ૐ
श्री पंचपरमेष्ठी नमः
श्री निज शुद्धात्मा नमः
श्री सद्गुरुदेवाय नमः
द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव
अपूर्व स्पष्टीकरण
अध्यात्म युगपुरुष
पूज्य कहानगुरुदेव के
अनन्य शिष्यरत्न, आत्मज्ञ,
पूज्य 'भाईश्री' लालचंदभाई के
'द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव'
अपूर्व स्पष्टीकरण रूप प्रवचन
प्रकाशक और प्राप्तिस्थान:
श्री कुंदकुंद कहानामृत प्रभावना मंदिर ट्रस्ट
‘स्वीट होम', जागनाथ प्लॉट,
गली न-६, जिमखाना रोड,
राजकोट – ३६० ००१ (सौराष्ट्र)
(ट्रस्ट, ९४२९० ८८८७९)
(समकित मोदी, ९८२५५ ८२५४९)
वीर संवत २५४९ | विक्रम संवत २०७९ | ई. स. २०२३ |
-: प्रकाशन :-
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पूज्य 'भाईश्री' लालचंदभाई मोदी के ११४ वे जन्मदिन प्रसंग पर दि. २९-५-२०२३, सोमवार, ज्येष्ठ सूद-९ |
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प्रथम आवृति - ३००
मूल कीमत ४४० रुपये (अनुमानित) मूल्य - स्वाध्याय |
प्रवचनों की उपलब्धि | |
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द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव - अपूर्व स्पष्टीकरण मे से ख़ास चुने हुए बिंदु |
अहो उपकार जिनवरनो कुंदनों ध्वनि दिव्यनो,
जिन कुंद ध्वनि आप्या, अहो आ गुरु कहाननो।
वर्तमान शासन नायक महावीर भगवान से प्रगट हुई दिव्यध्वनि की परंपरा में, कलिकाल सर्वज्ञ ऐसे श्री कुंदकुंदाचार्यदेव दो हज़ार वर्ष पूर्व हुये। श्री कुंदकुंददेव ने वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विराजमान श्री सीमंधर भगवान की सुखानंद से बहती हुई दिव्य-देशना को प्रत्यक्ष सदेह वहाँ जाकर साक्षात् मूर्तिमंत किया एवं भरतक्षेत्र में उसे लाकर द्वितीय श्रुतस्कंध के समयसार आदि पंचपरमागमों की रचना की। उसके बाद आज से एक हज़ार वर्ष पूर्व वर्तमान काल के चलते-फिरते सिद्ध, ऐसे श्री अमृतचंद्राचार्यदेव हुए। उन्होंने समयसार आदि अनेक शास्त्रों की टीका की रचना की।
इस परंपरा में मोक्षमार्ग प्रायः लुप्त जैसा ही हो गया था। मिथ्यात्व ने गले तक डुबाकर उसका एक छत्र राज शुरू हो गया था। उसी काल में ही जैनशासन में एक आध्यात्मिक महापुरुष, आत्मज्ञसंत, निष्कारण करुणा के सागर और भावी तिर्थाधिराज ऐसे निर्भय-निडर और निशंक सिंहपुरुष परम पूज्य श्री कानजीस्वामी का जन्म हुआ। उन्होंने आचार्यों के ह्रदय में बैठकर चारों ओर से शास्त्रों का निचोड़ निकालकर परमागमों के रहस्यों को अपनी प्रज्ञा से आत्मसात् करके, भव्य जीवों के श्रेयार्थ ४५ साल तक अटूट धारा से देशना की शृंखला बरसा कर असंख्य जीवों को आध्यात्मिक वातावरण में भिगो दिया। बहुत सारे जीवों ने गुरुदेवश्री के निमित्त से अपने आत्मस्वरूप को समझकर आत्मसात् किया।
पूज्य गुरुदेवश्री के ४५ साल के सोनगढ़ के सुवर्णकाल दरम्यान अनेकों शिष्यरत्न हुए। उनमें से एक प्रमुख शिष्यरत्न ऐसे आदरणीय पूज्य भाईश्री लालचंदभाई हुए। पूज्य श्री लालचंदभाई ने बहुत समय तक सोनगढ़ में पूज्य गुरुदेवश्री की छत्रछाया में रहकर, आचार्य भगवंतों के मूल तात्त्विक रहस्यों को अपने ज्ञान सरोवर के प्रकाश के साथ मिलान करके, आचार्य भगवान और पूज्य गुरुदेवश्री ने जिस तरह से शुद्धात्मा का रहस्य चारों ओर से विस्तृत किया हैं, उसे भली-भाँति अवधारण करके छठवीं गाथा के निमित्त से अपने शुद्धात्मा को स्पर्श करके अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद चख लिया।
यह अनुभव कैसे हो उसकी इस पुस्तक में विधि है। रहस्यपूर्ण चिठ्ठी है यह। मैं तो त्रिकाल मुक्त हूँ, इसप्रकार त्रिकाल अकारक-अवेदक हूँ। इसप्रकार स्वयं का जो आत्मा जैसा है उस आत्मा को विकल्प द्वारा, मन के संग द्वारा, राग के संबंधवाले ज्ञान द्वारा, जिस ज्ञान का लक्ष राग के ऊपर है अभी, ऐसे ज्ञान द्वारा, वह विचार करता है वस्तु का, तो उसका मिथ्यात्व तो गलता है परंतु मिथ्यात्व टलकर सम्यग्दर्शन नहीं होता। कि यहाँ तक आने के बाद:
उसे नयों के विकल्प कैसे छूटें?
और साक्षात् अनुभव कैसे हो?
