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00:01:05.640 --> 00:01:25.816
ज्ञायक आत्मा और जो रागादी विकृत भाव है
उसके भेदज्ञान के लिए तो बहुत गाथा थी।
00:01:25.840 --> 00:01:45.816
बहुत जगह ज्ञान भिन्न ने राग भिन्न, जो पट्टी
लगाया था ना पहले दिन, ज्ञान भिन्न और राग
भिन्न, वो एक प्रकार का भेद ज्ञान का मंत्र है।
00:01:45.840 --> 00:02:01.456
इससे जरा विशेष सूक्ष्म अतींद्रियज्ञानमय
भगवानआत्मा और ज्ञेयभूत इंद्रियज्ञान,
00:02:01.480 --> 00:02:20.576
ज्ञानमय आत्मा और ज्ञेयभूत इंद्रियज्ञान अर्थात
अतींद्रियज्ञानमय आत्मा और इन्द्रियज्ञान
00:02:20.600 --> 00:02:33.016
वह दो के बीच में भेदज्ञान की
गाथाओं शास्त्र में भी कम आती है।
बहुत कम, बहुत कम आती है।
00:02:33.040 --> 00:02:50.896
वैसे तो १५ गाथा में भी आया है थोड़ा आविर्भाव-
तिरोभाव के रूपमें, ३१ मी गाथा में भी है
और ४९ गाथा में भी समयसार में है।
00:02:50.920 --> 00:03:01.216
ऐसे प्रवचनसार में भी इंद्रियज्ञान वो जड़ है,
अचेतन है, आकुलता का उत्पन्न करनेवाला है।
00:03:01.240 --> 00:03:07.776
वह आत्मा का त्रिकाल स्वभाव भी नहीं है
और क्षणिक स्वभाव भी नहीं है।
00:03:07.800 --> 00:03:28.936
और अलिंगग्रहण की १७२ गाथामें भी
प्रथम दो बोल है कि आत्मा है वो
इंन्द्रियज्ञानके द्वारा परको जानता ही नहीं है।
00:03:28.960 --> 00:03:44.536
पर को जानने के लिए इंद्रियज्ञान साधन
नहीं है। वो ही इंद्रियज्ञान आत्माको
जाननेके लिए भी साधन नहीं है।
00:03:44.560 --> 00:04:04.016
इसलिए सचमुच सम्यक प्रकार से देखा जाए तो
इंद्रियज्ञान में स्वपरप्रकाशक का अभाव है,
00:04:04.040 --> 00:04:14.216
तो भी इंद्रियज्ञानमें स्वपरप्रकाशक
का प्रतिभास तो होता है।
00:04:14.240 --> 00:04:25.616
क्या कहा? मैंने पहले कहा कि शुध्दआत्मा
और राग भिन्न है वो बात तो बहुत आती है,
00:04:25.640 --> 00:04:35.496
मगर हमेरे पिताजी फरमाते थे कि
ज्ञान से ज्ञान का भेदज्ञान करो।
00:04:35.520 --> 00:04:49.176
ज्ञान से ज्ञान का भेदज्ञान करो, अर्थात
अतींद्रियज्ञानमय भगवान आत्मा और
भावईन्द़िय खंडज्ञान, उसका नाम खंडज्ञान है।
00:04:49.200 --> 00:04:54.056
अखंडज्ञान और खंडज्ञान दो भिन्न भिन्न तत्त्व है।
00:04:54.080 --> 00:05:10.736
सचमुच भावइंद्रिय खंडज्ञान वो त्रिकाली
शुद्ध आत्मा भी नहीं है, स्वभाव नहीं है
और आत्मा का परिणाम भी नहीं है।
00:05:10.760 --> 00:05:27.096
वैसे रागादी आत्मा का परिणाम नहीं है
क्योंकि राग आत्मा का आश्रय से
नहीं होता है, इसलिए राग भिन्न है।
00:05:27.120 --> 00:05:37.936
वह राग आत्मा का लक्षण नहीं है।
इसलिए आत्मा को प्रसिद्ध नहीं करता है।
इसलिए राग भिन्न है।
00:05:37.960 --> 00:05:49.056
और राग आत्मासे कथंचित अभिन्न भी नहीं
होता है इसलिए राग आत्मासे भिन्न है।
00:05:49.080 --> 00:06:12.096
ऐसे जो पराश्रित इंद्रियज्ञान प्रगट होता है वह
आत्माके आश्रयसे प्रगट नहीं होता है इंद्रियज्ञान।
अतिन्द्रियज्ञान तो आत्मा के आश्रये प्रगट होता है।
00:06:12.120 --> 00:06:21.096
इंद्रियज्ञान का अवलंबन आत्मा नहीं है।
इन्द्रियज्ञान का अवलंबन पर पदार्थ है।
00:06:21.120 --> 00:06:31.876
अंदर में द्रव्यइन्द्रिय है और बाहरमें नोकर्म है।
इसलिए इंद्रियज्ञान आत्माका आश्रय से नहीं होता है।
00:06:31.900 --> 00:06:43.296
इसलिए इंद्रियज्ञान आत्माका परिणाम नहीं है
और इंद्रियज्ञान आत्माको प्रसिद्ध नहीं करता है।
00:06:43.320 --> 00:06:59.016
इसलिए भी वह आत्मा का परिणाम नहीं है और
इंद्रियज्ञान आत्मा से अनन्य नहीं होता है। इसलिए
भी वो इंद्रियज्ञान आत्मा का परिणाम नहीं है।
00:06:59.040 --> 00:07:13.616
ऐसे सूक्ष्म भेद ज्ञानकी बात अभी तो गुरुदेवका
वियोग हो गया उसने तो सब बात बता दिया है।
00:07:13.640 --> 00:07:32.056
उसने बताया हुआ जो तत्त्व हम उसको
बार-बार घूँटते हैं, चिंतन करते हैं।
जो उसका अनंता अपने पर उसका उपकार है।
00:07:32.080 --> 00:07:49.496
सज्जन उपकारको भूलता नहीं है। आहाहा|
तो अतींद्रियज्ञानमय भगवानआत्मा से
इंद्रियज्ञान, शास्त्रज्ञान भिन्न है।
00:07:49.520 --> 00:07:55.816
डॉक्टर कहाँ गया? बैठा है की नहीं? आया नहीं?
