होने पर भी,
परिणाम तो योग्यतानुसार होता है।
00:10:47.000 --> 00:10:54.056
क्रोध का परिणाम आया... एक को क्रोध का
परिणाम आया, तो वो मानता है कि मैंने किया।
00:10:54.080 --> 00:11:07.696
साधक को क्रोध का परिणाम आता है, तो वो
जानता है। मेरे गुण से(क्रोध नहीं आया)। गुण में शक्ति नहीं है
क्रोध करने की। शक्ति है जानने की।
00:11:07.720 --> 00:11:17.336
करने की शक्ति नहीं है आत्मा में।
आत्मा में जो करने की शक्ति हो,
तो एक को क्रोध और एक को क्षमा,
00:11:17.360 --> 00:11:25.056
एक को व्यापार, दाल का व्यापार करने
का भाव आता है, दूसरे को भगवान की
भक्ति (करने) का भाव आता है।
00:11:25.080 --> 00:11:29.388
दोनों का गुण तो समान है,
चारित्र नाम का गुण समान है।
00:11:29.412 --> 00:11:35.096
तो समान गुण होने पर भी, परिणाम में
तफ़ावत (अंतर) लगता है, फेरफार लगता है,
00:11:35.120 --> 00:11:46.376
तो नक्की हो जाता है कि परिणाम अपनी योग्यता
से होता है। परिणाम का कर्ता परिणाम है,
उसका (कर्ता, उसका) गुण और द्रव्य नहीं है।
00:11:46.400 --> 00:11:54.336
तो अपने गुण और द्रव्य से जब परिणाम नहीं होता है,
तो चारित्रमोह के उदय से क्रोध होता ही नहीं है,
00:11:54.360 --> 00:12:00.416
क्योंकि चारित्रमोह का उदय तो भिन्न तत्त्व है,
अजीव तत्त्व है, पुदगल-तत्त्व है। समझे?
00:12:00.440 --> 00:12:10.776
अपनी जो पर्याय में ये अपराध आया,
दोष आया, दोष तो आता है।
दोष नहीं आता है, ऐसी बात नहीं है।
00:12:10.800 --> 00:12:24.936
दोष आने पर भी आत्मा निर्दोष रहता है। क्या कहा?
पर्याय में दोष आने पर भी भगवान आत्मा
तीनोंकाल निर्दोष ही रहता है।
00:12:24.960 --> 00:12:30.816
अभी परिणाम के अंदर दोष चालू रहता है,
उसका कारण क्या है?
00:12:30.840 --> 00:12:41.016
परिणाम का दोष टलकर
परिणाम में निर्दोषता क्यों नहीं आती है?
ये प्रश्न होता है कि नहीं? ये प्रश्न होता है।
00:12:41.040 --> 00:12:51.816
तो ये दोष, मिथ्यात्व का दोष, अज्ञान का दोष,
अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया का, लोभ (का दोष),
ये चालू क्यों रहता है, अनंतकाल से?
00:12:51.840 --> 00:13:00.016
क्योंकि वो तो विभाव है और विभाव जो टले,
तो संवर प्रगट होवे, तो सुख प्रगट होवे।
00:13:00.040 --> 00:13:08.856
सबको सुख चाहिए। दुःख को तो कोई इच्छता नहीं है।
तो इसका कारण (क्या)?दोष की परंपरा टूटती क्यों नहीं है?
00:13:08.880 --> 00:13:18.616
कि दोष को करनेवाला आत्मा नहीं होने पर भी,
दोष को करनेवाला मैं हूँ,
(ऐसा मानना) वो ही दोष है।
00:13:18.640 --> 00:13:31.656
मैं दोष को जाननेवाला हूँ (जो ऐसा माने),
तो दोष टल जायेगा। दोष को मैं करनेवाला हूँ,
(ऐसा माने) तो दोष की परंपरा चालू रहेगी।
00:13:31.680 --> 00:13:41.816
इसका अर्थ ये है कि परिणाम का कर्ता परिणाम है।
(जो ऐसा माने) उसकी द्रष्टि, नज़र,
अकर्ता-ज्ञायक पर आ जाती है।
00:13:41.840 --> 00:13:55.936
वहाँ का भाव पहले आता है कि परिणाम का कर्ता
परिणाम है। मगर परिणाम का कर्ता परिणाम है,
वहाँ लक्ष्य करके आत्मा द्रष्टि में नहीं आता है।
00:13:55.960 --> 00:14:02.576
वहाँ से हटकर मैं अकर्ता हूँ।
परिणाम का कर्ता परिणाम है,
मैं तो ज्ञाता-अकर्ता हूँ।
00:14:02.600 --> 00:14:10.616
तो परिणाम की कर्तृत्वबुद्धि छूट जाती है,
तो परिणाम में पलटा आ जाता है।
मिथ्यात्व की जगह पर सम्यग्दर्शन होता है
00:14:10.640 --> 00:14:16.616
और अनंतानुबंधी कषाय की जगह पर
स्वरूपाचरण-चारित्र प्रगट हो जाता है
00:14:16.640 --> 00:14:24.216
और दुःख की जगह पर थोड़ा अतीन्द्रिय
आनंद प्रगट (हो जाता है)। (आनंद)
थोड़ा आता है, ज़्यादा नहीं आता है।
00:14:24.240 --> 00:14:30.336
ज़्यादा तो जब अंदर में जम जावे ना,
(जब) चारित्रदशा आ जावे ना,
तब पूर्ण आनंद आता है।
00:14:30.360 --> 00:14:36.576
दोष की परंपरा का कारण क्या है?
कि मैं दोषित हूँ (ऐसा मानना)।
00:14:36.600 --> 00:14:46.576
मैं निर्दोष हूँ और परिणाम में दोष आता है,
वो मेरा स्वभाव नहीं है, वो तो विभाव है,
मेरा कर्तव्य ही नहीं है।
00:14:46.600 --> 00:14:55.496
मेरा कर्तव्य तो जानना-देखना है,
करना मेरा कर्तव्य नहीं है। कुछ करना नहीं?
अरे! जानना, ये करना नहीं?
00:14:55.520 --> 00:15:04.936
जानना वो ही मोक्षमार्ग है और वो ही करना है।
आत्मा को जानना, क्रोध को जानना नहीं,
ये ख्याल रखना।
00:15:04.960 --> 00:15:15.736
क्रोध होता है, उसका लक्ष्य छोड़कर
क्रोध से भिन्न ज्ञानानंद परमात्मा
जीवतत्त्व विराजमान है।
00:15:15.760 --> 00:15:22.596
आश्रवतत्त्व विद्यमान है,
तब भी जीव विद्यमान है।
आस्रव अशुद्ध है और जीव शुद्ध है।
00:15:22.620 --> 00:15:33.576
कभी? कि (जब) आस्रव उत्पन्न होता है, तभी।
कैसा आश्रव? मिथ्यात्व का आस्रव जब होता है,
तब भी जीव शुद्ध रहता है।
00:15:33.600 --> 00:15:40.256
मैं शुद्ध हूँ, मैं अशुद्ध नहीं हूँ,
(ऐसा माने) तो अशुद्ध(ता) टलकर पर्याय शुद्ध हो जाती है।
00:15:40.280 --> 00:15:47.936
आत्मा एक है, उसका पड़खा दो है।
एक सामान्य और एक विशेष।
00:15:47.960 --> 00:15:53.656
सामान्य को द्रव्य कहा जाता है। ध्रुव
और विशेष को उत्पाद-व्यय पर्याय कहा।
00:15:53.680 --> 00:15:58.416
पर्याय में दोष आता है और
पर्याय में दोष टल जाता है।
00:15:58.440 --> 00:16:05.296
दोष टलता क्यों नहीं है?