वह यह 'द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव - अपूर्व स्पष्टीकरण' पुस्तक में उसकी स्पष्टता बहुत ही सुंदरता से पूज्य श्री लालचंदभाई ने किया है।
यह पुस्तक पूज्य भाईश्री के ११ विडिओ प्रवचन नंबर LA४०४, LA४०५, LA४०६, LA४०७, LA४०८, LA४०९, LA०६६, LA०६७, LA०६८, LA४१० तथा LA४११ के अक्षरशः प्रवचनों के रूप में प्रकाशित की गई है।
प्रस्तुत द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव पर पूज्य श्री लालचंदभाई की अपूर्व स्पष्टीकरणरूप वाणी की वीडियो रिकॉर्डिंग ब्र. संध्याबहन जैन (शिकोहाबाद) द्वारा की गई हैं। संस्था इस कार्य हेतु उनका आभार व्यक्त करती है।
अक्षरशः प्रवचन लिखने का, टायपिंग का और प्रूफ रीडिंग का कार्य पूज्य श्री लालचंदभाई अमरचंदभाई मोदी अक्षरशः प्रवचन टीम ने तैयार किया है। संस्था इस कार्य के लिए पूरी टीम का आभार व्यक्त करती है।
इस पुस्तक की प्रिंटिंग और बाइन्डिंग का कार्य Design Scope “अमरभाई पोपट” और “शार्प ऑफसेट प्रिंटर्स” वाला धर्मेशभाई शाह द्वारा हुआ है। संस्था उनका भी आभार मानती है।
यह पुस्तक दो वेबसाईट पर उपलब्ध है:-
AtmaDharma.com और AtmaDharma.org
हमारे ट्रस्ट की यह २१ वीं पुस्तक है। इस पुस्तक में जाने-अनजाने में कोई क्षति रह गई हो, तो हम क्षमा चाहते हैं। अगर आपको कोई त्रुटि मिलती है, तो atmadharma.com@gmail.com पर बताएं।
अंत में इस 'द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव - अपूर्व स्पष्टीकरण' पुस्तक में स्वभाव का स्पष्टीकरण जो पूज्य श्री लालचंदभाई ने किया है ऐसा स्वभाव, सभी जीवों को, पक्षातिक्रांत हो कर प्राप्त हो, ऐसी मंगल भावना।
ली.
ट्रस्टी श्री कुंदकुंद कहानामृत प्रभावना मंदिर ट्रस्ट, राजकोट
१. 'मैं अकारक, मैं अवेदक' ऐसा जो विकल्प, 'मैं जाननहार, करनेवाला नहीं, मैं तो जाननहार’ ऐसा विकल्प, वह संसार है।
२. भूतार्थनय से जान ज्ञान को तो निरालंबी दिखेगा। त्रिकाली द्रव्य तो निरालंबी है परंतु जिस उपयोग में आत्मा जानने में आता है वह भी निरालंबी है। सत् अहेतुक है, पर्याय में भी।
३. ध्येय में ध्यान की नास्ति है ऐसी ध्येय की अस्ति है, उसका अनुभव वह मस्ती!
४. श्रद्धा स्वभाव से एकांत। ज्ञान स्वभाव से अनेकांत। श्रद्धा का विषय एकांतिक है। श्रद्धा सच्ची होवे तो ज्ञान अनेकांतिक, दो नयों का ज्ञाता। श्रद्धा झूठी हो तो ज्ञान झूठा। ज्ञान झूठा हो तो दो नयों का ज्ञाता कहाँ से होवे?
५. दो नयों के विषय को समानरूप से सत्यार्थ माने और उसका श्रद्धान करे, तो श्रद्धान प्रगट नहीं होता।
६. (१) नयज्ञान सापेक्ष है। (२) नय विकल्परूप है और (३) नय अंशग्राही है।
७. द्रव्य को भी स्वभाव से देख, ज्ञान की पर्याय को भी उसके स्वभाव से देख, नय से मत देख। तब विकल्प छूट जायेगा।
८. पर्याय का दो स्वभाव बताये। एक तो पर्याय होने योग्य होती है, वह उसका स्वभाव है। और दूसरा - इस ज्ञान की पर्याय में ज्ञायक ही जानने में आता है, स्वभाव से ही जानने में आता है। पर्याय स्वतंत्ररूप से कर्ता होकर द्रव्य का लक्ष करती है।
९. स्वभाव में नय नहीं हैं। स्वभाव का जो ज्ञान प्रगट होता है उसमें भी नय नहीं होते।
१०. सम्यग्दृष्टि होने के बाद दो नयों का ज्ञाता होता है। सम्यग्दर्शन होने से पहले दो नयों का कर्ता होता है, ज्ञाता नहीं होता।
११. नयों के विकल्प हैं, वह शरीर का एक भाग है, ज्ञेय का भेद है, ज्ञान का भेद नहीं है।
१२. पूर्व में अनंतबार द्रव्यलिंगी मुनि हुआ, नयज्ञान तक आ गया, और व्यवहारनय हेय है वहाँ तक आया, परंतु निश्चयनय उपादेय है ऐसा (शल्य) रह गया।
१३. व्यवहार का पक्ष सूक्ष्म रह जाता है, यह निश्चय का पक्ष अर्थात् व्यवहार का पक्ष है।
१४. निषेध का भी विकल्प नहीं, विधि का भी विकल्प नहीं, विकल्प मात्र टल जाता है और स्वभाव में ढल जाता है, तब स्वानुभव होता है।
१५. श्रद्धा निर्विकल्प होने से बलवान है। ज्ञान की पर्याय सविकल्प होने से कमजोर है। श्रद्धा के बल से ही उपयोग अंदर में आता है। क्योंकि 'मैं पर को नहीं जानता' उसमें ज्ञान का बल नहीं है अपितु श्रद्धा का बल है।
१६. 'आत्मा पर को जानता नहीं है' वह श्रद्धा का बल है। और 'मैं पर को जानता हूँ' वह मिथ्यात्व है, ज्ञान का दोष नहीं है। श्रद्धा के दोष से ज्ञान का दोष आया है।
१७. एक ज्ञान सच्चा करने जाता है परंतु श्रद्धा उसकी विपरीत रहती है, वह उसे पता नहीं चलता।
१८. स्वभाव सर्वथा होता है।
१९. स्याद्वाद का - कथंचित् का अभाव होने पर भी, सर्वथा में आयेगा तो भी निश्चयाभास नहीं होगा, अनुभव हो जायेगा, जा!