00:07:55.840 --> 00:08:10.776
यह वकीलात का ज्ञान, डॉक्टरका ज्ञान,
इंजीनियरका ज्ञान, ओहो| वह तो दूर रहो,
वह तो दूर रहो, वह तो कुमति-कुश्रुत है|
00:08:10.800 --> 00:08:25.456
मगर शास्त्रके लक्ष्यसे हुआ इंद्रियज्ञान
जो आत्मा को तिरोभूत करके प्रगट होता है,
वह भी कुमति ने कुश्रुत है।
00:08:25.480 --> 00:08:46.296
जो ज्ञान जिसका है उसको प्रगट ना करें और
जो ज्ञान जिसका नहीं है उसको प्रसिद्ध करें
तो ज्ञान नहीं है अज्ञान है। आहाहा|
00:08:46.320 --> 00:08:59.696
तो अतींद्रियज्ञानमय भगवानआत्मा और
ज्ञेयभूत इंद्रियज्ञान वह दोनों के बीच में
भेदज्ञान की यह गाथा आई है।
00:08:59.720 --> 00:09:19.816
जैसे रागदि भावकका भाव है ज्ञायकका भाव नहीं।
व्यवहार रत्नत्रयका परिणाम वह ज्ञायकका भाव
नहीं है, जाती जुदी है। वह भावकका भाव है।
00:09:19.840 --> 00:09:36.176
भावक याने जो कर्म है द्रव्यकर्म, वह भावक है।
उसका संबंधसे उत्पन्न होनेवाला भाव उसका
स्वामी भावक याने पुद्गल उसका स्वामी है।
00:09:36.200 --> 00:09:49.656
आत्मा चैतन्यमूर्ति जड़ का स्वामी होता नहीं है।
स्वस्वामी संबंध रागके साथ आत्माको नहीं है।
आहाहा| वह भावकका भाव है।
00:09:49.680 --> 00:10:03.336
ऐसे इंद्रियज्ञान पांचइंद्रिय ने छठा मन,
भावइंद्रिय वो ज्ञेयका भाव है,
ज्ञायकका भाव नहीं है।
00:10:03.360 --> 00:10:10.576
ज्ञेयका भाव कहा, कहेना पड़ा,
मगर सचमुच अपने आप ही ज्ञेय हैं|
00:10:10.600 --> 00:10:21.416
वह ध्येय तो नहीं है मगर
सचमुच ज्ञेय भी नहीं है।
00:10:21.440 --> 00:10:25.776
ध्येय तो ध्रुव परमात्मा है।
00:10:25.800 --> 00:10:34.016
और ज्ञेय, भेद अपेक्षासे निश्चय मोक्षमार्ग है,
अभेद अपेक्षासे तो आत्मा ही
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय है।
00:10:34.040 --> 00:10:48.176
और इंद्रियज्ञान तो पराया भाव है।
जैसे राग पराया भाव है ऐसे इंद्रियज्ञान पराया
भाव है, स्व-भाव, स्वभावभाव नहीं है।
00:10:48.200 --> 00:11:07.056
तो तहाँ तक इंद्रियज्ञान जिंदा रहता है, जीवित
रहता है अर्थात इंद्रियज्ञानको जीव ज्ञान
मानता है, तहाँ तक मोहका क्षय नहीं होता।
00:11:07.080 --> 00:11:14.216
मिथ्यात्वका नाश नहीं होता। यह छुपा चोर है।
00:11:14.240 --> 00:11:25.416
जैसे मुंबई में पहले तो सुना था कि
ऊंदर बहुत होता था, ऊंदर, चूहा।
00:11:25.440 --> 00:11:32.896
तो रातको सब सो जावे ने तो वो चूहा
उसको फूंक-फूंककर खाता है।
00:11:32.920 --> 00:11:48.016
फूंक लगावे, फूंक समझे बादमें काटे तो वह
जागे ही नहीं। आहाहा! काट जाए फाजलमें
(सवेरे) उठे यह क्या हो गया पैर में?
00:11:48.040 --> 00:12:03.136
चूहा काटा मगर खबर पडी नहीं है, समझे? ऐसे
इंद्रियज्ञान भगवान आत्माको तिरोभूत करके
प्रकट होता है, वह दुश्मन है मित्र नहीं है।
00:12:03.160 --> 00:12:10.856
आहाहा!.
दुश्मन को मित्र मान लेना
बहुत धोखाकी बात है।
00:12:10.880 --> 00:12:24.696
रागको तो दुश्मन मानते हैं क्योंकि राग आकुलताका
उत्पन्न करनेवाला है। और कर्मबंधका कारण है और
कषाय भी है उसका नाम, कषाय तीव्र और मंद।
00:12:24.720 --> 00:12:37.696
मगर यह जो भावइंद्रिय खंड ज्ञान है, छुपा
घरका चोर है। अंदर में घुस गया है और
मोहराजाने उसका नाम ज्ञान रखा।
00:12:37.720 --> 00:12:50.656
मोहराजाने उसका नाम ज्ञान रखा और
सर्वज्ञ भगवानने उसका नाम ज्ञेय रखा।
ज्ञान नहीं है मगर ज्ञेय है।
00:12:50.680 --> 00:13:05.216
जो जिसको ख्यालमें आ जावे कि वह ज्ञान
नहीं है, नाम निक्षेप से ज्ञान है, भाव निक्षेप
से तो ज्ञेय ही है। हेयरूप ज्ञेय है। आहाहा|
00:13:05.240 --> 00:13:18.536
ऐसी अदभूत बात आचार्य भगवान भेद
ज्ञानकी अतींद्रियज्ञानमय प्रभु, विभु,
भगवानआत्मा अंदर विराजमान है|
00:13:18.560 --> 00:13:32.936
और इंद्रियज्ञानका संबंधसे उत्पन्न होनेवाला
जो भावइंद्रिय खंडज्ञान वह
आत्मा का परिणाम भी सचमुच नहीं है।
00:13:32.960 --> 00:13:51.696
द्रव्य संग्रह में तो बृहदद्रव्यसंग्रह में तो ऐसा
आता है की जैसे रागादी भावकर्म है, असदभूत
वहारनयका विषय ऐसे इंद्रियज्ञान भी भावकर्म है।
00:13:51.720 --> 00:14:00.936
वो कर्मकी जात है, ज्ञान चेतनाकी जात नहीं है।
कर्मधारा है यह ज्ञानधारा नहीं है। आहाहा!
00:14:00.960 --> 00:14:21.256
जैसे राग कर्मधारा ऐसे इंद्रियज्ञान भी कर्मधारा,
भाव कर्ममें गया वो। भावकर्म है, आत्माका
कर्म नहीं है। आहाहा! ऐसे हैं विपरीत है।
00:14:21.280 --> 00:14:39.936
ऐसे अपूर्व बात ये ३१मी गाथामें आचार्य
भगवान हमको समझाते हैं। हम सब
समझनेकी कोशिश करें तो अपना हित हो जाए।
00:14:39.960 --> 00:15:00.056
अनादि अमयॉदरूप टीका:- अनादि अमर्यादरूप
अनादि, अनादि, अनादिकाल गया। आहाहा!
00:15:00.080 --> 00:15:16.496
अनंत, अनंतकाल बीते भूतकालमें,
लोहाडीयाजी| आ गये| अच्छा|
अनंत, अनंतकाल बीते भूतकाल में, आहाहा!
00:15:16.520 --> 00:15:32.856
अनादि अमर्यादरूप उसकी मर्यादा उसकी सादी
नहीं, अनादिसे है मगर अंत होवे ऐसा धर्म है उसका,
अनादि अनंत नहीं है क्योंकि विभाग है।
00:15:32.880 --> 00:15:39.136
विभाव अनादि से होने पर भी अनादि शांत होता है।
00:15:39.160 --> 00:15:42.936
अनादि अनंत नहीं होता है।
00:15:42.960 --> 00:15:53.016
तो अनादि अमर्यादरुप बन्धपर्यायके
वश यानी इंद्रियज्ञान को ज्ञान
मानना, आहा! वो अज्ञान है।
00:15:53.040 --> 00:16:10.736
इंद्रियज्ञान को ज्ञान माना वह अज्ञान है|
आहाहा! क्योंकि वह ज्ञान है ही नहीं
वो तो ज्ञेय है, ज्ञान नहीं है।
00:16:10.760 --> 00:16:23.016
अमर्यादरुप बन्धपर्यायके वश
उपादेय मान लिया, थोड़ा शास्त्रका ज्ञान
आ गया अहम् हो जाता है। आहाहा!
00:16:23.040 --> 00:16:32.936
जैसे कषायकी मंदतासे अहम् आता है,
सबको नहीं, कोई-कोई को सब की बात नहीं है|
समझे?
00:16:32.960 --> 00:16:40.736
कषायकी मंदतामें भी अहम् आ जाता है
तो जीवको सम्यकदर्शन होता नहीं है,
00:16:40.760 --> 00:16:50.416
क्योंकि उससे मेरा मोक्ष हो जाएगा ऐसा
मानता है, मिथ्यात्व पुष्ट हो जाता है।
00:16:50.440 --> 00:17:00.856
ऐसे शास्त्रका ज्ञान उघाड़ हो गया थोड़ा न्याय,
व्याकरण, संस्कृत पढ़ लिया, आहा|
00:17:00.880 --> 00:17:11.536
गाथा ५,५०,१००,२००,५०० मुखपाठ हो गई,
आहाहा! तो फरमाते हैं कि भैया!