कि 'दोष को करनेवाला मैं हूँ'
(ऐसा माने) तो दोष की परंपरा चलती है।
00:16:05.320 --> 00:16:30.536
बात तो सीधी-सादी है।
बात तो कुछ नहीं थी
मगर बात-बात में बात बढ़ गई।
00:16:30.560 --> 00:16:38.936
हमारे प्रेमचंदजी साहब दिल्ली से एक दफ़े आया।
बार-बार आता है। ऐसे एक दफ़े उसने कहा,
एक दृष्टान्त दिया। समझे?
00:16:38.960 --> 00:16:44.176
दो बालक पड़ोस में लड़ते थे।
तो उसमें सब, बड़ी लड़ाई हो गई।
00:16:44.200 --> 00:16:53.376
तो पूछा, क्या है? तो कहे वो बालक। अरे! अरे! बालक
लड़ते हैं। कुछ नहीं है उसमे, बात बढ़ गयी।
बात तो कुछ (है ही नहीं)। क्या शब्द है?
00:16:53.400 --> 00:16:56.640
मुमुक्षु:- बात तो बढ़ गयी, बात में बात।
बात तो कुछ भी नहीं थी।
उत्तर:- कुछ भी नहीं थी।
00:16:56.640 --> 00:17:09.456
ऐसे आत्मा तो परमात्मा निर्दोष था।
आत्मा तो निर्दोष था और निर्दोष है
और निर्दोष रहेगा, तीनोंकाल। समझे?
00:17:09.480 --> 00:17:15.136
मगर फिर बात बढ़ गई (अर्थात्) क्या?
कि उसकी नज़र राग पर है।
00:17:15.160 --> 00:17:22.776
मैं रागी, मैं रागी, मैं द्वेषी, मैं मोही,
मैं मनुष्य, मैं स्त्री, मैं पुरुष।
00:17:22.800 --> 00:17:28.336
मैं कर्म का बाँधनेवाला मैं हूँ
और कर्म का भोगनेवाला मैं हूँ,
00:17:28.360 --> 00:17:32.496
द्रष्टि विपरीत हो गयी उसकी।
बात-बात में बात बढ़ गयी।
00:17:32.520 --> 00:17:36.116
मुमुक्षु:- बढ़ गयी बात में बात।
बात तो कुछ भी नहीं थी।
उत्तर:- कुछ भी नहीं थी,
00:17:36.140 --> 00:17:42.296
इतना ही था। मैं तो जाननेवाला हूँ,
करनेवाला नहीं हूँ। बस हो गयी, समाप्त बात।
00:17:42.320 --> 00:17:47.336
मैं तो जाननेवाला हूँ,
करनेवाला नहीं हूँ। आहाहा!
00:17:47.360 --> 00:17:55.216
मुमुक्षु:- स्पष्टीकरण बहुत ऊँचा आपने फ़रमाया।
उत्तर:- बात छोटी है।
अज्ञानी जीव ने बात (को) बढ़ा दिया है।
00:17:55.240 --> 00:18:01.616
आत्मा का तो भान नहीं उसको
और दूसरी एक बात क्या आ गयी?
00:18:01.640 --> 00:18:10.816
कि साधक को भी निश्चय के साथ व्यवहार
आता है, निश्चय के साथ व्यवहार आता है।
00:18:10.840 --> 00:18:19.696
देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा का भाव आता है।
करता नहीं है, ध्यान रखना। वो ध्यान
रखना, करने का भूत निकालने की बात है।
00:18:19.720 --> 00:18:29.336
(शुभभाव) आता है। चतुर्थ गुणस्थान में उसके योग्य
शुभभाव आता है, उसको जानता है।
00:18:29.360 --> 00:18:38.776
पंचम गुणस्थान में व्रत आता है,
देशव्रत का भाव आता है।
आता है मगर टिकता नहीं है, चला जाता है,
00:18:38.800 --> 00:18:44.496
क्योंकि द्रष्टि ज्ञायक पर है। उसको
जानते-जानते जानता है, तो चला जाता है।
00:18:44.520 --> 00:18:51.896
बाद में पाँच-महाव्रत का भाव भी आता है,
भावलिंगी संत को। पाँच-महाव्रत के
परिणाम को करनेवाले नहीं हैं।
00:18:51.920 --> 00:18:59.056
हमारे मुनिराज, आहाहा! वो हमारे मुनिराज
हैं, जो करनेवाले नहीं हैं, जाननेवाले हैं।
00:18:59.080 --> 00:19:06.176
अकेले पाँच-महाव्रत को जाननेवाले वो भी
हमारा मुनि नहीं है। आत्मा को जानते-जानते
पाँच-महाव्रत को जान लेते हैं।
00:19:06.200 --> 00:19:25.016
ऐसे मुनिवर देखे वन में जाँके, राग-द्वेष नहीं मन में।
मुनिदशा अलग बात है, अलौकिक बात है। आहाहा!
(जो) मुनि को नहीं मानता है, वो जैन नहीं है।
00:19:25.040 --> 00:19:37.336
मुमुक्षु:- गुरुदेव फ़रमाते थे, एक दफ़े।
मुनि किसको कहिये? जिन्हें गणधर
का नमस्कार जिनवाणी सामर्थ है।
00:19:37.360 --> 00:19:42.336
उत्तर:- सामर्थ है। हालता-चालता
(चलते-फिरते) सिद्ध हैं, वीतरागी मूर्ति हैं।
00:19:42.360 --> 00:19:58.136
मुनिराज तो वीतरागी प्रतिमा हैं। ओहो!
वीतरागी मुनि भावलिंगी संत हैं ना, उनको
सारे दिन में तो नींद आती ही नहीं है।
00:19:58.160 --> 00:20:06.536
रात्रि के पिछले प्रहर में पोन सेकंड के लिए
ऊँघ (नींद) आती है। एक सेकंड के लिए जो ऊँघ
आ जाये, प्रमाद, तो मुनिपद रहता नहीं है,
00:20:06.560 --> 00:20:17.336
ऐसी बात है। बाह्य की स्थिति (ऐसी), अंदर की
तो, शुद्ध उपयोग है (वो) तो अलौकिक है। ऐसी बात है भैया!
मुमुक्षु:- कितनी सावधान दशा!
उत्तर:-(मुनि की) सावधान दशा (है), प्रमाद दशा नहीं है।
00:20:17.360 --> 00:20:35.936
प्रमाद तो पाप है, प्रमाद तो पाप है।
अप्रमत्त दशा धर्म है और थोड़ी सावधानी हो
जाये बंध में, तो पुण्य है, पुण्य है।
00:20:35.960 --> 00:20:42.456
पुण्यतत्त्व तो उनके पास है।
पुण्यतत्त्व भी है और संवरतत्त्व भी है।
00:20:42.480 --> 00:20:50.216
मगर पुण्य आता है तो निर्जरा के लिए
आता है, बंध के लिए आता नहीं है।
00:20:50.240 --> 00:20:59.256
मुमुक्षु:- ये क्या रहस्य है?
उत्तर:- रहस्य है कि पुण्य का मालिक
नहीं है इसलिए वो निर्जरा हो जाती है।
00:20:59.280 --> 00:21:06.736
अज्ञानी पुण्य का स्वामी बन जाता है
कि मैंने मंदिर बनवाया।
अच्छा! तूने बनवाया?
00:21:06.760 --> 00:21:15.936
मैंने दान दिया। वो स्वामी बन गया।
तो उससे कर्म का बंध हो जाता है। आहाहा!
00:21:15.960 --> 00:21:25.256
निर्जरा नहीं होती है। और पुण्य-पाप का
परिणाम तो चतुर्थ गुणस्थान में भी आता है।
चक्रवर्ती को भी आता है कि नहीं?