२०. आत्मा में स्याद्वाद का अभाव, मगर अनुभवज्ञान में स्याद्वाद का सद्भाव है।
२१. अनंत नय हैं, एक एक पदार्थ अनंत गुण से और अनंत धर्म से युक्त है।
२२. गुण होता है उसकी पर्याय होती है और धर्म होता है उसकी पर्याय नहीं होती। गुण निरपेक्ष है और धर्म सापेक्ष है - धर्म परस्पर सापेक्ष हैं।
२३. एक-एक नय के द्वारा एक-एक गुण को जानो, एक-एक नय के द्वारा एक-एक धर्म को जानो, तो अनंतकाल चला जाये परंतु आत्मा का अनुभव नहीं होता। उसका मार्ग कोई दूसरा होना चाहिये।
२४. ज्ञानी को एक गुण के प्रति भी उपयोग जाता नहीं है उसीप्रकार एक धर्म के प्रति भी उपयोग जाता नहीं है, धर्मी के प्रति उपयोग लगा हुआ है, उसमें धर्म जानने में आ जाते हैं।
२५. सामान्य के ऊपर जहाँ उपयोग लगा, वहाँ सामान्य-विशेष समस्त पूरा ज्ञेय, अनंत गुणात्मक और अनंत धर्मात्मक पूरा ज्ञेय, ध्येय पूर्वक ज्ञेय हो जाता है, जानने में आ जाता है। ध्येय का ध्यान और ज्ञेय का ज्ञान, समय एक।
२६. कर्ता और भोक्तापना पर्याय का धर्म है। अकारक और अवेदक द्रव्य का स्वभाव है।
२७. द्रव्य का स्वभाव, स्वभाव से ही अकारक-अवेदक है। राग को भी नहीं करता और वीतरागभाव को भी नहीं करता। दुःख को भी नहीं भोगता और आनंद को भी नहीं भोगता।
२८. द्रव्य को कर्ता-भोक्ता कहना वह विभाव और कर्ता-भोक्ता मानना वह मिथ्यात्व।
२९. 'नयातिक्रांत बताया वह समय का सार है', नय से आत्मा का अनुभव नहीं होता। अनुभव के काल में नय नहीं रहते।
३०. द्रव्य का स्वभाव वह नयातीत है। उसमें नय नहीं हैं और उसे प्रसिद्ध करनेवाला ज्ञान, उसमें भी नय नहीं हैं। नय तो मानसिक ज्ञान का धर्म है। वह इन्द्रियज्ञान का धर्म है, नय। विकल्पवाले नय हैं ये।
३१. किसी को नय का ज्ञान न हो तो भी अनुभव हो जाता है।
३२. निश्चयनय से अकर्ता हूँ- वह तेरा विकल्प सच्चा है, विकल्प झूठा नहीं है, परंतु उससे क्या?
३३. तीन पाठ:- (१) 'लकड़ी को जलाती है उसे अग्नि कहा जाता है'- पराश्रित व्यवहार। (२) 'अग्नि उष्ण है' - भेदरूप व्यवहार। (३) 'अग्नि तो अग्नि है' - पराश्रित व्यवहार गया, भेदाश्रित व्यवहार गया और अभेद वस्तु अनुभव में आई।
३४. तीन पाठ:- (१) छह द्रव्य को जाने उसे ज्ञान कहने में आता है, असद्भूत व्यवहार के शल्य ऐसे घुस गए। (२) फिर ज्ञान वह आत्मा, यह भेद का शल्य घुस गया। (३) फिर ज्ञायक तो ज्ञायक है। दोनों शल्य निकल जाएं और अनुभव हो जाए।
३५. नय सापेक्ष होता है और स्वभाव निरपेक्ष होता है।
३६. निश्चयनय तो मात्र स्वभाव का इशारा करता है। व्यवहारनय में तो स्वभाव का इशारा करने की शक्ति भी नहीं है।
३७. स्वभाव नय से सिद्ध नहीं होता, स्वभाव स्वभाव से ही सिद्ध होता है।
३८. द्रव्य पर्याय को नहीं करता क्योंकि पर्याय भिन्न है। एक में दूसरे की नास्ति है, तो पर्याय को कैसे करे?
३९. आत्मा पर्याय मात्र से भिन्न है तो पर्याय सर्वथा भिन्न है या कथंचित् भिन्न-अभिन्न है?
४०. पर्याय द्रव्य को अड़ती नहीं, द्रव्य पर्याय को नहीं अड़ता। सत्ता एक है और सत् दो हैं।
४१. उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त्तं सत्त्, सत्ता एक, परंतु सत् उसमें तीन हैं - उत्पाद सत्, व्यय सत् और ध्रुव सत् है।
४२. आत्मा पहले बंधन करे और फिर बंध को छोड़े और फिर मोक्ष को करे? ऐसे बाद में या पहले कुछ है नहीं। वह तो प्रथम से ही अकारक है।
४३. जेसे शुभाशुभ भाव बंध के कारण हैं, उसीप्रकार नयों के विकल्प भी बंध के कारण हैं।
४४. व्यवहारनय का विकल्प और निश्चयनय का विकल्प बंध का कारण होने पर भी आत्मा के द्रव्य और पर्याय का निर्णय करने के लिये, प्राथमिक भूमिका में, उसे व्यवहारनय से साधन भी कहने में आता है।
४५. व्यवहारनय से ज्ञान पर को जानता है और निश्चयनय से ज्ञान आत्मा को जानता है - ऐसा नहीं है।
४६. ज्ञान उत्पादरूप होता है वह उत्पादरूप पर्याय ध्रुव को ही प्रसिद्ध करती है, पर को नहीं।
४७. ज्ञान की पर्याय, उसका विषय बदलता नहीं है। यह ज्ञान की पर्याय के स्वभाव की बात चल रही है। यह सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान की बात नहीं है।
४८. ज्ञान की पर्याय का अनादि-अनंत ऐसा स्वभाव है, कि वह ज्ञान जो उत्पन्न होता है वह अपने आत्मा को ही जानता प्रगट होता है, क्योंकि उपयोग से आत्मा अनन्य है।
४९. जो सामान्य का विशेष हो, वह विशेष उसके ही सामान्य को प्रसिद्ध करता है, दूसरे को नहीं करता।
५०. लक्ष्य को प्रसिद्ध करती है और अलक्ष्य को प्रसिद्ध नहीं करती, उसे लक्षण कहने में आता है।