00:17:11.560 --> 00:17:23.496
तु ऐनाथी छेतराणो छुं,
छेतराणो छुं, क्या ठगा गया है।
वो तेरा स्वरूप नहीं है।
00:17:23.520 --> 00:17:34.656
बन्धपर्यायके वश याने भावबंधके वश
याने इन्द्रियज्ञान उपादेय माना उसका नाम भावबंध है।
00:17:34.680 --> 00:17:41.176
शुद्धआत्मा उपादेय आने के बाद
इंद्रियज्ञान हो तो तो वो भिन्न जानते हैं।
00:17:41.200 --> 00:17:50.176
अंतरमुख होकर अतींद्रियज्ञान के द्वारा शुद्ध
आत्माको जाना और इंद्रियज्ञान भी रहा,
इंद्रियज्ञानभी रहा।
00:17:50.200 --> 00:18:00.336
आहाहा.! मगर निर्जीव हो गया वो,
उसमें जीवन प्राण नहीं रहा
वो तो मुर्दा हो गया। आहाहा!
00:18:00.360 --> 00:18:20.016
अभिप्राय का सहयोग खीस गया उसमें से। अभिप्रायका
दोष था ने, अभिप्राय का दोष, श्रद्धाका दोष बड़ा
दोष है। राग होने परभी अभिप्राय सही हो जाता है।
00:18:20.040 --> 00:18:36.256
राग मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो चिदानंद आत्मा हूं,
ऐसे भेदज्ञान करने के बाद भी राग तो थोड़ा काल
आता भी है मगर अपना स्वभाव जानता नहीं है।
00:18:36.280 --> 00:18:55.856
ऐसे एक दफे अतींद्रियज्ञानमय भगवानआत्मा और
इंद्रियज्ञान उसके बीच में प्रज्ञाछीणी डालें, प्रज्ञा याने
अतींद्रियज्ञान एक नया प्रगट होता है वो जात्यान्तर ज्ञान है।
00:18:55.880 --> 00:19:04.496
अनादि कालसे प्रकट हुआ नहीं, अनादि
मिथ्यादृष्टि के लिए यह बात है,
सादी मिथ्यादृष्टि की बात तो नहीं है|
00:19:04.520 --> 00:19:09.776
अनादि मिथ्यादृष्टि, अनादि लियाने आहाहा!
00:19:09.800 --> 00:19:22.176
अनादि मिथ्यादृष्टि जीवकी बात चलती है,
के भेदज्ञान करके अनुभव किया और
इंद्रियज्ञान और अतींद्रियज्ञान को जुदा जान लिया।
00:19:22.200 --> 00:19:32.176
जुदा अनुभव कर लिया। अनुभव करनेके
बाद सविकल्प दशा आती है और
शास्त्र तरफ लक्ष जाता है, आहाहा!
00:19:32.200 --> 00:19:36.016
लक्ष आत्मा पर नहीं जाता है,
इंद्रियज्ञान पर जाता है।
00:19:36.040 --> 00:19:42.656
शास्त्रका लक्ष करनेवाला आत्मा नहीं है।
आत्मा तो आत्माका लक्ष करने वाला है।
00:19:42.680 --> 00:19:49.776
जो आत्माका लक्ष करें वो परिणाम आत्माका है,
जो शास्त्र का लक्ष करें वह परिणाम आत्मा का
(नहीं है)| आहाहा!
00:19:49.800 --> 00:19:59.216
ऐसे भेदज्ञान हो जाता है।
इंद्रियज्ञान भी रह जाता है,
शास्त्रज्ञान भी रह जाता है।
00:19:59.240 --> 00:20:08.496
जैसे राग रहता है ऐसे इंद्रियज्ञान भी रह जाता है
क्योंकि जहाँ तक केवलज्ञान नहीं हो तहाँ तक।
आहाहा|
00:20:08.520 --> 00:20:16.856
एक समयकी ज्ञानकी पर्याय, पर्याय एक,
समय एक, इसका दो भाग पड़ जाता है।
00:20:16.880 --> 00:20:26.696
स्वआश्रितमें अतींद्रियज्ञान और परालंबी इंद्रियज्ञान।
समय एक, पर्याय एक, एक पर्यायका दो भाग पड़ता है।
00:20:26.720 --> 00:20:35.456
तो भले इंद्रियज्ञान रहे,
ज्ञान का ज्ञेयरूप भले रहे,
मगर यह मेरा भाव (नहीं है)।
00:20:35.480 --> 00:20:42.376
जैसे राग मेरा स्वभावभाव नहीं है|
आहाहा| (बटवारा) हो गई, क्या कहा?
00:20:42.400 --> 00:20:58.376
जैसे दो भागीदार हो जहाँ तक (बटवारा) ना हो तहाँ
तक चिंता रहती है। क्या होगा, क्या होगा, समझे? हाँ
बटवारा, आहाहा! स्टैम्प के कागजमें बटवारा हो गया|
00:20:58.400 --> 00:21:07.496
आहाहा! के राग भिन्न ने आत्मा भिन्न।
ऐसे इंद्रियज्ञान भिन्न ने अतींद्रियज्ञानमय
प्रभु, विभु, भगवानआत्मा भिन्न है।
00:21:07.520 --> 00:21:16.576
ऐसा अतिन्दियज्ञानके द्वारा अतींद्रियज्ञान छीणी है,
प्रज्ञाछीणी वो इंद्रियज्ञान और अतिन्द्रियज्ञान से
जुदा पाड़ती है। आहाहा!
00:21:16.600 --> 00:21:27.976
तो पाडने के बाद इंद्रियज्ञान तो रहता है थोड़े टाइम केवलज्ञान न हो तहाँ तक। ऐसे राग यथाख्यातचारित्र न हो तहाँ तक रहता है। आहाहा!