00:21:25.280 --> 00:21:30.776
पाप का परिणाम आता है,
मगर पाप के परिणाम से बंध नहीं
होता है, निर्जरा होती है।
00:21:30.800 --> 00:21:35.936
अल्प-बंध होता है, वो गौण है।
अल्प-बंध होता है, वो बात गौण है।
00:21:35.960 --> 00:21:42.616
अनंत संसार का कारण ऐसा कर्म-बंध
निमित्तरूप में नहीं आता है।
उपादान में तो भाव आता ही नहीं है।
00:21:42.640 --> 00:21:46.536
मुमुक्षु:- निमित्त में नहीं आता है,
इसका क्या मतलब है?
00:21:46.560 --> 00:21:56.336
उत्तर:- यानि जो पाप का परिणाम आता है,
ज्ञानी को भी, उसको इकतालीस कर्म
की प्रकृति का बंध होता नहीं है।
00:21:56.360 --> 00:21:59.976
अल्प-बंध होता है, जो अल्प-संसार
का निमित्त-कारण है
00:22:00.000 --> 00:22:06.976
और उपादान में भी ऐसी योग्यता है
कि ज़्यादा कर्म की स्थिति नहीं बंधे,
ऐसा ही परिणाम आ जाता है।
00:22:07.000 --> 00:22:12.216
ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध बनता है,
उसका भी उससे रहित, ज्ञाता है
00:22:12.240 --> 00:22:20.496
निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी मेरे में नहीं है।
मेरे ज्ञान का ज्ञेय है,
कर्ता का कर्म नहीं है, ऐसी बात है।
00:22:20.520 --> 00:22:31.976
मुमुक्षु:- क्षायिक-सम्यग्दर्शन के परिणाम के
बाद मिथ्यादर्शन का परिणाम क्यों नहीं आता है?
00:22:32.000 --> 00:22:36.576
उत्तर:- नहीं आता है। क्षायिक हो गया ना,
क्षायिक हो गया ना।
मुमुक्षु:- क्यों नहीं आता? परिणमन (तो) स्वभाव है।
00:22:36.600 --> 00:22:41.628
उत्तर:- परिणमन स्वभाव है। तो
परिणमन स्वभाव हो तो मिथ्यात्व आ जावे,
00:22:41.652 --> 00:22:45.456
(अगर ऐसा हो) तो (फिर) सिद्ध भगवान को (भी)
परिणमन स्वभाव तो है, मगर (मिथ्यात्व) आ जाता नहीं है।
00:22:45.480 --> 00:22:55.096
परिणमन स्वभाव भैया! दोष का कारण नहीं है।
एक बात समझो कि जो, आत्मा का परिणमन
जो स्वभाव है, वो दोष नहीं है।
00:22:55.120 --> 00:23:02.576
परिणाम में पर की सन्मुखता, वो दोष है
और परिणाम में आत्मा की सन्मुखता, वो तो गुण है।
00:23:02.600 --> 00:23:10.016
परिणमन स्वभाव दोष का कारण नहीं है
क्योंकि परिणमन तो अरिहंत
भगवान को भी होता है,
00:23:10.040 --> 00:23:17.536
सिद्ध भगवान को भी होता है और मुनिराज
को भी होता है और क्षायिक सम्यग्दृष्टि
को (भी) क्षायिक परिणाम तो होता है,
00:23:17.560 --> 00:23:28.216
मगर मिथ्यात्व आता नहीं है। क्योंकि उसकी
श्रद्धा में, आहाहा! मैं केवल अकर्ता और
ज्ञायक ही हूँ, ऐसी क्षायिकदशा उसकी हो गयी है।
00:23:28.240 --> 00:23:38.416
मुमुक्षु:- परिणाम (का) सहज षट्कारकरूप
परिणमन होता है। लेकिन आपने कहा
कि परलक्ष्य से मिथ्यादर्शन रूप परिणाम हुआ।
00:23:38.440 --> 00:23:44.296
तो अब परलक्ष्य नहीं है,
ये सम्यग्दर्शन परिणाम है।
00:23:44.320 --> 00:23:49.136
लेकिन परिणाम तो आप कह रहे हैं
(कि) षट्कारकरूप स्वतंत्र है,
फिर लक्ष्य क्यों आया उसमें?
00:23:49.160 --> 00:23:59.816
उत्तर:- नहीं! लक्ष्य, जब स्वतंत्रपने आत्मा अपने
स्वभाव से च्युत हो जाता है, च्युत होकर
अशुद्ध-उपादान होता है, प्रगट, राग,
00:23:59.840 --> 00:24:06.816
तो राग में निमित्तपर का लक्ष्य होता है।
राग (के समय पर्याय) का लक्ष्य
आत्मा पर नहीं है, इतना बताना है।
00:24:06.840 --> 00:24:12.696
राग होता है, वो तो स्वतंत्र अपनी
उपादान-शक्ति से होता है।
00:24:12.720 --> 00:24:23.336
परिणमन शक्ति होने पर भी, उसकी योग्यता है
तो राग होता है। तो राग होता है, तो उसका
लक्ष्य पर(द्रव्य) पर होता है, स्व(द्रव्य) पर होता नहीं है।
00:24:23.360 --> 00:24:31.696
जब वीतरागभाव प्रगट होता है, तो आत्मा के
ऊपर लक्ष्य होता है। तो आत्मा के लक्ष्य से
वीतरागता हुई, ऐसा कहा जाता है
00:24:31.720 --> 00:24:42.656
और दर्शनमोह के आश्रय से मिथ्यात्व हुआ, ऐसा
कहा जाता है। सचमुच तो निरपेक्ष मिथ्यात्व होता
है। दर्शनमोह से हुआ, वो निमित्त का कथन है।
00:24:42.680 --> 00:24:48.056
मुमुक्षु:- (जब) निरपेक्ष हुआ था,(तो ) फिर क्यों
नहीं हुआ, सम्यग्दर्शन के बाद?
उत्तर:- क्या?
00:24:48.080 --> 00:24:59.496
मुमुक्षु:- इनका ऐसा प्रश्न है कि पर्याय का कर्ता पर्याय है।
पर्याय का षट्कारक पर्याय है।
पर्याय, पर्याय से ही होती है - एक तरफ तो आप ऐसा कहते हो।
00:24:59.520 --> 00:25:00.736
उत्तर:- हाँ!
00:25:00.760 --> 00:25:08.216
मुमुक्षु:- और दूसरी तरफ (ऐसा) कहते हो कि पर
के लक्ष्य से राग होता है और आत्मा के लक्ष्य से
वीतरागता होती है। (तो) उसे कैसे समझना चाहिए?
00:25:08.240 --> 00:25:12.816
उत्तर:- हाँ! पहले तो आप निरपेक्ष समझो।
मुमुक्षु:- हाँ! निरपेक्ष ही समझना
चाहते हैं, साहब।
00:25:12.840 --> 00:25:21.296
उत्तर:- बाद में सापेक्ष लो।
सापेक्ष की बात आवे, तब वो
व्यवहार की बात है, ऐसा समझना।
00:25:21.320 --> 00:25:25.576
जब निरपेक्ष की बात आवे,
वो बात निश्चय की है, ऐसा समझना,
00:25:25.600 --> 00:25:29.696
परिणाम के लिए।
परिणाम की बात है,
द्रव्य की बात (नहीं है)।
00:25:29.720 --> 00:25:39.096
जब राग आता है ना, राग। तो राग आता है,
(तो) उसकी अंतर्गर्भित-पर्यायरूप परिणमन शक्ति है।
00:25:39.120 --> 00:25:48.456
वो राग आता है, पर्याय में। राग आता है
(पर्याय में)। पर्याय तो, उत्पाद-व्यय तो
स्वभाव है और राग उसका विशेषण है।
00:25:48.480 --> 00:25:56.736
क्या कहा?
उत्पाद-व्यय तो आत्मा का,
पर्याय का स्वभाव है। समझे?