५१. ज्ञान की पर्याय आत्मा को जानते-जानते, उसमें लोकालोक का प्रतिभास होता है। इस प्रतिभास को परप्रकाशक कहा जाता है।
५२. सूर्य का प्रकाश मकान को प्रसिद्ध करता है, सूर्य को प्रसिद्ध नहीं करता -ऐसा कोई कहे पागल तो? तो सूर्य को प्रसिद्ध नहीं करेगा उसका प्रकाश? अंधेरा हो जायेगा प्रकाश में? नहीं होगा।
५३. वह ज्ञान आत्मा को प्रसिद्ध किया करता है, समय-समय। यह अनुभव का आसान में आसान उपाय है।
५४. ज्ञान की पर्याय आत्मा को जानती है। किस नय से? प्रश्न ही नहीं है, ज्ञान की पर्याय का स्वभाव ही है।
५५. निर्णय में आ गया ऐसा जो मानता है, निर्णय को आगे करता है, वह तो निर्णय में भी नहीं है। निर्णय में ज्ञायक तत्त्व आगे होता है, उसे निर्णय होता है।
५६. निर्णयवाले को रात-दिन एक ज्ञायक ही स्मरण में आता रहता है।
५७. निर्णयवाला ऐसा जानता है, की इस अपूर्व निर्णय का मेरे में अभाव है क्योंकि वह पर्याय है।
५८. व्यवहार का निषेध करे उसका ही नाम निश्चयनय कहलाता है।
५९. पर को नहीं जानता उसमें व्यवहार का निषेध हुआ। निश्चयनय से ज्ञान आत्मा को नहीं जानता उसमें निश्चयनय का निषेध आया। निश्चयनय के विकल्प का निषेध है, उसके विषय का निषेध नहीं है।
६०. किस अपेक्षा से कहने में आता है? यहाँ क्या प्रयोजन सिद्ध करना है? वह समझना चाहिये।
६१. वह नहीं भोगता आनंद को तब ही आनंद प्रगट होगा और पर्याय आनंद को भोगेगी, भोगेगी और भोगेगी! ज्ञान ऐसा जानेगा कि पर्याय भोगती है, मैं नहीं भोगता।
६२. मैं अकारक और अवेदक हूँ, मैं परिणाम का करनेवाला और परिणाम का वेदनेवाला नहीं हूं।
६३. द्रव्य को द्रव्य के स्वभाव से देख और पर्याय को पर्याय के स्वभाव से देख तो तो तुझे अनुभव हो जायेगा।
६४. जाननहार जानने में आता है वर्तमान में, और जानने में आया ही करता है, किसी भी काल में ज्ञान जानना छोड़ता ही नहीं। तो फिर अनुभव क्यों नहीं होता? कि तुझे कहाँ ऐसा विश्वास है कि जाननहार जानने में आता है?
६५. निमित्त के लक्ष से जाननहार जानने में नहीं आता। त्रिकाली उपादान के लक्ष से जाननहार जानने में आता है, जानने में आता है और जानने में आता है। लक्ष पलट दे न!
६६. जानता है और जानने में आता है, जानता है और जानने में आता है, यह function (फंक्शन, कार्य) चालू ही है, अनादि से।
६७. 'जानता है ' वह ज्ञान प्रधान कथन हुआ और 'आत्मा जानने में आया करता है' वह ज्ञेय प्रधान कथन हुआ। 'जानता है' वह ज्ञान और 'जानने में आता है' वह ज्ञेय। जानता भी आत्मा है और जानने में आता भी आत्मा है।
६८. जहाँ ज्ञेय तुम्हारे श्रद्धा-ज्ञान में रहेगा, वहाँ ही तुम्हारा उपयोग जायेगा।
६९. आबालगोपाल सभी को भगवान आत्मा जानने में आया ही करता है, बिना प्रयत्न के हों! कुछ पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता और जानने में आया ही करता है। जानता है और जानने में आता है, ऐसे स्वभाव का स्वीकार करना उसका नाम पुरुषार्थ है।
७०. प्रकार दो हैं, नय और प्रमाण के: (१) 'विकल्पात्मक नय' भी होता है और (२) 'निर्विकल्पात्मक नय' भी कहने में आता है। (१) 'विकल्पात्मक प्रमाण' होता है और (२) 'निर्विकल्प प्रमाण' भी होता है।
७१. अभेद ध्येय में द्वैतपना नहीं है और अभेद ज्ञेय होता है उसमें भी द्वैतपना नहीं है। यह क्या?
७२. ध्येय में गुणभेद दिखता नहीं और स्वज्ञेय हुआ उसमें पर्याय का भेद दिखता नहीं। फिर भी गुण हैं और पर्यायें भी हैं।
७३. जाननहार जानने में आता है इतने में सम्यग्दर्शन-ज्ञान हो जाता है? इतना आसान है? स्वभाव आसान होता है, विभाव मुश्किल होता है।
७४. यह प्रयोग की बात चलती है। यह बात 'जाननहार जानने में आता है' यह धारणा की बात नहीं है।
७५. दो प्रकार के अभेद एक अभेद होकर जानने में आते हैं।
७६. 'जाननहार जानने में आता है' - यह साधारण बात नहीं है, इसकी कीमत करना सभी।
७७. व्यवहार से ज्ञाता अर्थात् क्या? कि मन उसे जानता है और कहा जाता है कि आत्मा उसे जानता है, उसका नाम 'व्यवहार से' कहा जाता है।
७८. निर्मल पर्याय का आत्मा व्यवहार से कर्ता है, व्यवहार से कर्ता अर्थात् क्या? कर्ता नहीं है, कर्ता पर्याय की पर्याय है और उपचार आया आत्मा पर।
७९. होने योग्य होते हैं उन्हें जानता नहीं। होने योग्य होते हैं, ऐसा जानकर 'जाननहार को जानता हूँ'।
८०. 'उपचार से कर्ता नहीं है’, यह केवलज्ञान का कक्का है।
८१. निश्चयनय से ज्ञान आत्मा को जानता है, स्वभाव से दूर हो गया। उसे ऐसा लगता है कि मैं आगे बढ़ा लेकिन कुछ आगे नहीं बढ़ा है, विकल्प की जाल में अटका है वह।
८२. एक को माने तो भी सम्यग्दर्शन, नौ को भूतार्थनय से जाने तो भी सम्यग्दर्शन!