00:21:28.000 --> 00:21:33.056
वह सम्यकदर्शनमें बाधक नहीं है,
सम्यकदर्शनमें बाधक नहीं है।
00:21:33.080 --> 00:21:44.616
ज्ञान, केवलज्ञानमें बाधक है। इंद्रियज्ञान केवलज्ञानमें
बाधक है और राग यथाख्यात चरित्रमें,
है तो बाधक ही दो है तो बाधक, साधक नहीं है।
00:21:44.640 --> 00:22:00.336
क्या कहा? अनुभवके बाद इंद्रियज्ञान रहता है थोड़े टाइम के लिए, उसका आयुष्य तो अभी अल्प रहा है, पर (लेकिन) रहा है।
00:22:00.360 --> 00:22:06.336
जहां तक केवलज्ञान ना हो तहाँ तक
वो केवलज्ञान में बाधक तत्त्व है।
00:22:06.360 --> 00:22:32.896
ऐसे थोड़ा राग अल्प रहता है अस्थिरताका, साधक को भी,
वो राग यथाख्यात चारित्रमें बाधक है मगर सम्यकदर्शनमें
बाधक होता (नहीं है)। आहाहा| ऐसा स्वरूप है। आहाहा|
00:22:32.920 --> 00:22:49.256
सम्यकदर्शन वो कोई बाधक नहीं है।
जो विपरीत दृष्टि आ जावे तो बाधक है,
अविपरीत दृष्टि रहती है तो बाधक (नहीं है)। आहाहा|
00:22:49.280 --> 00:23:06.696
सम्यकदर्शन में बाधक नहीं है। इंद्रियज्ञान और राग,
राग और इंद्रियज्ञानका जो प्रेम आ जावे, अधिकता आ जावे
तो बाधक हो जाता है, तो सम्यकदर्शन टिकता नहीं है।
00:23:06.720 --> 00:23:13.296
शुद्धनय ग्रहे (तो) मोक्ष, तजे (तो) बंध है| आहाहा|
00:23:13.320 --> 00:23:23.856
ऐसे अनादि अमर्यादरूप बन्धपर्यायके वश
जिसमें समस्त स्व-परका विभाग अस्त हो गया है।
00:23:23.880 --> 00:23:38.936
"मैं अतींद्रियज्ञानमय भगवानआत्मा हूं" और ऐ
"इंद्रियज्ञान वो मेरा है" वो दो के बीच में भिन्नता
होने पर भी उसका विभाग अस्त हो गया है।
00:23:38.960 --> 00:23:49.576
इंद्रियज्ञानका अधिकतासे, प्रेमसे, उपादेय बुद्धिसे
कर्ताका कर्म मानने से, कर्ताका कर्म नहीं है
वह तो ज्ञानका ज्ञेय है।
00:23:49.600 --> 00:23:54.616
कर्ताका कर्म मानता है तो भेदज्ञान अस्त हो जाता है।
00:23:54.640 --> 00:24:05.856
है तो भिन्न-भिन्न अतींद्रिय ज्ञानमय भगवानआत्मा
और इंद्रियज्ञान खंडज्ञान,
अखंड और खंड भिन्न-भिन्न ही है।
00:24:05.880 --> 00:24:10.896
अखंड खंड में नहीं आता और
खंड अखंड में नहीं आता है। आहाहा|
00:24:10.920 --> 00:24:21.536
तो जिसमें समस्त स्व-परका विभाग याने जुदा,
विभाग याने जुदाई अस्त हो गया है, दिखाई नहीं देता है।
00:24:21.560 --> 00:24:33.296
इंद्रियज्ञानका, शास्त्रज्ञान का प्रेम अहम् हो गया,
ज्ञानका मद हो जाता है। मदका प्रकार है ने।
आहाहा| ज्ञान मद है भैया।
00:24:33.320 --> 00:24:56.456
कषाय की मंदतावाला तो कभी बच जाता है कोई ज्ञानी
मिले तो के भाई ये तेरा स्वभाव (नहीं है)। मगर,
पंडित हो गया "मैं जानता हूं" वह मर जाता है।
00:24:56.480 --> 00:25:10.336
भाई हमेरे पास पहले नहीं था,
अभी तो ज्ञान बहुत बढ़ गया है।
अरे ज्ञानका उत्पाद ही नहीं हुआ तो बढ़ता कैसे हैं?
00:25:10.360 --> 00:25:20.656
बढ़ने की बात कहां आई?
तुं क्या बोलता हैं? क्या बकते हो तू?
00:25:20.680 --> 00:25:37.176
अतींद्रियज्ञान जब प्रगट होता है वो बढ़ते बढ़ते
केवलज्ञान होता है वो तो बराबर है
मगर इंद्रियज्ञान वो ज्ञान ही नहीं है। आहाहा!
00:25:37.200 --> 00:25:43.856
वो उत्पन्न ही नहीं हुआ तो
बढ़ने की बात (कहाँ से आई) आहाहा!
00:25:43.880 --> 00:25:59.656
जैसे लक्ष्मी का ढेर हो गया, अभिमान हो जाता है,
ऐसे ज्ञान ज्ञेयका ढेर हो गया, ज्ञान का नहीं ज्ञेयका ढेर
हो गया। उसमें अभिमान करके ये भव हार जाता है।
00:25:59.680 --> 00:26:07.656
आहाहा! मनुष्य भव (हार जाता है) परिग्रह है।
आहाहा! इंद्रियज्ञान परिग्रह है। आहाहा।
00:26:07.680 --> 00:26:16.496
मुछाँ परिग्रहः, मुछाँ (परिग्रहः)
ए इन्द्रियज्ञान मेरा है मूर्छित हो गया।
वो परिग्रह है।
00:26:16.520 --> 00:26:26.416
उसने इंद्रियज्ञानको पकड़ लिया और
भगवानआत्मा को छोड़ दिया।
अपमान कर दिया आत्माका।
00:26:26.440 --> 00:26:40.056
ऐसे स्व-परका विभाग अस्त हो गया है।
अनादि से अस्त तो विभाग हो गया है
मगर भेदज्ञानसे आत्मा का उदय होता है।
00:26:40.080 --> 00:26:58.496
अर्थात् जो आत्माके साथ ऐसी
एकमेक हो रही है कि भेद दिखाई नहीं देता,
द्रव्यइंद्रियकी बात पहले करते हैं।
00:26:58.520 --> 00:27:07.056
पहले बात द्रव्यइंद्रिय, द्रव्यइंद्रिय और आत्मा
एक मेक जैसा लगता है, भेद अस्त हो गया है।
00:27:07.080 --> 00:27:25.576
द्रव्यइंद्रिय ये स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द,
छठ्ठा मन ऐसे जो द्रव्यइंद्रिय पुद्गल की रचना है,
वो चेतन की रचना वे नहीं है। प्योर (pure) पुद्गल है।
00:27:25.600 --> 00:27:34.496
प्योर, समझे ने? कोई भेणसेण (नहीं),
थोड़ा चेतन ने थोड़ा जड़ मिश्र हुआ ऐसा नहीं है।
00:27:34.520 --> 00:27:45.776
ए द्रव्य इंद्रिय जड़ है, जड़ परमाणुसे बना
हुआ पिंड है, वो दो के बीच में भेदज्ञान
नहीं है तो अस्त हो गया है।
00:27:45.800 --> 00:28:02.496
द्रव्यइंद्रिय भिन्न ने आत्मा भिन्न मालूम नहीं होता है, तो अर्थात जो आत्मा के साथ ऐसी एकमेक हो रही है याने भ्रांति हो रही है, एकमेक हो रही नहीं है एकमेक जैसी लगती है, वह तो भ्रांति है।
00:28:02.520 --> 00:28:14.816
जड़ चेतन एक होता नहीं है।
कि भेद दिखाई नहीं देता।
जुदाई होने पर भी उसकी जुदाई मालूम नहीं होती है।
00:28:14.840 --> 00:28:22.016
क्योंकि कान हो तो सुन सकते हैं,
आंख हो तो देख सकते हैं।
अच्छा|
00:28:22.040 --> 00:28:32.976
जो आंख न हो और कान न हो तो कोई देख शके नहीं,
जान सके नहीं! तो सिद्ध भगवानके पास तो द्रव्यइंद्रिय
है ही नहीं तो क्या वह जानता नहीं है? आहाहा!
00:28:33.000 --> 00:28:49.856
ये जाननेका साधन ही नहीं है।
इंद्रियज्ञान परको जानने के लिए साधन नहीं है।
स्व और परको जाननेके लिए अतींद्रियज्ञान साधन है।
00:28:49.880 --> 00:29:05.296
तो तो सब व्यवहारका लोप हो जाएगा!
व्यवहारका पक्ष चले जाएगा ने व्यवहार आ जाएगा।
घबराना नहीं, घबराने की बात नहीं है। आहाहा!