00:25:56.760 --> 00:26:07.616
मगर वो जो उत्पाद पर्यायरूप हुआ, प्रगट पर्याय
हुई, चारित्र गुण की पर्याय हुई, तो उसमें राग
की योग्यता है, तो राग प्रगट होता है।
00:26:07.640 --> 00:26:16.936
वो आत्मा से (हुआ) नहीं और चारित्रमोह के
उदय से भी (हुआ) नहीं है। इसका
नाम क्षणिक-अशुद्ध-उपादान कहा जाता है।
00:26:16.960 --> 00:26:22.816
मुमुक्षु:- सिद्धों में राग नहीं है तो
योग्यता नहीं रही उनमें?
उत्तर:- नहीं रही। खलास हो गयी। खत्म हो गई।
00:26:22.840 --> 00:26:28.576
मुमुक्षु:- क्या योग्यता नहीं है साहब?
उत्तर:- बिल्कुल नहीं है।
योग्यता जो थी, वो सब समाप्त हो गई।
00:26:28.600 --> 00:26:34.136
मुमुक्षु:- राग जो हुआ था,
वो कर्म-सापेक्ष हुआ था?
उत्तर:- निरपेक्ष होकर कर्म-सापेक्ष हुआ था।
00:26:34.160 --> 00:26:41.856
निरपेक्ष होकर कर्म-सापेक्ष हुआ था।
कर्म से राग नहीं होता है।
कर्म तो निमित्तमात्र था।
00:26:41.880 --> 00:26:49.776
अपने उपादान से राग होता है।
त्रिकाली-उपादान से नहीं और
निमित्त से भी नहीं होता है।
00:26:49.800 --> 00:26:58.736
वो निरपेक्ष एक समय की पर्याय सत् है,
अहेतुक है। भैया!
वो अशुद्ध-पारिणामिक का विषय है।
00:26:58.760 --> 00:27:08.936
वो निमित्त की सापेक्ष(ता) से देखो तो
नैमित्तिक है। निमित्त की सापेक्ष(ता) से
देखो राग को, तो नैमित्तिक है।
00:27:08.960 --> 00:27:13.016
निमित्त से निरपेक्ष देखो उपादान,
तो अशुद्ध-पारिणामिक है।
00:27:13.040 --> 00:27:31.536
मुमुक्षु:- अशुद्ध पारिणामिक? ये बात यहाँ से…
उत्तर:- अशुद्ध-पारिणामिक। बस! हाँ! हो गया ना? बस, ठीक है।
इस जिनागम में सब बात का खुलासा है।
00:27:31.560 --> 00:27:48.656
सब बात का खुलासा है। बात ऐसी है कि जो
आत्मार्थी होकर, आत्मा के लक्ष्य से, अपना
प्रयोजन सिद्ध करना है (ऐसे अभिप्राय से पढ़े, तो ठीक)।
00:27:48.680 --> 00:28:00.056
समझकर दूसरों को समझाना है, पंडित
बनना है और वक्ता बनना है (ऐसे अभिप्राय से पढ़े),
उसको आत्मा हाथ में आनेवाला नहीं है।
00:28:00.080 --> 00:28:07.216
अपना हित कैसे होवे, ऐसा अपना प्रयोजन
सिद्ध करने के लिए, आत्मा का लक्ष्य रखकर,
00:28:07.240 --> 00:28:12.548
आत्मा का लक्ष्य कायम रखकर,
जो शास्त्र-स्वाध्याय करता है,
00:28:12.572 --> 00:28:19.256
जिनेन्द्र भगवान की वाणी सुनता है, देशनालब्धि,
तो उसको सही मार्ग मिल जाता है।
00:28:19.280 --> 00:28:25.216
अपना प्रयोजन क्या है,
इसके ऊपर आधारित है सब।
00:28:25.240 --> 00:28:31.696
मुमुक्षु:- पारिणामिकभाव त्रिकाल शुद्ध है?
उत्तर:- वो द्रव्य का, द्रव्य का।
मुमुक्षु:- और ये अशुद्ध-पारिणामिक?
00:28:31.720 --> 00:28:39.576
उत्तर:- ये द्रव्य का पारिणामिकभाव त्रिकाल
शुद्ध है। और राग जो अशुद्ध-पारिणामिक है,
(वो) क्षणिक-अशुद्ध है, अनित्य-अशुद्ध है।
00:28:39.600 --> 00:28:47.896
मुमुक्षु:- तो पारिणामिक के (भी) दो भेद?एक द्रव्यरूप एक पर्यायरूप?
उत्तर:- हाँ! पारिणामिक के दो भेद। एक शुद्ध-पारिणामिक
और एक अशुद्ध पारिणामिक।
00:28:47.920 --> 00:28:56.896
मुमुक्षु:- अशुद्ध-पारिणामिक यानि पर्यायरूप?
उत्तर:- पर्याय का स्वभाव। पर्याय के विभाव-स्वभाव
का नाम अशुद्ध-पारिणामिक है।
00:28:56.920 --> 00:29:03.656
पर्याय का विभाव-स्वभाव, यानि उसका धर्म।
धर्म यानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र नहीं।
00:29:03.680 --> 00:29:11.576
समझ में आया भैया? समझे?
पर्याय का विभाव-स्वभाव, उसका
नाम अशुद्ध-पारिणामिक है।
00:29:11.600 --> 00:29:18.656
कोई, किसी की, पर की अपेक्षा उसमें नहीं लेना।
जो अपेक्षा लो तो व्यवहार हो गया। समझे?
00:29:18.680 --> 00:29:27.576
मुमुक्षु:- तो ये व्यवहार रहा, शुद्ध, द्रव्य का?
उत्तर:- पर्याय का, पर्याय का व्यवहार।
कभी राग हुआ ना, वो तो निरपेक्ष हुआ।
00:29:27.600 --> 00:29:37.416
मगर राग होता है, राग जब होता है,
तब (पर्याय को) आत्मा का लक्ष्य नहीं रहता है,
पर का लक्ष्य रहता है।
00:29:37.440 --> 00:29:42.456
तो वो पर के लक्ष्य से हुआ, ऐसे समझाया जाता है।
00:29:42.480 --> 00:29:51.736
होता तो है अपनी योग्यता से,
मगर अज्ञानी जीव को समझाने के लिए
व्यवहार द्वारा ही निश्चय समझाया जाता है।
00:29:51.760 --> 00:30:01.696
पर्याय का निश्चय समझाने के लिए वहाँ से समझाते
हैं। कि राग क्यों होता है? कि चारित्र का उदय
आया, उसमें जुड़ गयी पर्याय, तो राग हो गया।
00:30:01.720 --> 00:30:10.176
इसका अर्थ पर्याय पराधीन नहीं है।
पर्याय स्वाधीन (है), वो उसका विभाव-स्वभाव है।
00:30:10.200 --> 00:30:17.136
मुमुक्षु:- विभाव-स्वभाव है?
उत्तर:- हाँ! विभाव-स्वभाव है।
स्वभाव का अर्थ है, धर्म।
00:30:17.160 --> 00:30:22.456
पर्याय ने राग को एक समय के
लिए धारण (कर) रखा है।
00:30:22.480 --> 00:30:34.776
क्या कहा? पर्याय ने एक समय के लिए राग को
धारण (कर) रखा है, इसलिए उसका धर्म,
पर्याय का धर्म है।
00:30:34.800 --> 00:30:42.856
एक समय के लिए राग (को) आत्मा ने धारण नहीं (कर)
रखा है। पर्याय ने धारण (कर) रखा है,
00:30:42.880 --> 00:30:46.976
मगर (वो भी) एक समय के लिए। दूसरे
समय वीतरागता प्रगट हो जाती है।
00:30:47.000 --> 00:30:50.456
मुमुक्षु:- आत्मा ने तो एक समय के लिए
भी (राग को) धारण ही नहीं किया।
00:30:50.480 --> 00:31:01.016
उत्तर:- एक समय के लिए भी हाँ!