८३. निश्चयनय से आत्मा को जानता है तो व्यवहारनय से पर को जानता है ऐसा आयेगा। अतः निश्चयनय नहीं, परंतु स्वभाव से ही ज्ञान आत्मा को जाना करता है।
८४. शिष्यों का यह ही प्रश्न है कि हमें क्यों अनुभव नहीं होता? नयों के विकल्प में अटक गया है इसलिये।
८५. निश्चयनय कथन यथार्थ करता है। व्यवहारनय कथन ही विपरीत करता है। ऐसे इन दो कथनों में एक कथन झूठा और एक कथन सच्चा, तब तो अभी नय में आया कहलाता है।
८६. व्यवहारनय तो अन्यथा ही कथन करता है। आहाहा! निश्चयनय कथन सत्य करता है। इसलिये पञ्चाध्यायी में कहा कि निश्चयनय पर दृष्टि रखनेवाला ही सम्यग्दृष्टि है।
८७. व्यवहार झूठा न लगे तब तक तो निश्चय सच्चा नहीं लगता!
८८. एक व्यवहार और एक निश्चय। हैं दोनों व्यवहार! परंतु एक भेद द्वारा अभेद को समझाता है और एक सीधा अभेद को बताता है।
८९. व्यवहारनय कहता है कि ज्ञान है सो आत्मा, निश्चयनय कहता है कि ज्ञायक सो आत्मा। एक कहता है कि ज्ञान आत्मा को जानता है, दूसरा कहता है कि आत्मा आत्मा को जानता है। एक भेद द्वारा और एक अभेद से।
९०. 'अकर्ता है' वह तो स्वरूप है उसका। परंतु 'मैं अकर्ता हूँ' ऐसा जो विकल्प उठता है, तब वह विकल्प उसका कर्म बन गया, ज्ञान कर्म नहीं हुआ। अनुभव नहीं हुआ उसमें।
९१. निश्चयनय का विकल्प सच्चा, विकल्प की उपस्थिति अनुभव में बाधक।
९२. असल में तो वह आगम की भाषा है या वह आत्मा की भाषा है? वह विचारने जैसा है। वह अंदर से उसे आया है या आगम कहता है अकर्ता इसलिए अकर्ता है?
९३. 'स्वभाव से अकर्ता हूँ' इसलिए 'निश्चयनय से अकर्ता हूँ' ऐसा स्थूल विकल्प गया। 'स्वभाव से अकर्ता हूँ' ऐसा सूक्ष्म विकल्प रहा, वह भी छूटकर अनुभव होता है, ऐसा संधिकाल है।
९४. पर को नहीं जानता और जाननहार जानने में आता है- ऐसे दो विकल्प उठते थे विधि-निषेध के, जब स्वभाव में आया, दोनों विकल्प छूट जाते हैं।
९५. निश्चयनय से स्वीकारे वह अलग, और स्वभाव से स्वीकारे वह अलग। निश्चयनय से स्वीकारता है वह अपूर्व निर्णय नहीं है। स्वभाव से स्वीकार आता है वह अपूर्व निर्णय है, उसे अनुभव जरूर होता है।
९६. इस नय से ऐसा हूँ, तो दूसरे नय से दूसरा हूँ, ऐसा आता है।
९७. नयवाला प्रमाण में ही खड़ा है, स्वभाववाला प्रमाण को उल्लंघता है।
९८. नय तो सापेक्ष ही है न? व्यवहारनय कहो तो निश्चयनय गौणरूप से आ जाता है, निश्चयनय कहो तो व्यवहारनय गौणरूप से आ जाता है। मुख्य-गौण होता है न नय में?
९९. उपादेय तत्त्व में दो पहलू नहीं हैं, जिसका लक्ष करना है उसमें दो पहलू नहीं हैं। जिसमें तुम्हें अहम् करना है, उसके दो पहलू नहीं होते।
१००. नय निरपेक्ष नहीं होता, स्वभाव निरपेक्ष होता है।
१०१. पहले पर्याय नक्की मत कर, पहले द्रव्य नक्की कर।
१०२. चौदह गुणस्थान जीवतत्त्व नहीं हैं, अजीवतत्त्व हैं। अजीव को जीव मानना छोड़ दे।
१०३. पर्याय को गौण कर और द्रव्य के विकल्प का अभाव कर।
१०४. स्वभाव से विचार तो स्वभाव की प्राप्ति होगी।
१०५. भूतार्थनय से तू आत्मा को जान मतलब क्या? पर्याय से रहित आत्मा है, नास्ति है ऐसे आत्मा को जान तू! भूतार्थनय से पर्याय को भी जान, कि पर्याय का कोई कर्ता नहीं है, पर्याय सत् अहेतुक है जा। तो ही द्रव्यदृष्टि होगी और कर्ताबुद्धि छूटेगी।
१०६. ११ वीं गाथा में पर्याय से निरपेक्ष द्रव्य बताया। १३ वीं गाथा में द्रव्य से निरपेक्ष पर्याय है वह बताया। द्रव्य से निरपेक्ष पर्याय होती है? कि हाँ। पर्याय से निरपेक्ष द्रव्य होता है? कि हाँ। तो एकांत होगा? कि सम्यक् एकांत हो जायेगा।
१०७. जहाँ कथंचित् कहा तो सापेक्ष हो गया। ज्ञान सच्चा करने गया, श्रद्धा झूठी हो गई। पहले ज्ञान सच्चा होता ही नहीं! श्रद्धा सच्ची होती है तो ज्ञान सच्चा होता है।
१०८. पहले निरपेक्ष और फिर सापेक्ष का ज्ञान होता है।निरपेक्ष के श्रद्धान में, निरपेक्ष का ज्ञान और सापेक्ष का ज्ञान, तीनों आ जाते हैं। अकेली श्रद्धा निरपेक्ष नहीं, ज्ञान भी निरपेक्ष का होता है।
१०९. स्वभाव का अवलंबन लेने पर द्रव्य-पर्याय दोनों का युगपद् एक समय में ज्ञान होता है। नय के विकल्प से अनुभव नहीं होता, दोनों का ज्ञाता नहीं होता, नय विकल्प का कर्ता बन जाता है।
११०. निश्चयनय का पक्ष व्यवहारनय के पक्ष को छुड़ाता है, और स्वभाव निश्चयनय के पक्ष के विकल्प को छुड़ाता है, तब अनुभव होता है।
१११. निश्चयनय एक धर्म को स्वीकारता है। स्वभावदृष्टि में पूरा धर्मी आ जाता है।
११२. नय से एक धर्म जानने में आता था। स्वभावदृष्टि से पूरा धर्मी ज्ञात हो जाता है।