00:29:05.320 --> 00:29:13.856
समस्त ऐसे भेद दिखाई नहीं देता,
ऐसी शरीरपरिणामको प्राप्त।
00:29:13.880 --> 00:29:21.176
ये अवयवी है ना, सारा शरीर उसका एक अवयव है,
भाग, आंख है ना यह स्पेरपार्ट (spare part) है।
00:29:21.200 --> 00:29:31.296
जैसे मोटर है उसका स्पेरपार्ट जुदा-जुदा होता है ना।
ऐसे अवयवी पदार्थ है सारा शरीर उसका एक अवयव,
अवयव है तो उसका एक भाग है।
00:29:31.320 --> 00:29:44.016
जैसे स्पर्शइंद्रिय, रसइंद्रिय, द्रव्यइन्द्रिय, अभ
द्रव्यइंद्रिय की बात, ध्राणइन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय और ये
श्रोतइन्द्रिय। ये पांच द्रव्यइन्द्रियाँ है। और छठ्ठा मन।
00:29:44.040 --> 00:29:53.056
वो (मन) मनोवगर्गणा से बना हुआ है।
ऑपरेशनसे भी दिखाई देता नहीं है। ऐसा सूक्ष्म है।
00:29:53.080 --> 00:29:58.336
विचार इधर से (जहां मन है वहाँ से) चलता है
इधर से (ऊपरसे) नहीं चलता है।
00:29:58.360 --> 00:30:08.836
मानसिक जो विचार उत्पन्न होता है उसका निमित्तका स्थान यहां (मन) है। निमित्तका स्थान इधर(-मगज) (नहीं है)।
00:30:08.860 --> 00:30:20.536
मगजमें ऐसा आया, मगजमें विचार आया|
मगज में ऐसा विचार आया| आहाहा!
वो निमित्तरूप है। द्रव्यइंद्रिय निमित्तरूप है।
00:30:20.560 --> 00:30:28.336
मगर जहाँ तक वो निमित्त देखता है तहाँ तक अज्ञानी है।
उसको ज्ञेय देखे तो अज्ञान टल जाता है।
00:30:28.360 --> 00:30:35.376
क्या कहा? ये जगतमें कोई निमित्त नहीं है।
जगतमें सब ज्ञेय ही है।
00:30:35.400 --> 00:30:42.976
दृष्टांत तो दिया था। आठकर्म निमित्त नहीं है।
बोलो, दृष्टांत नहीं दिया था| आहाहा|
00:30:43.000 --> 00:30:51.016
सोनगढ़का संत तो सबको ज्ञेय,
ज्ञेयरूप से जानता है,
निमित्तरूपसे जानता नहीं है।
00:30:51.040 --> 00:30:55.696
अरे! निमित्तको नहीं माने तो
संसार का अभाव हो जाएगा।
हमको इष्ट है।
00:30:55.720 --> 00:31:08.136
वो तो इष्ट है इसलिए तो समयसारकी रचना है।
के चारगतिकी सिद्ध करने के लिए पुष्टि करने के
लिए ये समयसारकी रचना नहीं है। आहाहा!
00:31:08.160 --> 00:31:20.256
ऐसी शरीरपरिणामको प्राप्त द्रव्येन्द्रियोंको तो
जो जडइंद्रिय, द्रव्यइन्द्रिय है उसको
तो भेदज्ञानकी बात चलती है।
00:31:20.280 --> 00:31:33.736
ज्ञायक प्रभु आत्मा और द्रव्यइंद्रिय,
द्रव्यइन्द्रिय है, द्रव्यइन्द्रियका अस्तित्व है, नहीं है
ऐसा उसको काटकर अलोक में नहीं भेजना है।
00:31:33.760 --> 00:31:45.576
उसको उसके स्थान पर रहने दो। अपने को कोई नडतर
है नहीं मगर ये कान मेरा है वो अज्ञानी हो गया। आहाहा|
00:31:45.600 --> 00:31:54.696
आत्माको कान नहीं होता है,
आत्माको द्रव्यचक्षु होता नहीं है। आहाहा!
00:31:54.720 --> 00:32:12.856
आत्माको कान होवे तो कानसे सुने मगर कान है नहीं,
नाक भी नहीं है, नाकसे सुंघता नहीं है पदार्थ,
ये जीभ नहीं है आत्माको तो रस चाखता नहीं है।
00:32:12.880 --> 00:32:18.176
अभी ४९ गाथाका अनुसंधान में लेना है,
द्रव्य इंद्रिय जीतने के लिये।
00:32:18.200 --> 00:32:29.776
द्रव्येन्द्रियोंको तो निर्मल भेदाभ्यासकी प्रवीणतासे
याने द्रव्यइंद्रिय भिन्न है और उसको
जाननेवाला भावइंद्रिय भी भिन्न है।
00:32:29.800 --> 00:32:34.056
उसके अलावा में त्रिकाल, त्रिकाल ज्ञानानंद परमात्मा हुं,
00:32:34.080 --> 00:32:47.416
ऐसे निर्मल जुदाई करनेका प्रयोगसे
भेदाभ्यासकी प्रवीणतासे प्राप्त अन्तरङ्गमें
प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावके,
00:32:47.440 --> 00:33:07.296
आहाहा! अंदर भगवान प्रभु, विभु प्रगट है,
और प्रगट अतिसूक्ष्म संवर, निर्जरा ने मोक्ष तो
सूक्ष्म है मगर ज्ञायकदेव अतिसूक्ष्म है।
00:33:07.320 --> 00:33:12.656
एक एक शब्द की कीमत है भावलिंगी संत की। आहाहा|
00:33:12.680 --> 00:33:31.896
अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावके अवलम्बनके बलसे
सर्वथा अपनेसे अलग किया। सर्वथा, कथंचित भिन्न
और कथंचीत अभिन्न ऐसा है नहीं, सर्वथा भिन्न है।
00:33:31.920 --> 00:33:46.696
द्रव्यइंद्रिय जब अंर्तमुख होकर अपना अतिसुक्ष्म चैतन्य
प्रभुका लक्ष्य किया, अवलंबन लिया तो अवलंबन लेते ही
ये मैं हूं और ये मैं नहीं हूं ऐसा भेदज्ञान हो जाता है।
00:33:46.720 --> 00:33:57.176
एकत्वबुध्दि तूट जाती है। द्रव्यइन्द्रिय रह जाती है
मगर द्रव्यइंद्रिय में अहम् छूट जाता है,
और जाननेका साधन है ऐसी मिथ्याभ्रांति टल जाती है।
00:33:57.200 --> 00:34:07.736
जानने का निमित्त कारण तो चाहिए ने! आहाहा!
निमित्ताधीन दृष्टिवाणा निमित्त को शोधता है।
उपादानकी स्वशक्ति को पीछानता नहीं है।
00:34:07.760 --> 00:34:21.856
आजतक कानसे कोईने देशनालब्धि सुनी ही नहीं है,
आहाहा| क्योंकि कान ही नहीं है, कहाँ से सुने?
वो तो ज्ञानमय पुंज आत्मा है।
00:34:21.880 --> 00:34:27.816
इससे भी सूक्ष्म थोड़ा आएगा।
अभी भावइंद्रियमें इससे भी सूक्ष्म, आहाहा|
00:34:27.840 --> 00:34:40.936
मगर द्रव्यइंद्रियकी जुदाई जिसको लगे
उसको के भावइंद्रिय जुदी ही है,
वो समझने के लिए उसका मिथ्यात्व गलता है।
00:34:40.960 --> 00:34:47.536
थोड़ा ज्ञानकी अंदर निर्मलता आती है
तो दूसरे नंबरका भेदज्ञान उसको जच जाता है।
00:34:47.560 --> 00:35:00.656
द्रव्यइंद्रिय भिन्न है आत्मा से आहाहा!
वो जाननेका साधन नहीं है, वो भिन्न साधन है।
भिन्न साधन, भेदसाधन ने अभेदसाधन।
00:35:00.680 --> 00:35:16.816
भिन्नसाधन, भेदरूपसाधन और अभेदरूप साधन,
साधनका तीन प्रकार है। वो तो भिन्न है।
जानने का साधन द्रव्यइंद्रिय (नहीं है). आहाहा!