(राग को) धारण ही नहीं किया।
उसमें राग घुसता ही नहीं है। आहाहा!
00:31:01.040 --> 00:31:09.416
अकेला ऐसा किला है, विज्ञानघन स्वभाव है।
आत्मा, उसमें राग का प्रवेश होता (ही) नहीं है।
00:31:09.440 --> 00:31:15.696
ऊपर-ऊपर राग होता है। ऊपर-ऊपर,
आता है और जाता है, आता है और जाता है।
00:31:15.720 --> 00:31:23.896
भगवान आत्मा आता ही नहीं और जाता भी नहीं है।
वो तो है, है और है। वो मैं हूँ, वो मैं हूँ।
00:31:23.920 --> 00:31:31.656
आता है, जाता है, वो मेरा स्वभाव नहीं है।
मैं तो ज्ञायक हूँ, स्वभाव से ज्ञायक हूँ।
00:31:31.680 --> 00:31:42.496
नीलम की बा हैं ना, मम्मी। मम्मी हैं ना।
वो वहाँ आयीं थीं, देवलाली। उनको मस्ती चढ़ गयी
00:31:42.520 --> 00:31:55.896
(की) मैं तो स्वभाव से ज्ञायक हूँ। क्या शब्द बोलती थीं?
मुमुक्षु:- मैं तो स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ।
उत्तर:- मैं तो स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ, ऐसा, निश्चय। कथंचित् नहीं, सर्वथा।
00:31:55.920 --> 00:32:11.536
आत्मा सर्वथा शुद्ध है, भैया! शब्द क्या आया?
आत्मा बोलता हूँ मैं हो! मैं क्या बोलता हूँ?
आत्मा तीनोंकाल शुद्ध है। सर्वथा शुद्ध है। आहाहा!
00:32:11.560 --> 00:32:21.816
आत्मा मलिन होता नहीं है। परिणाम के
अंदर मलिनता भी होती है और मलिनता
टलकर निर्मलता भी आती है।
00:32:21.840 --> 00:32:30.056
जैसे जल है ना पानी, पानी। अपनी योग्यता से जो
उष्ण होता है, अपनी योग्यता (से), वो निरपेक्ष, निश्चय,
00:32:30.080 --> 00:32:35.468
अशुद्ध पारिणामिक, उसका धर्म
और उसमें निमित्त अग्नि (को) कहा जाता है।
00:32:35.492 --> 00:32:43.616
समझे? मगर उष्ण पर्याय हुई तो भी पानी तो
आहाहा! शीतल, शीतल, शीतल, ठंडा, ठंडा।
00:32:43.640 --> 00:32:56.096
तो उसमें टकावारी करो ना थोड़ा।
भाई 'ना' बोलते हैं। समझ में आ गया।
सौ टका वो तो शीतल ही है, ऐसा है।
00:32:56.120 --> 00:33:12.142
हाँ! टकावारी करो तो पर्याय में करो ना कि पचास
टका उष्ण, पचहत्तर टका, सौ टका उष्ण। उसमें
तारतम्यता रहती है, परिणाम में, मगर द्रव्य में नहीं।
00:33:12.166 --> 00:33:25.096
हीनाधिकता पर्याय में होती है। हीनाधिकता पर्याय में तो
होती है। स्वभाव तो, जैसे सिद्ध परमात्मा (हैं), ऐसा मैं हूँ।
00:33:25.120 --> 00:33:44.856
जो निगोद में, सो ही मुझमें, सो ही मोक्ष-मँझार।
निश्चय भेद कछु है नाहीं, भेद गिने संसार। आहाहा!
00:33:44.880 --> 00:34:06.416
मुमुक्षु:- मैं ज्ञायक का ही ज्ञायक (हूँ)
और ज्ञायक ही मैं हूँ, यही?
उत्तर:- यही निश्चय है।
00:34:06.440 --> 00:34:12.016
ज्ञायक का ज्ञायक व्यवहार है।
ज्ञायक ही हूँ, वो निश्चय।
00:34:12.040 --> 00:34:24.896
समझाने के लिए ज्ञायक का ज्ञायक (कहा जाता) है। यानि ज्ञेय
का ज्ञायक नहीं है, इतना समझाने के लिए,
आत्मा, आत्मा को जानता है (ऐसा कहते हैं)। समझे?
00:34:24.920 --> 00:34:32.376
आत्मा, आत्मा को जानता है।
इसमें क्या निषेध हुआ?
कि पर को जानता नहीं है,
00:34:32.400 --> 00:34:39.856
ऐसा भेदरूप व्यवहार से समझाया जाता है।
मगर आत्मा, आत्मा को जानता है,
तो दो आत्मा तो है ही नहीं।
00:34:39.880 --> 00:34:45.536
दो आत्मा तो है ही नहीं। हाँ!
और दो का एक हो जाता है,
भेद निकल जाता है। समझे?
00:34:45.560 --> 00:34:50.456
मुमुक्षु:- ज्ञायक का ज्ञायक ही हूँ,
वो पर्याय-द्रव्य का भेद हो गया?
00:34:50.480 --> 00:34:58.856
उत्तर:- ये जो है ना ज्ञायक, ज्ञायक का है।
ज्ञायक, ज्ञायक का है,
वो भेद से समझाया जाता है।
00:34:58.880 --> 00:35:06.936
पर भेद को समझावें, तब राग की उत्पत्ति होती है।
मैं तो ज्ञायक ही हूँ, तो अनुभव हो जाता है।
00:35:06.960 --> 00:35:12.376
अनुभव के काल में,
मैं आत्मा को जानता हूँ,
ऐसा भेद भी नहीं रहता।
00:35:12.400 --> 00:35:31.456
जानता है, मगर भेद उत्पन्न होता नहीं है।
अच्छी बात है!
शिकोहाबाद में प्रश्न अच्छे आते हैं। क्या?
00:35:31.480 --> 00:35:37.936
मुमुक्षु:- वो तो बड़ी अपूर्व-दशा हो गई, साहब?
उत्तर:- अपूर्व-दशा है और सब कर सकते हैं।
00:35:37.960 --> 00:35:44.616
कोई कर्म आड़े आता नहीं है।
शरीर का रोग अड़ता नहीं है। आहाहा!
00:35:44.640 --> 00:35:56.056
आपके घर में आप जाते हैं, कभी।
तो May I come in Sir (ऐसा)
बोलते हैं? घर में जाने में क्या?
00:35:56.080 --> 00:36:04.376
ऐसे आत्मा को देखने में कौन रुकावट करे?
हें? कोई रूकावट करनेवाला जगत में नहीं है।
00:36:04.400 --> 00:36:08.816
मुमुक्षु:- ऐसी रुकावट क्यों
हो रही है अनंतकाल से?
00:36:08.840 --> 00:36:18.656
उत्तर:- रूचि नहीं है। उसको विश्वास नहीं है।
संयोग में सुख मानता है। स्वभाव में सुख है,
ऐसा निर्णय उसने किया नहीं है।
00:36:18.680 --> 00:36:25.106
पैसे में, लक्ष्मी में, सत्ता में, अच्छा
मकान, अच्छी मोटर अपनी इज्जत अच्छी,
00:36:25.130 --> 00:36:33.056
अपनी लड़की और लड़के का विवाह अच्छे घर पर होवे,
रुपया लेकर आवे, ऐसे बहुत गड़बड़ अंदर रहती है।
00:36:33.080 --> 00:36:40.056
मुमुक्षु:- बहुत गड़बड़ अंदर रहती है।
उत्तर:- अंदर गड़बड़ रहती है तो
कहाँ से अंदर में जावे आत्मा?
00:36:40.080 --> 00:36:48.576
चाहिए (तो) दूसरी चीज़। उसको, अभिप्राय में,
ये चाहिए, ये चाहिए, ये चाहिए, ये चाहिए
और आत्मा क्यों प्राप्त नहीं होता है? आहाहा!