११३. आश्रय एक का और ज्ञान अनंत का हो जाता है। आश्रय सामान्य का और ज्ञान सामान्य-विशेष पूरे आत्मा का।
११४. निश्चयनय तो एक धर्म को अंगीकार करता है और बाकी के धर्म रह जाते हैं।
११५. नय से एक-एक धर्म का ज्ञान होता है। स्वभाव से अनंत धर्म का ज्ञान होता है। नय मानसिक ज्ञान है, वह अतीन्द्रियज्ञान है।
११६. दो नयों को जानते हैं ज्ञानी। क्रम से जानना वह जानना ही नहीं है। द्रव्य-पर्यायस्वरूप सम्पूर्ण वस्तु अक्रम से ज्ञात हो जाते हैं।
११७. भगवान जो आत्मा सामान्य ज्ञायकभाव है, वह अनादि-अनंत अपने स्वभाव से ही शुद्ध है। अशुद्धता टले तो शुद्ध है, ऐसा भी नहीं है, और ‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसा विकल्प करे तो शुद्ध है, ऐसा भी नहीं है।
११८. व्यवहारनय से विचारे तो भी प्रमाण में और निश्चयनय से विचारे तो भी प्रमाण में आ जाता है। सापेक्ष है न, इसीलिये।
११९. नयों के द्वारा समझाया जाता है परंतु नयों से वस्तु तुझे अनुभव में नहीं आयेगी, अनुमान में आयेगी लेकिन अनुभव में नहीं आयेगी।
१२०. श्रद्धा के बल से ही उपयोग अंदर में आता है। श्रद्धा विपरीत है अनंतकाल से। श्रद्धा का दोष पहले टलता है, फिर चारित्र का दोष टलता है।
१२१. व्यवहारनय संयोग को बताता है, निश्चयनय स्वभाव को बताता है। दोनों विकल्पात्मक नय हैं।
१२२. लोग ज्ञान के बल के ऊपर चले गये, श्रद्धा का बल चाहिये।
१२३. ज्ञान निर्बल है, सविकल्प है। श्रद्धा निर्विकल्प है। श्रद्धा अभेदग्राही है, ज्ञान भेदाभेदग्राही है।
१२४. निश्चयनय से अकर्ता हूँ ऐसा नहीं, स्वभाव से ही अकर्ता हूँ। निश्चयनय से ज्ञाता हूँ ऐसा नहीं, स्वभाव से ही ज्ञाता हूँ।
१२५. निश्चयनय व्यवहार का निषेध करता है और स्वभाव निश्चयनय का निषेध करके अनुभव कराता है।
१२६. व्यवहारनय तो अन्यथा कथन करता है। निश्चयनय तो जैसा स्वरूप है ऐसा प्रतिपादन करता है। परंतु उससे क्या?
१२७. स्वभाव का जोर आने पर विकल्प सहज ही छूटते हैं। छोड़ता नहीं है, विकल्प की उत्पत्ति होती नहीं है।
१२८. विकल्प को छोड़ता भी नहीं और निर्विकल्प को करता भी नहीं, वह तो ज्ञायक को जानता है - वहाँ यह स्थिति बन जाती है।
१२९. विकल्प का अर्थ खंडज्ञान है, विकल्प का अर्थ राग भी है।
१३०. पहले व्यवहार का निषेध उसे विकल्प द्वारा करना पड़ता है। फिर जब ऐसा निश्चयनय का जोर आ जाता है तब उसे निषेध के लिये विकल्प नहीं करना पड़ता, विकल्प के बिना निषेध वर्तता रहता है।
१३१. आत्मा का आश्रय आया नहीं है और निश्चयनय के विकल्प का पक्ष रहा करता है। जब आत्मा का आश्रय आता है, तब निश्चय के पक्ष का विकल्प छूटकर अनुभव हो जाता है।
१३२. व्यवहार का निषेध वह विकल्प का दुरुपयोग। स्वभाव ग्रहण किया विकल्प में, तो विकल्प का सदुपयोग हुआ। वह विकल्प का जो सदुपयोग रहता है, वह विकल्प टूटनेवाला है। जिस विकल्प में दुरुपयोग है, वह विकल्प टूटता नहीं।
१३३. पर तो ज्ञात नहीं होता परंतु मेरे विशेष में सामान्य ज्ञात होता है ऐसा जो विकल्प, एक अपेक्षा से वह सदुपयोग है, व्यवहार की अपेक्षा से। परंतु वह विकल्प की भी अधिकता नहीं आती। यदि अधिकता आ जाये तो निश्चयनय रहता नहीं।
१३४. विकल्प में स्वभाव की अधिकता होती है इसलिए यह विकल्प टूटकर निर्विकल्प अनुभव अवश्य होता है उसे।
१३५. स्वभाव के लक्ष से ही स्वाध्याय करना, निमित्त के लक्ष से नहीं, भेद के लक्ष से नहीं, राग के लक्ष से नहीं, उघाड़ के लक्ष से नहीं। उसमें उर्ध्व आत्मा, आत्मा आना चाहिये, बस, तो ही स्वाध्याय सच्चा है।
१३६. स्वभाव से देखो तो विकल्प छूट जायेंगे। नय से देखा करोगे तो विकल्प रहेंगे।
१३७. स्वभाव से विचारने पर और स्वभाव से अनुभव करने पर, इन दोनों में फर्क है। स्वभाव से विचारने पर- वह मानसिक है।
१३८. 'मैं स्वभाव से ही शुद्ध हूँ' -उसमें व्यवहारनय से अशुद्ध हूँ, वह दोष छूट जाता है और निश्चयनय से शुद्ध हूँ वह विकल्प छूट जाता है।
१३९. ऐसा द्रव्य स्वभाव त्रिकाली है कि जो परिणाम होते हैं उन्हें करता भी नहीं और परिणाम होते हैं उन्हें जानता भी नहीं। ऐसा द्रव्य स्वभाव निष्क्रिय परमात्मा है।
१४०. स्वभाव से ही अकारक और अवेदक है। किसी भी होते हुये परिणाम को करता नहीं और होते हुये परिणाम को भोगता नहीं।
१४१. जैनदर्शन वस्तु-दर्शन है। इसके दो भेद, द्रव्य स्वभाव और पर्याय स्वभाव। द्रव्य निष्क्रिय और पर्याय सक्रिय, अनादि-अनंत दोनों।
१४२. प्रमाण से एक सत्ता है, नय विभाग से देखो तो दो सत्ता हैं। स्वभाव से देखो तो भी दो सत्तायें हैं, अलग-अलग। अभेदनय से एक सत्ता है, भेदनय से दो सत्ता हैं। वस्तु का स्वरूप है ऐसा।