00:35:16.840 --> 00:35:31.056
सर्वथा अपनेसे अलग किया।
सो वह द्रव्येन्द्रियोंको जीतना हुआ।
ये ज्ञेयका तीन विभाग है।
00:35:31.080 --> 00:35:38.096
द्रव्यइंद्रिय, भावइंद्रिय और भावइंद्रियका
विषय तीनों को इंद्रियाँ कहा।
00:35:38.120 --> 00:35:47.616
इंद्रियों तीनों का नाम इंद्रियों अर्थात तीनों ज्ञेय है।
ज्ञेय याने पर ज्ञेय है,आहाहा| स्वज्ञेय नही है।
00:35:47.640 --> 00:35:55.936
जात आत्मा की नहीं है तीनों में।
तीनों में कोई जात,
लक्षण आत्मा का दिखाई देता नहीं है।
00:35:55.960 --> 00:36:01.896
ऐसे उसका ४९- मी गाथा में थोड़ा आधार ले लेवे।
00:36:01.920 --> 00:36:14.856
अपने को थोड़ा टाइम है ने, टाइम है थोड़ा
टाइम अपने को ज्यादा मिला एक दिनका
तो स्वाध्याय करें उसमें क्या है?
00:36:14.880 --> 00:36:22.136
४९ गाथा है उसका मथाला है।
00:36:22.160 --> 00:36:32.416
अब शिष्य पूछता है कि यह अध्यवसानादि
भाव जीव नहीं हैं तो वह एक, टंकोत्कीर्ण,
परमार्थस्वरूप जीव कैसा है?
00:36:32.440 --> 00:36:47.376
प्रश्न एक, शुद्ध आत्मा कैसा है और
उसका लक्षण क्या है? दो प्रश्न आया|
इस प्रकार इस प्रश्नका उत्तर आचार्य भगवान फरमाते है।
00:36:47.400 --> 00:36:59.016
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गन्ध-व्यक्तिविहीन है,
निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिंगसे ।।४९।।
00:36:59.040 --> 00:37:13.696
टीका:- जीव निश्चयसे पुद्गलद्रव्यसे अन्य है।
पुद्गलद्रव्य है, एक जीव द्रव्य ने एक पुद्गलद्रव्य।
00:37:13.720 --> 00:37:26.216
ये आत्मा है वह पुद्गलद्रव्यसे भिन्न है।
कभी भिन्न होता है? सिद्ध होवे तब? अभी,
तीनोंकाल, तीनोंकाल (भिन्न है।) आहाहा
00:37:26.240 --> 00:37:32.376
पुद्गलद्रव्य से भिन्न है।
भिन्न होगा ऐसा नहीं लिखा है, भिन्न है।
00:37:32.400 --> 00:37:45.416
इसलिये उसमें रसगुण विद्यमान नहीं है।
रस नामका जो गुण है वो आत्मा में नहीं है।
अतः वह अरस है।
00:37:45.440 --> 00:37:54.816
आत्मा चैतन्यरस तो है मगर पुद्गलका रस,
खट्टा-मीठा रस उसमें नहीं है। ।
00:37:54.840 --> 00:38:07.696
पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेसे स्वयं भी
रसगुण नहीं है। पुद्गलद्रव्य से भिन्न और पुद्गलद्रव्य
का रस नाम का गुण उससे भी आत्मा भिन्न है।
00:38:07.720 --> 00:38:23.776
वो रस नामका जो गुण है वो पुद्गल में है,
आत्मामें है नहीं, इसलिए अरस है।
द्रव्यसे भिन्नता, गुणसे भिन्नता, पर्यायसे भिन्नता आहाहा!
00:38:23.800 --> 00:38:32.256
ये तो भेदज्ञानकी बंसी बजती है। आहाहा!
भेदज्ञानका मंत्र है।
00:38:32.280 --> 00:38:47.256
परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामित्व भी उसके नहीं है।
आत्मा ऐसा तुं देख जो पुद्गलका स्वामी कभी हुआ नहीं है।
00:38:47.280 --> 00:38:53.776
इसलिये वह द्रव्येन्द्रियके आलम्बनसे भी
रस नहीं चखता अतः अरस है।
00:38:53.800 --> 00:39:02.776
ये जीभ का अवलंबन लेकर रसका ज्ञान
करनेवाला आत्मा नहीं है क्योंकि आत्मा अरस है।
00:39:02.800 --> 00:39:13.576
ये द्रव्यइंद्रियका स्वामी नहीं है
वो रसको जानने का ये साधन नहीं है।
साधन माना तो एकता हो गई। आहाहा!
00:39:13.600 --> 00:39:24.976
जानने का साधन तो ज्ञान है, आहाहा|
ये द्रव्यइंद्रिय साधन नहीं है| आहाहा|
जीभ साधन नहीं है। आहाहा|
00:39:25.000 --> 00:39:36.336
इसलिए द्रव्यइंद्रियके आलंबनसे भी
रस नहीं चाखता। द्रव्यइंद्रिय का आलंबन
लेनेकी जरूरत आत्माको नहीं है।
00:39:36.360 --> 00:39:44.176
रसका ज्ञान करनेके लिए, तेरे को
रसका पुद्गलका रसका ज्ञान करना
हों ने तो आत्माको जान।
00:39:44.200 --> 00:39:52.016
तो पुद्गलका, रसका, लोकालोकका ज्ञान
भावश्रुतमें अभी हो जाएगा। आहाहा|
00:39:52.040 --> 00:40:07.256
केवलज्ञान तो होगा तभी प्रत्यक्ष होगा, अभी
लोकालोक का ज्ञान भावश्रुत में आ जाता है।
सब ज्ञेय उसमें, आहाहा! प्रतिभास होता है।
00:40:07.280 --> 00:40:14.296
आत्माको जाना उसने सबको जाना।
नहीं चखता अतः अरस है।
00:40:14.320 --> 00:40:24.496
अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो,
अभी दूसरा पॉइंट अभी इधर से भी मिलेंगे।
भावइंद्रिय जब आवे ने तब वो लेना है।
00:40:24.520 --> 00:40:30.536
वो भावइन्द्रिय का बोल इसमें है और
भावइंद्रियका बोल अभी इसमें आएगा।
बादमें मिलान करेंगे।
00:40:30.560 --> 00:40:42.096
अभी द्रव्यइंद्रिय का भेदज्ञान हुआ। ३१ वी गाथाके
माध्यम से भेदज्ञान हुआ और ४९मी गाथाके माध्यमसे
भी द्रव्यइंद्रियका भेदज्ञान आचार्य भगवान ने कराया।
00:40:42.120 --> 00:40:54.296
अभी एक सूक्ष्म भावइंद्रियसे भेदज्ञान,
भेदज्ञान एक जुदा, वो थोड़ा सूक्ष्म है।
00:40:54.320 --> 00:41:06.896
द्रव्यइन्द्रियसे वो थोड़ा सूक्ष्म है, क्योंकि
द्रव्यइंद्रिय तो मात्र बहिर निमित्तभूत है।
वो तो प्योर (pure) पुद्गल की रचना है।
00:41:06.920 --> 00:41:10.960
मगर अंदर में जो क्षायोपशमज्ञान है,
00:41:10.960 --> 00:41:23.576
क्षायोपशमज्ञान वो जो, द्रव्यइन्द्रियका अवलंबन
लेता है तो भावइंद्रिय बन जाती है और,
आत्माका अवलंबन लेवे तो अतींद्रिय बन जाए।
00:41:23.600 --> 00:41:36.016
दोही क्षायोपशम ज्ञान है।
ज्ञानका दो भेद क्षायोपशम और क्षायिक।
मोहका चार भेद है। उदय, उपशम, क्षय, क्षायोपशम।
00:41:36.040 --> 00:41:42.096
अभी ज्ञानका भेद का तो क्षायोपशम हो और क्षायिक हो,
00:41:42.120 --> 00:41:50.536
और क्षायोपशमज्ञान का भी दो भेद,
एक अतींद्रियज्ञान क्षायोपशम और
इंद्रियज्ञान भी क्षायोपशम। आहाहा!