00:36:48.600 --> 00:36:53.096
आत्मा की रुचि नहीं है।
ऊपर-ऊपर की रुचि काम नहीं आती।
00:36:53.120 --> 00:37:00.136
अंदर की रुचि और तीव्र रूचि अंदर में उपजे,
तो वीर्य अंदर में आ जाता है। रूचि अनुयायी वीर्य।
00:37:00.160 --> 00:37:06.736
मुमुक्षु:- साहब! ऊपर-ऊपर की रूचि
और अंदर की रूचि में अंतर क्या है?
00:37:06.760 --> 00:37:15.096
उत्तर:- ऊपर-ऊपर की रूचि तो बस ये सब प्रवाह
चलता है ना, तो चलो अपने स्वाध्याय, गुरुदेव
पधारें है, व्याख्यान में चलो। आहाहा!
00:37:15.120 --> 00:37:20.028
बढ़िया बात आती है। आत्मा की बात
बढ़िया, बढ़िया बात शब्द में रहती है।
00:37:20.052 --> 00:37:28.256
बाकी अंदर में थोड़ी उतरती है और थोड़ी
उतरे तो (फिर) थोड़े टाइम में भुलाई (खो) जाती है।
भुलाई जाती है समझे ना? मिट जाती है। हाँ!
00:37:28.280 --> 00:37:37.428
(वो) धूल के अंदर अक्षर लिखे,
धूल के अंदर। धूल है ना, ज़मीन।
00:37:37.452 --> 00:37:52.256
उसमें अक्षर लिखे, अपना नाम, तो पवन आवे तो
मिट जाता है। उसके पीछे पड़ना चाहिए। समझे?
00:37:52.280 --> 00:37:58.296
CA की परीक्षा देते हैं ना कोई।
मुंबई में बनाव बना।
00:37:58.320 --> 00:38:07.536
तो चालीस साल तक उसने (CA)की परीक्षा दी।
कंटाला ही नहीं आता है (उसको)।
बाद में पास हो गया।
00:38:07.560 --> 00:38:16.576
ऐसे इसमें कंटाला नहीं आना चाहिए।
आज प्राप्त नहीं हो तो कल होगा,
परसों होगा। विश्वास रखो।
00:38:16.600 --> 00:38:26.896
अपनी चीज़ है ना, अपनी चीज़ को अपने को देखना है।
अपने को कोई बाहर से चीज़ लाना नहीं है।
लाने की बात नहीं है।
00:38:26.920 --> 00:38:38.936
आत्मा मौजूद है, वर्तमान। आहाहा!
अंदर देखने से वो दिखाई देता है।
बाहर देखने से (वो) अंदरवाला दिखाई (नहीं देता है)।
00:38:38.960 --> 00:38:46.056
एक बार हमारे राजकोट में ऐसा प्रश्न आया कि
ये गुरुदेव प्रशंसा करते हैं।
00:38:46.080 --> 00:38:52.576
ज्ञानी सब, प्रशंसा आत्मा की करते हैं।
थकते ही नहीं है। ऐसे आहाहा!
आहाहा! करें। समझे?
00:38:52.600 --> 00:38:57.948
ऐसा आत्मा है, तो चौबीस
घंटे (ये) करता क्या है आत्मा?
00:38:57.972 --> 00:39:03.736
ऐसा जो आत्मा है, तो आत्मा
चौबीस घंटे करता क्या है? समझे?
00:39:03.760 --> 00:39:13.616
तो मैंने जवाब दिया कि दर्शन देने के लिए
रहता है, दर्शन दिया करता है,
मगर वो दर्शन लेता नहीं है। आहाहा!
00:39:13.640 --> 00:39:18.576
मंदिर में प्रतिमा जी हो,
जो अंदर में जावे,
उसको दर्शन देवे।
00:39:18.600 --> 00:39:22.016
दर्शन देने के लिए तो तैयार है,
मगर लेनेवाला चाहिए ना।
00:39:22.040 --> 00:39:29.056
ये देने के लिए तैयार है,
मगर लेनेवाला चाहिए,
तो मिल जाता है।
00:39:29.080 --> 00:39:37.176
आत्मा के दर्शन से धर्म की शुरुआत होती है भैया!
वो सत्य क्रिया है।
00:39:37.200 --> 00:39:45.096
आत्मा का ज्ञान, आत्मा का श्रद्धान
और आत्मा का लीन आचरण,
बस, वो निश्चय मोक्षमार्ग है।
00:39:45.120 --> 00:39:58.216
हाँ! मोक्ष का मार्ग है। मगर मोक्ष नहीं पूरा
होता है, तो बीच में, साधक को भी जानने के लिए,
जानने के लिए, जाने के लिये आता है राग।
00:39:58.240 --> 00:40:03.656
जानने के लिए और
जाने के लिए आता है (राग),
तो जानता है।
00:40:03.680 --> 00:40:08.776
बस जाना (ही) करता है।
आत्मा को जानते-जानते
परिणाम को जानता है। बस!
00:40:08.800 --> 00:40:16.696
मुमुक्षु:- आपने सुबह बात कही थी कि आत्मा
पर को नहीं जानता है। तो ज्ञायक, ज्ञायक के
बल-पर ही पर को नहीं जानता?
00:40:16.720 --> 00:40:27.736
उत्तर:- हाँ! ज्ञायक, ज्ञायक का बल आता है,
अंदर में कि, मेरे ज्ञान में समय-समय पर आबाल-
गोपाल सबको, आत्मा ही जानने में आता है। समझे?
00:40:27.760 --> 00:40:34.856
आत्मा का जब ऐसा ઘૂટણ (रटण)
आ जावे अंदर में... पहले व्यवहार-श्रद्धा,
निश्चय-श्रद्धा के पहले।
00:40:34.880 --> 00:40:41.616
मेरे ज्ञान में आत्मा ही जानने में आता है।
सचमुच तो पर जानने में नहीं आता है।
00:40:41.640 --> 00:40:52.176
वो बात इतनी बढ़िया है, इतनी सुंदर है कि
उसकी चर्चा करने जैसी है। छोड़ने जैसी नहीं है।
00:40:52.200 --> 00:41:04.696
एक उसका सरल उपाय आचार्य भगवान ने बताया।
एक अमितगति आचार्य हो गए,
जिन्होंने योगसार नाम का शास्त्र लिखा है। समझे?
00:41:04.720 --> 00:41:11.256
ये योगसार नाम का शास्त्र, अमितगति
आचार्य का योगसार है। समझ गए?
00:41:11.280 --> 00:41:20.296
तो उसमें बहुत सरलता से आत्मा का अनुभव
कैसे हो, ऐसी बात बता दिया है।
00:41:20.320 --> 00:41:37.976
तो पहले तो दृष्टांत दिया उसमें कि, ये जो
प्रकाशक, दीपक, दीपक यानि प्रकाशक और , प्रकाश
उसकी पर्याय, प्रकाश यानि द्रव्य की पर्याय।
00:41:38.000 --> 00:41:49.576
प्रकाशक द्रव्य और प्रकाश उसकी पर्याय।
बराबर है ना? ठीक है?
और घट-पट हैं वो प्रकाश्य हैं, प्रकाश्य।
00:41:49.600 --> 00:41:58.976
तो प्रकाश, घट को प्रकाश प्रसिद्ध
करता है, तो (घट-पट) प्रकाश्य।
प्रकाशक, प्रकाश और प्रकाश्य। समझे?