१४३. अज्ञानी हो, साधक हो, परमात्मा हो, पर्याय में कर्ता और भोक्तापना पर्याय का स्वभाव से ही हुआ करता है।
१४४. होने योग्य होता है, जाननहार जानने में आता है। जाननहार को जिसने जाना उसे ऐसा भासित होता है कि होने योग्य होता है।
१४५. आत्मा अकारक और अवेदक है, मूल बात यह है। पर्याय करती है तब द्रव्य अकर्ता रहता है।
१४६. आत्मा कर्ता-भोक्ता है ऐसी भ्रांति अनादिकाल से है, तो भी आत्मा कर्ता होता नहीं है, अकर्तापना छोड़ता नहीं है।
१४७. मिथ्यात्व के परिणाम को जीव करता है वह उपचार का कथन है, व्यवहार का कथन। वह उपचार जो व्यवहार है वह तुझे सत्यार्थ लगा है इसलिये तेरा अज्ञान रह गया।
१४८. गुरुदेव ने वे दो विभाग अलग किये -द्रव्य स्वभाव और पर्याय स्वभाव -इस की बात (प्रवचन रत्नाकर के) ११ भाग तुम पढ़ो तो उसमें मिलेगी।
१४९. आत्मा को अकर्ता रखकर पर्याय पर्याय को करती है ऐसा जानो। ऐसा जानो कि मैं तो अकर्ता हूँ और परिणाम परिणाम से होता है।
१५०. करना-भोगना वह तो पर्याय का स्वभाव है, जीव का स्वभाव नहीं है। जीव तो अकारक-अवेदक निष्क्रिय परमात्मा है।
१५१. मिथ्यात्व की पर्याय होती है तब मिथ्यात्व की पर्याय का भगवान आत्मा अकर्ता है। वह मिथ्यात्व की पर्याय टल जाती है तब अकर्ता हुआ, ऐसा नहीं है। वह तो प्रथम से ही अकर्ता है।
१५२. पर्याय मिथ्यात्व को करती है।सम्यग्दर्शन को करती है, केवलज्ञान को करती है। ऐसा पर्याय स्वभाव है उसे जानने का निषेध नहीं है, परंतु 'मैं करता हूँ' उसका निषेध है।
१५३. पर्याय के कर्ता-भोक्ता धर्म जैसे हैं वैसे जानने में आ जाते हैं। जानने में आ जाते हैं, उन्हें जानता नहीं है, लक्ष नहीं है न वहाँ।
१५४. परिणाम होने योग्य होते हैं और जाननहार जानने में आता है। होने योग्य होता है वह जनाता नहीं है, जाननहार जनाता है।
१५५. पर्याय को मैं करता हूँ वह कर्ताबुद्धि छोड़ दे कि निश्चय से भी कर्ता नहीं हूँ और व्यवहार से भी कर्ता नहीं हूँ। तो व्यवहार करना हो तो क्या कहना? कि व्यवहार से उसे जानता है, इतना कह सकते हैं।
१५६. भाषा बोलता है व्यवहारनय से कर्ता और मानता है निश्चय से कर्ता, ऐसा मईल्ल धवल में पाठ आया है।
१५७. द्रव्य निश्चय से या व्यवहार से कर्ता ही नहीं है क्योंकि होने योग्य परिणाम होते हैं, इसलिये कर्तापना इसे लागु नहीं पड़ता।
१५८. सम्यग्दर्शन का निश्चय से तो कर्ता नहीं है, व्यवहार से भी कर्ता नहीं है। व्यवहार से कर्ता नहीं है अर्थात् उसकी उपस्थिति है तो यहाँ होता है, ऐसा नहीं है।
१५९. उपादानकर्ता पर्याय और निमित्तकर्ता पुराने कर्म का अभाव। परंतु उपादानकर्ता भी आत्मा नहीं और निमित्तकर्ता भी आत्मा नहीं।
१६०. पर्याय का कर्ता पर्याय निश्चयनय से है तो आत्मा व्यवहारनय से कर्ता है ऐसा आ जायेगा।
१६१. गुरुदेव ने ही पर्याय स्वभाव की बात की है, षट्कारक स्वयं से होते हैं, उसका जन्मक्षण है, उसका स्वकाल है। आत्मा से पर्याय होती नहीं है।
१६२. ज्ञान में स्वच्छता है - पर्याय ज्ञात हो जाती है। जानने का प्रयत्न करे और जानने में आये, ऐसा नहीं है. सहज में ज्ञात हो जाती है।
१६३. पहले जानने का निषेध किया क्योंकि वह तो पर्यायदृष्टि थी। पर्यायदृष्टि थी उसे छुड़ायी, अनुभव हुआ तो द्रव्य-पर्याय एक समय में सब कुछ ज्ञात होता है बस! धर्मी को जानने पर धर्म भी ज्ञात हो जाते हैं।
१६४. होने योग्य होता है, वह पर्याय का स्वभाव है ऐसा तू जान। कर्ताबुद्धि छूटे और ज्ञाताबुद्धि छूटे, साक्षात् ज्ञाता होता है।
१६५. स्वभाव को जानने में नय की जरूरत नहीं है, परंतु नयातीत ज्ञान की तो जरूरत है।
१६६. पर्याय को व्यवहार से करूँ ऐसा नहीं है। भेद में है तू (तो) पर्याय को व्यवहार से जानूँ, इतना रख। अभेद में तो वह भी नहीं है, पर्याय को जानता नहीं। अभेदनय से तो पर्याय स्वयं आत्मा हो जाती है।
१६७. पर्याय को पर्याय के स्वभाव से देखो तो आत्मा उसका कर्ता है वह भूल निकल जायेगी।
१६८. दोनों स्वभाव ख्याल में आये उसका नाम ज्ञाता बन गया।
१६९. दो स्वभाव ही हैं, (१) द्रव्य स्वभाव और (२) पर्याय स्वभाव। समझने जैसे यह इतना ही है। इसप्रकार से ही समझने जैसा है।
१७०. पर्याय के स्वभाव को जाने तो द्रव्य का स्वभाव दृढ़ होता है और द्रव्य का स्वभाव जाने तो पर्याय का स्वभाव दृढ़ हो जाता है।
१७१. द्रव्य अकर्ता है ऐसा स्वभाव जाने तो पर्याय का कर्तापना नहीं रहता। और पर्याय स्वयं करती है तो कर्ता का उपचार निकल जाता है। कर्ता की बुद्धि भी निकल जाती है और कर्ता का उपचार भी निकल जाता है। दो गुण होते हैं, पहले सम्यग्दर्शन, और फिर विशेष अनुभव - श्रेणी।