00:41:50.560 --> 00:41:56.536
इससे अभी भावइन्द्रिय का साथ
भेदज्ञानका प्रकरण आता है।
00:41:56.560 --> 00:42:00.536
ज्ञान से ज्ञानका भेदज्ञान।
00:42:00.560 --> 00:42:19.456
हमारे पिताजी ने एक दफे मेरा अपना मुमुक्षुके पत्रमें
लिखा तो मेरे पिताजी ने कहा कि मेरे ओर से लखों
की भाई साहब ज्ञान से ज्ञान जुदा है ऐसा भेदज्ञान करो।
00:42:19.480 --> 00:42:28.576
तो मैंने कहा वो समझेगा नहीं।
तो कहे नहीं समझेगा तो प्रश्न तो आएगा ना!
के ज्ञानसे ज्ञानका भेदज्ञानकी बात क्या है?
00:42:28.600 --> 00:42:37.696
ज्ञानसे रागका भेदज्ञान तो सुना।
मगर ज्ञानसे ज्ञानका भेद ज्ञान की क्या बात है,
पत्र तो आएगा ने! आहाहा!
00:42:37.720 --> 00:42:46.656
पत्र नहीं आया। याने समझ में आवे तो प्रश्न करें।
00:42:46.680 --> 00:42:55.456
नहीं समझे, समझने की दरकार नहीं है वह
भी प्रश्न नहीं करता है और समझ गया वो
भी प्रश्न नहीं करता है।
00:42:55.480 --> 00:43:01.336
समझने की जिज्ञासा है और समाधान नहीं हो
वो प्रश्न करता है। आहाहा|
00:43:01.360 --> 00:43:14.576
आभी आचार्य भगवान| आहाहा!
शास्त्रज्ञान भैया ज्ञान नहीं है।
प्रभु! भूल गया तुं।
00:43:14.600 --> 00:43:29.896
ये तेरा कपड़ेका वेपारका उघाड़
और हीराका वेपारका उघाड़, मधुभाई,
वो आत्माका ज्ञान नहीं है।
00:43:29.920 --> 00:43:47.736
और यह दाल का जो वेपार है ये मगकी दाल,
ये चनेकी दाल है समझे, इसका जो उघाड़ है ने,
आहाहा! वो ज्ञान नहीं है, भैया!
00:43:47.760 --> 00:43:55.336
वो तो ज्ञान नहीं है उसके साथ
तो पाप का संबंध हो जाता है|
00:43:55.360 --> 00:44:08.136
और शास्त्रज्ञान के साथ तो थोड़ा कषायकी मंदता
पुण्य भी(होता है) तो भी वो ज्ञान नहीं वो तो
पुण्य और पाप तो बाजु में रह जाता है। आहाहा|
00:44:08.160 --> 00:44:13.216
वो तो बाजुमें पड़ोशी तरीखे रहता है,आहाहा|
00:44:13.240 --> 00:44:29.016
मगर जो शास्त्रज्ञान, इंद्रियज्ञान,
पांचइंद्रियका ज्ञान स्थूल है,
मगर जो मानसिक ज्ञान है वो सूक्ष्म है।
00:44:29.040 --> 00:44:42.736
मन, भावमन कहे ने भावमन वो सूक्ष्म है।
ऐसे आंख से तो मूर्तिक पदार्थ
दिखते हैं वो तो स्थूल है।
00:44:42.760 --> 00:44:51.000
भावइंद्रिय खंडज्ञान उसको जाना
तो उसको अपने मान लेता है।
00:44:51.040 --> 00:44:58.856
इंद्रियज्ञान का यह धरम है।
जिसको जाने उसको अपना मान लेता है,
अपनापन कर लेता है।
00:44:58.880 --> 00:45:09.936
ऐसे एक बंध अधिकार है समयसार का उसमें
भाव बंधकी पराकाष्ठा की एक बात आई।
00:45:09.960 --> 00:45:22.696
जैसे मैं पर को जिंदा रख सकु, सुखी-दुखी कर
सकता हूं वह तो भावबंध मिथ्यात्व-अध्यवसान है ही|
00:45:22.720 --> 00:45:36.856
समझे? बचानेका भाव और मारनेका भाव,
हिंसा के अहिंसा दो ही, उसमें अपनापन
करें तो अध्यवसान है ही|
00:45:36.880 --> 00:45:50.156
मगर एक मन है इधर भावमन उसमें भगवानने
कहा हुआ छह द्रव्य, धर्मास्तिकाय को मैं
जानता हूं, अधर्मास्तिकाय को जानता हूं,
00:45:50.280 --> 00:46:00.656
आकाश को मैं जानता हूं, आहाहा! पाप हो गया,
अध्यवसान हो गया, भावबंध हो गया,
00:46:00.680 --> 00:46:10.936
उसके साथ एकत्वबुद्धि हो गई, क्योंकि भावमन में
भेदज्ञान करने की शक्ति उसमें नहीं है। एकत्व कर लेता है।
00:46:10.960 --> 00:46:29.096
भावमन जिसको जाने, चिंतन करें, आहाहा! चोबीश
तीर्थंकरका मैं स्मरण करता हूं, आहाहा! क्या कहा?
कि उस टाइम बाजुमें शुभभाव भक्ति का राग है।
00:46:29.120 --> 00:46:38.656
मगर अभी तो ये बात चलती है भावमनकी,
भावमन में पर पदार्थ का चिंतन किया तुने,
00:46:38.680 --> 00:46:44.136
तो वे भावमन उसके साथ एकत्व करता है,
भावबंध हो जाता है, अध्यवसान हो जाता है।
00:46:44.160 --> 00:46:57.136
ज्ञायक दिखाई नहीं दीया, तिरोभूत हो गया तो
अन्य के साथ एकत्व करता ही है भावमन! आहाहा!
00:46:57.160 --> 00:47:09.736
बहुत सूक्ष्म बात है, मगर समझने जैसी है।
सूक्ष्मका अर्थ नहीं समझ में आवे ऐसा नहीं।
समझने के लिए थोड़ा उपयोग लगाना। समजे?
00:47:09.760 --> 00:47:21.616
गुरुदेव कभी सूक्ष्म बात आती थी तब ऐसा बोलते थे
कि जितना समझमे आये उतना समझो,
00:47:21.640 --> 00:47:26.456
जितना समझाय उतना समझो,
जितना समझमे आये उतना समझो।
00:47:26.480 --> 00:47:33.856
ये बात समझे बिना भवका अंत आनेवाला नहीं है।
सूक्ष्म करके छोड़ देने जैसी चीज नहीं है।
00:47:33.880 --> 00:47:47.776
आत्मा ही सूक्ष्म है, तो उसको उपयोग भी सूक्ष्म
करना पड़े। इंद्रियज्ञान स्थूण है, इन्द्रियज्ञान स्थूण है,
स्थूण ज्ञानसे आत्मा का अनुभव होता नहीं।
00:47:47.800 --> 00:47:53.816
अतिन्द्रयज्ञान सुक्ष्म है। सुक्ष्म ज्ञानसे
सुक्ष्म भगवान आत्माका दर्शन होता है।
00:47:53.840 --> 00:48:19.536
दूसरा पॉइंट आता है अभी भावइंद्रियका,
भिन्न-भिन्न अपने-अपने विषयोंमें,
इंद्रियज्ञान का विषय भिन्न-भिन्न होता है|
00:48:19.560 --> 00:48:27.736
जैसे स्पर्श इंद्रियका विषय ठंडा-गर्म होता है,
रस इंद्रियका, भावइन्द्रियकी बात चलती है,
उसका विषय खट्टा-मीठा।
00:48:27.760 --> 00:48:35.816
ये (चक्षु इन्द्रियका विषय) धोणा-काला समझे?