00:41:59.000 --> 00:42:16.176
वो तो सीधा दाखला (दृष्टांत) है ना। तो आचार्य
भगवान कहते हैं, फ़रमाते हैं कि जो प्रकाश है,
वो घट से तो सर्वथा भिन्न है।
00:42:16.200 --> 00:42:22.136
वो (प्रकाश) भिन्न को (तो ) प्रसिद्ध करता है, घट को,
घट को प्रसिद्ध करता है।
00:42:22.160 --> 00:42:30.816
और जो प्रकाश से वो प्रकाशक (दीपक) कथंचित्
अभिन्न है, उसको प्रकाशित नहीं करता है (ऐसा तू मानता है),
वो तो हमको आश्चर्य की बात लगती है।
00:42:30.840 --> 00:42:52.136
दृष्टांत समझे? अभी सिद्धांत। फिर से दोबारा।
कि प्रकाशक द्रव्य, प्रकाश पर्याय, किसकी?
घड़े की या (दीपक की)? दीपक की। पक्का?
00:42:52.160 --> 00:42:59.736
वो पर्याय तो दीपक की है ना।
घट की है? नहीं।
सर्वथा कि कथंचित्? (सर्वथा)।
00:42:59.760 --> 00:43:08.176
घट की पर्याय प्रकाशित होती ही नहीं है।
प्रकाशक की(ही पर्याय प्रकाशित होती है)। सूर्य का ही प्रकाश होता है।
समझे?
00:43:08.200 --> 00:43:18.456
तो वो जो भिन्न हैं, घट-पट आदि,
वो उसके प्रकाश के माध्यम से
तेरे को परपदार्थ दिखते हैं
00:43:18.480 --> 00:43:25.536
और जो प्रकाश से कथंचित् अभिन्न है दीपक,
वो तेरे को दिखाई नहीं देता है,
00:43:25.560 --> 00:43:33.136
हमको तो आश्चर्य लगता है।
समझ में आया? समझ में आया कि नहीं?
00:43:33.160 --> 00:43:39.416
अब दूसरा, उस पर ही एक दृष्टांत मैं देता हूँ।
मैं घर का दृष्टांत (देता हूँ)।
वो तो आचार्य भगवान की बात मैंने कही।
00:43:39.440 --> 00:43:49.456
अभी उसके ऊपर घर का दृष्टांत देता हूँ
कि एक दफ़े ऐसा हुआ कि प्रोफेसर साहब ने,
प्रोफेसर यहाँ बैठे हैं कि नहीं एक?
00:43:49.480 --> 00:43:59.856
ये प्रोफेसर हैं ना, बैठे हैं ना।
तो प्रोफेसर साहब ने क्या किया, एक दफ़े?
कि पचास विद्यार्थी था, पचास।
00:43:59.880 --> 00:44:12.176
होशियार हो, बुद्धिवाला। उनको कहा कि
आज तो रात को परीक्षा देनी है। तो रात को
मैं पेपर दूँगा और एक घंटा का टाइम है, तय हुआ।
00:44:12.200 --> 00:44:20.936
एक घंटे के अंदर सबको पेपर पूरा होकर मेरे को
दे देना है। बड़ा हॉल था, पचास (विद्यार्थी) बैठ सकें, सब।
00:44:20.960 --> 00:44:31.256
पेपर निकाला कि इस हॉल में कौनसी-
कौनसी चीज़ हैं, लिखकर दे देना।
इतना लिखा। क्या लिखा?
00:44:31.280 --> 00:44:40.096
कि इस हॉल में कौनसी-कौनसी चीज़ हैं?
जितनी (भी) चीज़ आपके ख्याल में आवें,
वो लिख देना। बस, सादी बात है।
00:44:40.120 --> 00:44:45.376
तो पेपर निकाला। एक घंटा, पोना
घंटा में तो पेपर पूरा कर दिया।
00:44:45.400 --> 00:44:55.456
सूक्ष्म में सूक्ष्म वस्तु (जो हॉल में थी), यहाँ क्या कहते हैं?
सूक्ष्म में सूक्ष्म पदार्थ है, छोटी में छोटी (वस्तु), पिन,
उसको भी उसमें लिख दिया।
00:44:55.480 --> 00:45:02.616
सब लिख दिया।
अब देख-देखकर लिखा सबने।
समझे? पेपर आ गया।
00:45:02.640 --> 00:45:19.016
पेपर देखते ही ५० नापास (फेल)। तो हल्ला मचा दिया
कि सर ५० नपास (फेल) नहीं हो सकते हैं। उनपचास को
नापास (फेल) करो और जो नापास (फेल) किया (है), तो कारण दे दो हमको।
00:45:19.040 --> 00:45:34.976
Please sit down.Please sit down.शांति रखो ज़रा।
प्रोफेसर साहब ने कहा कि ये जो आपने सब चीज़ लिखीं,
मगर ट्यूबलाइट आपने नहीं लिखी,
00:45:35.000 --> 00:45:48.336
तो नापास (फेल) हो गया। क्या कहा?
नापास (फेल) होगा कि नहीं? समझे?
00:45:48.360 --> 00:46:06.456
ये सचमुच तो धर्म सरल है। अधर्म कठिन है।
अधर्म तो, आत्मा पर बलात्कार करता है,
तब अधर्म की प्रगटता होती है।
00:46:06.480 --> 00:46:17.148
आत्मा पर बलात्कार करता है। कर्ता न होने पर भी,
मैं राग का कर्ता हूँ (ऐसा) बलात्कार करता है।
हाँ! तो अधर्म की दशा प्रगट हो जाती है।
00:46:17.172 --> 00:46:23.856
धर्म तो सरल है, सहज है, सुगम है,
स्वाधीन है, स्वतंत्र है।
00:46:23.880 --> 00:46:30.616
आहाहा! तो ये दृष्टांत पर अभी, योगसार के
दृष्टांत पर, अभी सिद्धांत मैं कहूँ।
00:46:30.640 --> 00:46:37.256
आचार्य भगवान फ़रमाते हैं कि
जो एक ज्ञायक है, आत्मा, ज्ञायक है।
00:46:37.280 --> 00:46:46.336
उसके अंदर उपयोग लक्षण समय-समय पर
प्रगट होता है ना, उपयोगोलक्षणम्।,
है कि नहीं, तत्त्वार्थ सूत्र का? सूत्र है,
00:46:46.360 --> 00:46:50.896
उपयोगोलक्षणम्।
उपयोग प्रगट होता है।
ज्ञान प्रगट होता है।
00:46:50.920 --> 00:47:00.896
वो ज्ञान के अंदर स्वपरप्रकाशक शक्ति होने से,
वो परपदार्थ भी अंदर में झलकता है।
00:47:00.920 --> 00:47:12.376
परपदार्थ को देखता है, ऐसा मैं नहीं बोलता हूँ।
परपदार्थ उसमें झलकते हैं,
और ज्ञायक भी उसमें झलकता है।
00:47:12.400 --> 00:47:18.816
प्रतिभास होता है, दो का।
स्वच्छता है ना उपयोग में,
तो प्रतिभास तो होता है।
00:47:18.840 --> 00:47:23.616
तो आचार्य भगवान कहते हैं (कि)
तेरे ज्ञान में ये शास्त्र जानने में आता है,
00:47:23.640 --> 00:47:28.036
ये प्रतिमा जानने में आती है,
दुकान जानने में आती है।
00:47:28.060 --> 00:47:40.336
जो (कि) ज्ञान से भिन्न (है)।
ज्ञायक से तो भिन्न है ही दुकान,
मगर प्रगट हुए ज्ञान से भी भिन्न है।
00:47:40.360 --> 00:47:50.536
रोटी, दाल, साग, भात, तेरे को दिखाई देता है।
ज्ञान से जो भिन्न-पदार्थ है, सर्वथा भिन्न,
कथंचित् भिन्न-अभिन्न नहीं।
00:47:50.560 --> 00:48:00.856
ऐसे भिन्न-पदार्थ तेरे को दिखने में आता है और
उस ज्ञान से कथंचित् आत्मा अनन्य, अभिन्न है,
वो तेरे को दिखने में नहीं आता है,
00:48:00.880 --> 00:48:09.736
हमको तो (इस बात का बड़ा) आश्चर्य होता है।
इतनी सरल बात, सरल शब्दों से बता दिया। आहाहा!