१७२. द्रव्य अकर्ता स्वतंत्र है, पर्याय कर्ता स्वतंत्र है - दोनों शाश्वत स्वतंत्र हैं।
१७३. द्रव्य स्वभाव में बैठे बैठे अर्थात् द्रव्य को लक्ष में लेते-लेते पर्याय का ज्ञाता हो जाता है, पर्याय का लक्ष नहीं है।
१७४. नय से विचार करता है वहाँ स्वभाव का अनुभव नहीं हुआ, विकल्प का अनुभव हुआ, ज्ञान का अनुभव नहीं हुआ, राग का अनुभव हुआ।
१७५. द्रव्य स्वभाव को जानने पर सम्यग्दर्शन होता है और पर्याय स्वभाव को यथार्थ जाने तो क्षायिक हो जाता है।
१७६. अकर्ता में बैठे बैठे कर्ता धर्म को जानता है। अकर्ता स्वभाव को छोड़े तो? कर्ताबुद्धि होती है। किसी को नहीं जान सकता, अज्ञान हो जाता है।
१७७. निश्चयनय का विकल्प भी अनुभव में बाधक है। निर्णय के लिये साधक हैं परंतु अनुभव में बाधक हैं।
१७८. जाननहार जानने में आता है उसमें चले जाओ। जानने में आ जायेगा।
१७९. मैं स्वभाव से ही ज्ञायक हूँ। निश्चयनय से ज्ञायक हूँ, ऐसा नहीं है।
१८०. पर्याय के मूल स्वभाव को मूल में से देख।
१८१. पर्याय का कर्ता पर्याय निश्चय से है, तो व्यवहार से कौन करता है? कि आत्मा करता है, आ जायेगा वह।
१८२. पर्याय का कर्ता पर्याय स्वभाव से ही है।
१८३. अकेले ज्ञान में आनंद आता है। नय वाले ज्ञान में आनंद नहीं आता।
१८४. ध्येय, ज्ञेय होता है और फिर फल में, ज्ञेय - सामान्य-विशेषात्मक पूरा आत्मा, ज्ञेय हो जाता है।
१८५. उपादेयरूप से भी एक ज्ञेय, ज्ञायक - सामान्य। और जानने की अपेक्षा से भी अभेद ज्ञानपर्याय-परिणत पूरा आत्मा, सामान्य-विशेष दोनों, वह ज्ञेय।
१८६. विकल्प के द्वारा दो नयों का ज्ञाता नहीं हो सकता (और) विकल्प रहित अतीन्द्रियज्ञान, अनुभव होता है तब दो नयों का साक्षात् ज्ञाता है।
१८७. अनुभव का विषय और अनुभव, समझ गये? भेद करो तो दोनों को जानता है, अभेद से एक को जानता है और प्रमाण से भेदाभेद को जानता है। वह कुछ नहीं है, एक ज्ञान की पर्याय ज्ञात होती है, बस!
१८८. द्रव्य को द्रव्य स्वभाव से जानता है, पर्याय को पर्याय स्वभाव से जानता है। द्रव्य को द्रव्यार्थिकनय से नहीं जानता, पर्याय को पर्यायार्थिकनय से नहीं जानता। अर्थात् किसी भी प्रकार का विकल्प उत्पन्न हुए बिना दोनों का ज्ञाता हो गया।
१८९. भगवान आत्मा ज्ञेय हो गया। ज्ञान भी एक, ज्ञेय भी एक और ज्ञाता भी एक। ज्ञेय दो, ज्ञान दो और ज्ञाता दो का, ऐसा नहीं है।
पूज्य भाईश्री की छत्रछाया मे हुए प्रकाशनों |
इंद्रीयज्ञान ज्ञान नहीं है
द्रव्य स्वभाव-पर्याय स्वभाव (गुजराती)
भेदज्ञान भजनावली
श्री कुंदकुंद कहानामृत स्वाध्याय हॉल के प्रकाशन |
१. ज्ञान से ज्ञान का भेदज्ञान | २. द्रव्यस्वभाव-पर्यायस्वभाव की चर्चा |
३. जाननहार जानने मे आता है | ४. आत्मजयोती |
५. चैतन्य विलास | ६. शुद्ध अन्तःतत्त्व |
७. मंगल ज्ञानदर्पण भाग-૧ | ८. ज्ञायक स्वरूप प्रकाशन |
९. अनेकांत अमृत | १०. ज्ञान का ज्ञानत्व |
११. पूज्य 'भाईश्री' का सिद्धांतों की सर्वाणी | १२. बूँद बूँद मे अमृत |
१३. लंडन का प्रवचन भाग-૧ | १४. नयचक्र तत्त्वचर्चा |
१५. आध्यात्मिक ज्ञानगोष्ठी भाग-૧ | १६. चितस्वरूप जीव |
१७. सत् अहेतुक ज्ञान | १८. ‘બે ભૂલ’ - ‘दो भूल’ |
१९. द्रव्य स्वभाव-पर्याय स्वभाव (गुजराती और हिन्दी) | २०. द्रव्य स्वभाव-पर्याय स्वभाव - अपूर्व स्पष्टीकरण (गुजराती) |
२१. द्रव्य स्वभाव पर्याय स्वभाव - अपूर्व स्पष्टीकरण (हिन्दी) |
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(हरिगीत)
संसारी जीवनां भावमरणो टाळवा करुणा करी,
सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
(अनुष्टुप)
कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या,
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
(शिखरिणी)
अहो! वाणी तारी प्रशमरस-भावे नीतरती,
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी उतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
(शार्दूलविक्रीडित)
तुं छे निश्चयग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा,
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
(वसंततिलका)
सुण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय,
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
(अनुष्टुप)
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोना अक्षरो लखी;
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.