ऐसे सुगंध-दुर्गंध, ऐसे कर्कश आवाज,
मीठा आवाज, ये सब पुद्गलकी पर्याय।
00:48:35.840 --> 00:48:45.976
उसका जो भाव, भाव है भावइंद्रिय उसका विषय,
भिन्न-भिन्न अपने-अपने विषयोंमें,
अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति करती है।
00:48:46.000 --> 00:49:00.296
इधर (स्पर्श इंद्रियसे) ठंडा लगता है मगर खट्टा-मीठा
का स्वाद आता नहीं है, उसकी योग्यता है।
योग्यता के साथ इतना ही संबंध रहता है। आहाहा!
00:49:00.320 --> 00:49:09.856
लिमिटेड (limited) है भावइंद्रिय,
अतिंद्रीयज्ञान अनलिमिटेड (unlimited) है।
पांचइंद्रियका विषयको एक समय में जान लेता है।
00:49:09.880 --> 00:49:19.616
पांचइंद्रियका विषयको एक समयमें जान लेता है,
और इंद्रिय की सन्मुख नहीं करना पड़ता है।
00:49:19.640 --> 00:49:28.176
वो विषयकी सन्मुख भी नहीं करता है उपयोग,
उपयोग आत्मसन्मुख होता है तो सब जानने
में आ जाता है। अलौकिक चीज है।
00:49:28.200 --> 00:49:42.376
भिन्न-भिन्न अपने-अपने विषयोंमें व्यापारभावसे,
व्यापारभावसे देखो व्यापार लिखा समझे, जो इंद्रियज्ञान भावइंद्रिय है ने वो लब्ध और उपयोग होता है, समझे?
00:49:42.400 --> 00:49:48.416
जब उपयोग होता है उसका नाम व्यापार।
दूसरी इंद्रियज्ञानका उघाड़ लब्धरूप होता है।
00:49:48.440 --> 00:49:56.096
एक इन्द्रियका व्यापार होता है तो दूसरी चार
इंद्रियका व्यापार लब्ध हो जाता है। आहाहा!
00:49:56.120 --> 00:50:05.496
अभाव नहीं होता है, अभाव (नहीं होता है) उसकी
शक्ति रहती है जानने की, जाननेका व्यापार बंध हो गया।
00:50:05.520 --> 00:50:11.536
पर जाननेकी शक्ति तो रहती है,
क्षायोपशम तो इतना रहता है जाता नहीं है।
00:50:11.560 --> 00:50:18.136
अपने-अपने विषयमें व्यापारभावसे जो विषयों
को खंड-खंड ग्रहण करती हैं। आहाहा!
00:50:18.160 --> 00:50:27.856
जो इंद्रियज्ञान है ने एक-एक विषय को जानता
है तो ज्ञान ही खंड हो गया, अखंड नहीं रहा।
00:50:27.880 --> 00:50:33.616
ज्ञेय से ज्ञेय आन्तर, ज्ञेय आन्तर, बार-बार
ऐसे घूमता है इंद्रियज्ञान। आहाहा!
00:50:33.640 --> 00:50:48.176
इंद्रियज्ञानमें स्थिरता नहीं आती है|
उसका स्वभाव ही अस्थिर है, चंचल है| क्या कहा?
इंद्रियज्ञान भावइंद्रियका स्वभाव ही चंचल है।
00:50:48.200 --> 00:51:08.296
ईधर बैठे और ये चलता है ३१ गाथा और कभी परदेशका
वेपारका विचार आ जावे, कभी कुटुंबका, कभी उघराणीका,
कभी क्या, कभी क्या, ऐसा ऐसा चंचल है इंद्रियज्ञान आहाहा|
00:51:08.320 --> 00:51:14.456
अतींद्रियज्ञान तो स्थिर है, चंचलता उसमें नहीं है।
00:51:14.480 --> 00:51:29.056
भगवानआत्मा तो अचल है, स्थिर है मगर उसका आश्रयसे
हुआ जो अतींद्रियज्ञान, सम्यकज्ञान, स्वसंवेदनज्ञान
वह भी स्थिर है क्योंकि उसका विषय स्थिर है।
00:51:29.080 --> 00:51:34.496
उसका विषय (स्थिर है) और
भावइंद्रियका विषय अस्थिर है।
00:51:34.520 --> 00:51:44.736
भावइंद्रियका विषय (अस्थिर है) तो अस्थिरका
लक्षे इधर भी अस्थिरता हो जाती है, ऐसा निमित्त
नैमित्तिक संबंध बनता है।
00:51:44.760 --> 00:51:54.696
है अपनी योग्यतासे, है तो अपनी स्वतंत्र योग्यतासे
उधर फेरफार हुआ तो इसके कारणसे(यहाँ)
फेरफार होता है ऐसा नहीं है।
00:51:54.720 --> 00:52:05.576
विषयोंको खण्डखण्ड ग्रहण करती हैं -
ज्ञानको खण्डखण्डरूप बतलाती हैं।
ज्ञान को खंड-खंड रूप बतलाती है|
00:52:05.600 --> 00:52:18.588
इसका क्या अर्थ है के पहले इसको जाना
तो ये खंड ज्ञान हो गया, बादमें इसको जाना,
00:52:18.612 --> 00:52:31.976
बादमें इसको जाना तो ज्ञान-ज्ञेय खंड-खंड रूप
अनेक है, ज्ञेय अनेक है तो अनेकका लक्षसे
ज्ञान की पर्यायभी खंड-खंड होती है। आहाहा!
00:52:32.000 --> 00:52:44.736
ऐसे ज्ञान, ज्ञेय ज्ञानको खंड-खंड है
ऐसी प्रसिद्धि करती है।
ज्ञानको खंडखंडरूप बतलाती है। ज्ञेयका संबंधसे।
00:52:44.760 --> 00:52:52.296
ऐसी भावेन्द्रियोंको, प्रतीतिमें आनेवाली,
अभी प्रतीतिका विषय आया।
00:52:52.320 --> 00:53:12.616
श्रद्धा का विषय आया। खंडज्ञान जितने में श्रद्धा
बलवान होती है। जब श्रद्धा बलवान होती है
अंदरमें से तब खंडज्ञान जीता जाता है।
00:53:12.640 --> 00:53:25.176
कैसे जीता जाए?
के मैं परको जानता नहीं हूं ऐसा अंदर में से,
अंदर में से श्रद्धा का बल आता है।
00:53:25.200 --> 00:53:35.816
प्रथम विकल्पआत्मक बल आता है।
व्यवहार श्रद्धा प्रगट होती है
कि मैं परको जानने वाला (नहीं) आहाहा!
00:53:35.840 --> 00:53:46.616
तो वो जो उपयोग बाहर घूमता था वो वहांसे
व्याव्रत हो जाता है. व्याव्रत समझे? लौट जाता है।
00:53:46.640 --> 00:53:56.976
ऐसा एक दफे ये शांतिभाई का लड़का है ,
तत्त्व का अभ्यासी, रुचिवाला,
पंकज उसका नाम है| उसकी साथ चर्चा हुई|
00:53:56.996 --> 00:54:37.996
यह प्रवचन, पर्युषण के लिए जल्दी सबटाइटल
किया है। कृपया त्रुटियाँ भेजें WhatsApp
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