00:48:09.760 --> 00:48:14.816
मुमुक्षु:- जिस प्रकाश से प्रकाशक को
उन्होंने जाना, उसको आप भिन्न कैसे कहते हैं?
00:48:14.840 --> 00:48:25.816
उत्तर:- भिन्न कहाँ? अभिन्न है।
कथंचित् अभिन्न कहा, भिन्न नहीं।
उससे सर्वथा भिन्न।
00:48:25.840 --> 00:48:30.736
मुमुक्षु:- पर्याय में द्रव्य आता नहीं है,
तो प्रकाश जो आया प्रकाशक से आया?
00:48:30.760 --> 00:48:41.096
उत्तर:- प्रकाश में, त्रिकाली द्रव्य आता
नहीं है। पर्याय में द्रव्य आता नहीं है।
मगर द्रव्य जैसा है, ऐसा ज्ञान आ जाता है।
00:48:41.120 --> 00:48:47.656
मुमुक्षु:- जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब
आ जाता है, नहीं आ जाता है?
यानि प्रतिबिम्ब दर्पण में थोड़ी गया।
00:48:47.680 --> 00:48:57.096
उत्तर:- पर्याय का प्रकाश जो है, उसमें सूर्य
आता नहीं है। मगर उस प्रकाश (को) सूर्य को
प्रसिद्ध करने में कोई दिक्कत है?
00:48:57.120 --> 00:49:03.240
दिक्कत नहीं है। बस! ऐसे ज्ञान में, उपयोग में,
आत्मा जानने में आ रहा है।
00:49:03.500 --> 00:49:08.056
जानने में आ रहा है,
तो उसको जान ले ना।
क्यों जानता नहीं है?
00:49:08.080 --> 00:49:17.456
और अभिन्न है,(उसको) तो (तू) जानता नहीं है, लेकिन भिन्न
को जानता है। आत्मा पर को जानता नहीं है
क्योंकि परपदार्थ भिन्न है।
00:49:17.480 --> 00:49:24.736
और दूसरा, जो परपदार्थ को जानना आत्मा
का स्वभाव हो, ख्याल रखना अभी,
00:49:24.760 --> 00:49:35.016
जो स्वभाव हो, तो मैं सबको बोलता हूँ,
आज तक आपने परपदार्थ को तो जाना।
नहीं जाना? जाना। जाना?
00:49:35.040 --> 00:49:39.696
जो स्वभाव हो तो आनंद आना चाहिए।
आया? नहीं आया।
00:49:39.720 --> 00:49:43.016
तो निषेध कर कि पर को जानता नहीं हूँ,
जाननहार को जानता हूँ
00:49:43.040 --> 00:49:47.856
और प्रयोग कर, आनंद आयेगा।
आनंद आयेगा, निश्चित आयेगा।
00:49:47.880 --> 00:50:02.576
हमारा लड़का है, ५८ साल का।
समझे? पढ़ा-लिखा है।
तो एक दफ़े मुंबई में उसने मुझसे पूछा।
00:50:02.600 --> 00:50:13.656
खूब हल्ला हुआ था। मैंने कहा कि आत्मा, ज्ञान में
आत्मा ही जानने में आता है, सचमुच, खरेखर
(तो) परपदार्थ जानने में आता नहीं है।
00:50:13.680 --> 00:50:22.096
तो हल्ला मच गया, सारे हिंदुस्तान में नाम हमारा,
चकड़ोले चड़ गया। आहाहा!
00:50:22.120 --> 00:50:27.496
कि लालचंदभाई कहते हैं कि पर को
जानता (नहीं) है, तो सर्वज्ञ भगवान
तो लोकालोक को जानते हैं।
00:50:27.520 --> 00:50:35.296
देखो! पक्का नहीं हो तो मचक
आ जायेगी आपको। समझे?
00:50:35.320 --> 00:50:48.096
तो (मेरे बेटे ने कहा कि) पिताजी ये सारा
हल्ला है आपके नाम (से), तो आपके पास क्या न्याय कुछ है?
00:50:48.120 --> 00:50:57.856
(आप कहते हो) कि आत्मा पर को नहीं जानता है और सारा
जगत कहता है कि ज्ञान पर को जानता है।
एक बाजू सारा जगत, एक बाजू आप अकेले?
00:50:57.880 --> 00:51:07.816
तो क्या बात है? कुछ उसमें मर्म है,
न्याय है, युक्ति आपके पास है?
मैंने कहा कि युक्ति है।
00:51:07.840 --> 00:51:21.456
अनुभव की युक्ति मैं आपको बताता हूँ। शास्त्र का
आधार नहीं दूँगा, संस्कृत की बात नहीं कहूँगा,
नय-निक्षेप-प्रमाण का प्रयोग नहीं करूँगा। समझे?
00:51:21.480 --> 00:51:30.576
तब तो बहुत बढ़िया बात है। बोल! अभी और ५८ साल
की उम्र हुई तेरी। परपदार्थ को जानते-जानते
समय गया? (तो बोला-) कि हाँ।
00:51:30.600 --> 00:51:42.936
आनंद आया? (तो बोला-) आनंद तो नहीं आया।
तो पर को जानना जो स्वभाव हो, तो आनंद आना चाहिए।
तो उसने कान पकड़ लिए। बस हो गया, ख़तम।
00:51:42.960 --> 00:51:56.536
निषेध कर कि मेरे ज्ञान में ज्ञायक ही जानने
में आ रहा है। आहाहा! इस बात (का)
थोड़े टाइम प्रयोग तो करो।
00:51:56.560 --> 00:52:02.376
प्रयोग करने के बाद जो आत्मा जानने में न आवे,
तो पर को जाने जाओ। कोई बाधा नहीं।
00:52:02.400 --> 00:52:08.776
मगर प्रयोग करने वालों को
आत्मा जानने में आता ही है। हाँ!
00:52:08.800 --> 00:52:16.736
मुमुक्षु:- पंडित जुगलकिशोर जी ने देवलाली
में आपके लिए फ़रमाया था कि
00:52:16.760 --> 00:52:24.096
मुमुक्षु:- स्वप्रकाशक ही है आत्मा, इसके लिए
लालचंदभाई का नाम भी है और बदनाम भी हैं।
00:52:24.120 --> 00:52:30.736
उत्तर:- हाँ! बदनाम भी हैं। नाम भी है और
बदनाम भी हैं। ऐसा युगलजी साहब ने बोला था।
बराबर है!
00:52:30.760 --> 00:52:43.616
बोलो, परम उपकारी श्री सद्गुरुदेव की जय!
सरल है, धर्म सरल है।
कठिन अज्ञानी ने बना रखा है। कठिन नहीं है।
00:52:43.630 --> 00:52:50.686
अपना स्वरूप समझना कहाँ कठिन है?
जैसा स्वरुप है, ऐसा समझना (है)।
समझ लो, विपरीत नहीं समझो।
00:52:50.720 --> 00:53:01.296
वो तो सब स्वांग है। वो तो मनुष्य की पर्याय का
स्वांग, कर्म का स्वांग, राग का स्वांग, मोक्ष
का भी स्वांग ही है, स्वभाव नहीं है। आहाहा!
00:53:01.320 --> 00:53:13.456
ऐसा है। आत्मा मोक्षस्वरुप है, त्रिकाल,
जिसकी दृष्टि देने से आत्मा का अनुभव होता है।
उसका नाम अनुभव, (उस)में मोक्षमार्ग है।
00:53:13.480 --> 00:53:26.616
अनुभव यानि कि अनुसरण करके परिणमना,
उसका नाम अनुभव। उसमें तीन भाव, सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आ जाता है।